Wednesday 23 March 2016

हिन्दी शब्द सागर संख्या 40 पृष्ठ 3749 में स्वर्ग के विषय में लिखा है

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”हिन्दुओं के सात लोकों में से तीसरा लोक जो ऊपर आकाश में द्युलोक से लेकर ध्रुव लोक तक माना जाता है, स्वर्ग कहलाता है। किसी पुराण अनुसार यह सुमेरु पर्वत पर है।
देवताओं का निवास स्थान यही-स्वर्ग लोक माना गया है, और कहा गया है कि जो लोग अनेक प्रकार के पुण्य और सत्कर्म करके मरते हैं, उनकी आत्माएँ इसी लोक में जाकर निवास करती हैं।
यज्ञ दान आदि जितने पुण्य कार्य किए जाते हैं, वे सब स्वर्ग की प्राप्ति के उद्देश्य से ही किए जाते हैं। कहते हैं कि इस लोक में केवल सुख ही सुख है, दु:ख, शोक, रोग मृत्यु आदि का नाम भी नहीं है।
जो प्राणी जितने ही अधिक सत्कर्म करता है, वह उतने ही अधिक समय तक इस लोक में निवास करने का अधिकारी होता है। परन्तु पुण्यों का क्षय हो जाने अथवा अवधि पूरी हो जाने पर जीव को फिर कर्मानुसार शरीर धारण करना पड़ता है, और वह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक उसकी मुक्ति नहीं हो जाती।
यहाँ अच्छे-अच्छे फलों वाले वृक्षों, मनोहर वाटिकाओं और अप्सराओं आदि का निवास माना जाता है।

प्राय: सभी धर्मों, देशों और जातियों में स्वर्ग और नरक की कल्पना की गयी है। ईसाइयों के विचारानुसार स्वर्ग ईश्वर का निवास स्थान है, और वहाँ फरिश्ते तथा धर्मात्मा लोग अनन्त सुख का भोग करते हैं।
मुसलमानों का स्वर्ग बिहिश्त कहलाता है। मुसलमान लोग भी बिहिश्त को खुदा और फरिश्तों के रहने की जगह मानते हैं, और कहते हैं कि दीनदार लोग मरने पर वहीं जायेंगे उनका विहिश्त इन्द्रिय सुख की सब प्रकार की सामग्री से परिपूर्ण कहा जाता है।
वहाँ दूध और शहद की नदियाँ तथा समुद्र हैं। अंगूरों के वृक्ष हैं, और कभी वृद्ध न होने वाली अप्सरायें हैं। यहूदियों के यहाँ तीन स्वर्ग की कल्पना की गयी है।”

स्वर्ग में देवताओं का निवास माना जाता है, हिन्दी शब्द सागर संख्या पृष्ठ 1620 में उनके विषय में यह लिखा गया है-

”वेदों में देवता शब्द से कई प्रकार के भाव लिए गये हैं। साधारणत: मंत्रो के जितने विषय हैं, वे सब देवता कहलाते हैं।
सिल, लोढ़े, मूसल, खली, नदी, पहाड़ इत्यादि से लेकर घोड़े, मेढ़क, मनुष्य (नारशंस) इन्द्र, आदित्य इत्यादि तक वेद मन्त्रों के देवता हैं।
कात्यायन ने अनुक्रमणिका में मंत्र के वाच्य विषय को देवता कहा है। निरुक्तकार यास्क ने देवता शब्द को दान, दीपन, और द्युस्थान गत होने से निकाला है। देवता के संबंधा में प्राचीनों के चार मत पाए जाते हैं, ऐतिहासिक, याज्ञिक, नैरुक्तिक, और आध्यात्मिक।
ऐतिहासिकों के मत से प्रत्येक मंत्र भिन्न घटनाओं या पदार्थों को लेकर बना है। याज्ञिक लोग मंत्र ही को देवता मानते हैं, जैसा कि जैमिनि ने मीमांसा में स्पष्ट किया है। मीमांसा दर्शन के अनुसार देवताओं का कोई रूप, विग्रह आदि नहीं, वे मंत्रत्मक हैं।
याज्ञिकों ने देवताओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया है, सोमप और असोमप। अष्ट वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, प्रजापति और वषट्कार ये 33 सोमप देवता कहलाते हैं।
एकादश प्रदाजा, एकादश अनुयाजा, और एकादश उपयाजा ए असोमप देवता कहलाते हैं। सोमपायी देवता सोम से सन्तुष्ट हो जाते हैं, और असोमपायी पशु से तुष्ट होते हैं। नैरुक्तिक लोग स्थान के अनुसार देवता लेते हैं, और तीन देवता मानते हैं, अर्थात् पृथिवी का अग्नि, अन्तरिक्ष का इन्द्र वा वायु और द्यु स्थान का सूर्य।
बाकी देवता या तो इन्हीं तीनों के अन्तर्भूत हैं, अथवा होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता, आदि के कर्म भेद के लिए, इन्हीं तीनों के अलग-अलग नाम हैं, ऋग्वेद में कुछ ऐसे मन्त्र भी हैं, जिनमें भिन्न देवताओं में एक ही के अनेक नाम कहा है।
जैसे, बुध्दिमान लोग, इन्द्र, मित्र, और अग्नि को एक होने पर भी इन्हें बहुत बतलाते हैं।” (ऋग्वेद 1।164।46)।
यही मंत्र आध्यात्मिक पक्ष वा वेदान्त के मूल बीज हैं। उपनिषदों में इन्हीं के अनुसार एक ब्रह्म की भावना की गयी है।

प्रकृति के बीच जो वस्तुएँ प्रकाशमान, ध्यान देने योग्य और उपकारक देख पड़ीं, उनकी स्तुति या वर्णन ऋषियों ने मंत्रो द्वारा किया, जिन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ आदि होते थे, उनकी कुछ विशेष स्थिति हुई, वे लोग धन, धन्य, युद्ध में जय, शत्रुओं का नाश आदि चाहते थे।
देवता शक्ति से ऐसी ही, अगोचर सत्ताओं का भाव समझा जाने लगा, धीरे-धीरे पौराणिक काल में रुचि के अनुसार और भी अनेक देवताओं, की कल्पना की गयी। ऋग्वेद में जिन देवताओं के नाम आये हैं, उनमें से कुछ ये हैं-

अग्नि, वायु, इन्द्र, मित्र, वरुण, अश्र्चिद्वय, विश्वेदेवा, मरुद्गण, ऋतुगण, ब्रह्मणस्पति, सोम, त्वष्टा, सूर्य, विष्णु, पृश्नि; यम, पर्जन्य, अर्यमा, पूषा, रुद्रगण, वसुगण, आदित्य गण, उशना, त्रित, चैतन, अज, अहिर्बुध्न, एकयाक्त, ऋभुक्षा,गरुत्मान् इत्यादि। कुछ देवियों के नाम आये हैं, जैसे सरस्वती, सुनृता, इला, इन्द्राणी, होत्र, पृथिवी, उषा, आत्री, रोदसी, राका, सिनीवाली, इत्यादि।

ऋग्वेद में मुख्य देवता 33 माने गये हैं, जो शत्पथ ब्राह्मण में इस प्रकार गिनाये गये हैं, 8 वसु 11 रुद्र 12 आदित्य तथा इन्द्र और प्रजापति। ऋग्वेद में एक स्थान पर देवताओं की संख्या 3339 कही गयी है।
3।9।9 शतपथ ब्राह्मण और सांख्यायन श्रौत सूत्र में भी यह संख्या दी हुई है। इस पर सायण कहते हैं, कि देवता 33 ही हैं, 3339 नाम महिमा प्रकाशक है।
देवता मनुष्यों से भिन्न अमर प्राणी माने जाते थे, इसका उल्लेख ऋग्वेद में स्पष्ट है। ”हे असुर वरुण! देवता हों या मर्त्य (मनुष्य) हों, तुम सब के राजा हो।” (ऋक् 2।27।10)।

पीछे पौराणिक काल में जिसका थोड़ा बहुत सूत्रपात शुक और सूत के समय में हो चुका था, वेद के 33 देवताओं से 33 कोटि-देवों की कल्पना की गयी। इन्द्र, विष्णु, रुद्र, प्रजापति इत्यादि वैदिक देवताओं के रूप रंग कुटुम्ब आदि की कल्पना की गयी।
द्युस्थान (आकाश) के वैदिक देवता विष्णु (जो 12 आदित्यों में थे) आगे चलकर चतुर्भुज, शंख चक्र गदा पद्म, लक्ष्मी के पति हो गये। वैदिक रुद्र जटी, त्रिशूलधारी, पर्वतों के पति, गणेश, और स्कंद के पिता हो गये।
वैदिक प्रजापति वेद के वक्ता चार मुख वाले ब्रह्मा हो गये। देवताओं की भावना और उपासना में यह भेद महाभारत समय से ही कुछ-कुछ पड़ने लगा। कृष्ण के समय तक वैदिक इन्द्र की पूजा होती थी, जो पीछे बन्द हो गयी, यद्यपि इन्द्र देवताओं के राजा और स्वर्ग के स्वामी बने रहे।
आजकल हिन्दुओं में उपासना के लिए, पाँच देवते मुख्य माने गये हैं, विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, और दुर्गा। ये पंच देव कहे जाते हैं।
यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, और पुराणों के अनुसार इन्द्र चंद आदि देवते, कश्यप से उत्पन्न हुए। पुराणों में लिखा है, कि कश्यप की दिति नाम की स्त्री से दैत्य, और अदिति नाम की स्त्री से देवता उत्पन्न हुए।

बौद्ध और जैन लोग भी देवताओं को मानते हैं, और इसी पौराणिक रूप में, भेद केवल इतना है कि वे देवताओं को बुद्ध, बोधिसत्तव, वा तीर्थंकरों से निम्न श्रेणी का मानते हैं। बौद्ध लोग भी देवताओं के कई गण या वर्ग मानते हैं।
चातुर, महारात्रिक, तुषिक आदि। जैन तीन चार प्रकार के देवता मानते हैं। वैमानिक या कल्पभव, कल्पातीत, ग्रैवेयक, और अनुत्तर। वैमानिक बारह हैं। सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र, ब्रह्मा, अंतक शुक्र, सह्स्त्रर, नत, प्राणत, आरण, और अच्युत।

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