Wednesday, 21 September 2016

धर्म का रहस्य


जाजलि नामके एक ऋषि थे। एक बार वे महातपस्वी ऋषि निराहार रहकर केवल वायु-भक्षण करते हुए काष्ठ की भाँति अविचलभाव से खड़े हो घोर तपस्या में प्रवृत्त हुए । उस समय उन्हें कोई ठूँठ समक्षकर एक चिड़िये का जोड़ा उनकी जटाओं में अपने रहने का घोंसला बनाकर कभी-कभी तो पाँच-दस दिन बाद भी लौटता था, पर ऋषि बिना हिले-डुले ही खड़े रहते थे।
एक बार-जब वे पक्षी उड़ने के बाद एक महीने तक वापस नहीं लौटे तब भी जाजलि ऋषि ज्यों- के- त्यों खड़े रहे। अपने मस्तक पर चिड़ियों के पैदा होने और बढ़ने आदि की बातें याद करके वे अपने को महान धर्मात्मा समझ आकाश की ओर देखकर बोल उठे, मैंने धर्म को प्राप्त कर लिया । इतनें में आकाश वाणी हुई- जाजलि तुम धर्म में तुलाधार की बराबरी नहीं कर सकते । काशीपुरी का धर्मात्मा तुलाधार भी ऐसी बात नहीं कहता ।
जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे तुलाधार को देखने काशी आये । वहाँ पहुँच कर उन्होंने तुलाधार को सौदा बेचते हुए देखा । तुलाधार भी जाजलि को देखते ही उठकर खड़े हो गये फिर आगे बढ़कर बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्होंने जाजलि का स्वागत करते हुए कहा- आप मेरे पास आ रहें हैं यह बात मुझे मालुम हो गयी थी । आपने समुद्रतट पर एक वन में रहकर बड़ी भारी तपस्या की है। उसमें सिद्धि प्राप्त होने के बाद आपने मस्तक पर चिड़ियों के बच्चे पैदा हुए, बड़े हुए और आपने उनकी भलीभाँति रक्षा की। जब वे इधर-उधर चले गये तब अपने को धर्मात्मा समझ कर आपको बड़ा गर्व हो गया। विप्रवर आज्ञा दीजिये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करुँ
जाजलि ने तुलाधार की बातों से अत्यन्त प्रभावित होकर उनके धर्म का रहस्य जानने की इच्छा व्यक्त की। रस, गन्ध, वनस्पति, ओषधि, मूल और फल आदि बेचने वाले तुलाधार को धर्म में निष्ठा रखने वाली बुद्धि कैसे प्राप्त हुई- यह जाजलि के लिये आश्चर्य की बात थी।
तुलाधार ने कहा – मैं परम प्राचीन और सबका हित करने वाले सनातन धर्म को उसके गूढ़ रहस्यों सहित जानता हूँ। किसी भी प्राणी से द्रोह न करके जीविका चलाना श्रेष्ठ माना गया हैं। मैं उसी धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हूँ। काठ और घास-फूँस से छाकर मैंने अपने रहने के लिये यह घर बनाया है। छोटी-बड़ी चीजें तो बेचता हूँ, पर मदिरा नहीं बेचता। सब चीजे मैं दूसरों के यहाँ से खरीदकर बेचता हूँ, स्वयं तैयार नहीं करता। माल बेचने में किसी प्रकार की ठगी या छल-कपच से काम नहीं लेता। मैं न किसी से मेल-जोल बढ़ाता हूँ, न विरोध करता हूँ, मेरा न कहीं राग हैं, न द्वेष, सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मेरे मन में एक-सा भाव है। यही मेरा व्रत है। मेरा तराजू सबके लिये बराबर तौलता है। मैं दूसरों के कार्यो की निन्दा या स्तुति नहीं करता। मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में भेद नहीं मानता। अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म मानता हूँ। धर्म का तत्व अत्यन्त सूक्ष्म हैं, कोई भी धर्म निष्फल नहीं होता। लोगों की देखा-देखी नहीं करता। जो मुझे मानता हैं तथा जो मेरी प्रशसां करता है, वे दोनों ही मेरे लिये समान हैं, मैं उनमें से किसी को प्रिय और अप्रिय नहीं मानता।

No comments:

Post a Comment