Wednesday 21 September 2016

दैत्यराज विरोचन की दानशीलता


दैत्यराज विरोचन भक्तश्रेष्ठ प्रहलाद के पुत्र थे और प्रहलाद के पश्चात् ये ही दैत्यों के अधिपति बने थे। प्रजापति ब्रहमा के समीप दैत्यों के अग्रणी रूप में धर्म की शिक्षा ग्रहण करने विरोचन ही गए थे। धर्म में इनकी श्रद्धा थी। आचार्य शुक्र के ये बड़े निष्ठावान् भक्त थे और शुक्राचार्य भी इनसे बहुत स्नेह करते थे।
अपने पिता प्रहलाद का विरोचन पर बहुत प्रभाव पड़ा। इसलिए ये देवताओं से कोई द्वेष नही रखते थे। विरोचन के मन में पृथ्वी पर भी अधिकार करने की इच्छा नही हुई, स्वर्ग पर अधिकार करना भला वे क्यों चाहते! वे तो सुतल के राज्य से ही संतुष्ट थे।
शत्रु की ओर से सावधान रहना चाहिए, यह नीति है ओर संपन्न लोगों का स्वभाव है अकारण शंकित रहना। अर्थ का यह दोष है कि वह व्यक्ति को निश्चिंत और निर्भय नही रहने देता। असुरों एवं देवताओं की शत्रुता पुरानी है; क्यों असुर रजोगुण-तमोगुणप्रधान है और देवता सत्वगुणप्रधान। अतः देवराज इंद्र को सदा यह भय व्याकुल रखता था कि यदि कही असुरों ने अमरावती पर आक्रमण कर दिया तो परम धर्मात्मा विरोचन का युद्ध में सामना करना देवताओं की शक्ति से बाहर है, उस समय पराजय ही हाथ लगेगी।
शत्रु प्रबल हो, युद्ध में उसका सामना संभव न हो तो उसे नष्ट करने का प्रबंध पहले करना चाहिए। इंद्र आक्रमण करके अथवा धोखे से विरोचन को मार दे तो शुक्राचार्य अपनी संजीवनी-विद्या के प्रभाव से उन्हें जीवित कर देंगे और आज के प्रशांत विरोचन क्रुद्ध होने पर देवताओं के लिए विपत्ति बन जाएँगे। अतैव देवगुरु बृहस्पति की मंत्रणा से इंद्र ने ब्राहमण का वेश बनाया और सुतल पहुँचे।
विरोचन ने अभ्यागत ब्राह्मण का स्वागत किया। इसके पश्चात् हाथ जोड़कर बोले- ‘मेरा आज सौभाग्य उदय हुआ कि मुझ असुर के सदन में आप के पावन चरण पड़े। मैं आपकी क्या सेवा करुँ?’
इंद्र ने विरोचन की दानशीलता की प्रशंसा की और विरोचन के आग्रह पर बोले- ‘मुझे आपकी आयु चाहिए।’
दैत्यराज का सिर माँगना व्यर्थ था, क्योंकि गुरु शुक्राचार्य की संजीवनी कही गई नही थी। किंतु विरोचन किंचित् भी हतप्रभ नही हुए। उन्होंने प्रसन्नता से कहा- ‘मैं धन्य हूँ। मेरा जन्म लेना सफल हो गया। मेरा जीवन स्वीकार करके आपने मुझे कृतकृत्य कर दिया।’
विरोचन ने अपने हाथ में खड्ग उठाया और एक हाथ से अपना मस्तक काटकर दूसरे हाथ से ब्राह्मण की ओर बढ़ा दिया। इंद्र भय के कारण वह मस्तक लेकर शीघ्र स्वर्ग चले आए। विरोचन को तो भगवान् ने अपना पार्षद बना लिया।

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