Wednesday 21 September 2016

सच्चिदानन्द के ज्योतिषी


भगवान शिव हैं श्रीराम के अनन्य भक्त। वे दिन-रात भगवान श्रीराम के पावन नाम का स्मरण करते हैं और उसी नाम के बल पर काशी में मरने वाले जीवों को मुक्ति का उपदेश दिया करते हैं। जब उन्होंने सुना की उनके इष्टदेव श्रीराम के अवतार अयोध्या में हो गया, तब उनके हृदय में भगवान श्रीराम के दर्शन की लालसा अत्यन्त ही बलवती हो गयी। वे सोचने लगे कि भगवान का दर्शन किस तरह हो? उन्होने भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त काकभुशुण्डि को बुलाया और उन्हें साथ लेकर आँख में प्रभु-दर्शन की लालसा लिये अयोध्या के लिये चल पड़े। इस प्रकार देवाधिदेव भगवान शिव और परम भागवत काकभुशुण्डि गुरु-शिष्य के रुप में अयोध्या पहुँचे। उस समय वे मनुष्य रुप थे, इसलिये उन्हें कोई पहचान न सका। बहुत देरतक इधर-उधर अयोध्या की गलियों में भ्रमण करने के बाद भी भगवान शिव को प्रभु के दर्शन का कोई उपयुक्त उपाय नहीं दिखायी दिया। अन्त में भगवान शिव एक जगह बैठ गये और काकभुशुण्डि जी ने क्षण भर में एक बहुत ही प्रसिद्ध एंव अत्यन्त अनुभव वृद्ध ज्योतिषी के आगमन की बात अयोध्या के घर-घर में फैला दी। लोग झुण्ड-के-झुण्ड ज्योतिषी के पास आने लगे और चारो ओर भगवान शिव की ज्योतिष-मर्मज्ञता की ही चर्चा हो रही थी।
कुछ समय में ही ज्योतिषी की विशेषता की चर्चा राजभवन के दासियों ने सुनीं और उन्होंने भी अपने बच्चोंके भविष्य की जानकारी ज्योतिषी महाराज से प्राप्त कीं। दासियों के माध्यम से राजभवन में कौसल्या अम्बा तक प्रकाण्य ज्योतिषी के आगमन का समाचार पहुँच गया। जल्दी ही भगवान शिव को सम्मान के साथ कौसल्या के महल में दासियों के द्वारा बुलवाया गया।
भगवान शिव के आनन्द का तो पारावार ही न रहा जब उन्होंने सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र प्रभु को कौसल्या अम्बा की गोदी में बैठकर मन्द-मन्द मुसकराते हुए देखा
भगवान शिव का राजमहल में यथोचित सत्कार किया गया। सुमित्रा तथा कैकेयी भी अपने पुत्रों के साथ कौसल्या के भवन में आ पहुँची। सभी माताओं ने भगवान शिव के चरणों में रखकर बालकों को प्रणाम करवाया और उनसे अपने बच्चों का भविष्य बताने की प्रार्थना कीं। भगवान शिव ने भगवान श्रीराम तथा शेष तीनों भाइयों के सुयश का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा, सीता-स्वयंवर, ताड़का-वध, राक्षसों के विनाश एव भक्तों के कल्याण की खुब चर्चा की। प्रभु श्रीराम के करारविन्दों को तो वे छोड़ना ही नहीं चाहते थे। परन्तु इस सुख से वे शीघ्र ही वंचित कर दिये गये, क्योंकि भगवान को भूख लग रही थी। तदनन्तर शंकर जी रनिवास को आनन्द में डूबा छोड़कर कैलास आये।

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