Wednesday 9 March 2016

माधुर्य रस


श्रीकृष्ण में निष्ठा, सेवाभाव और असंकोच के साथ ममता एवं लालन भी रहता है । मधुर रस में पांचों रस हैं, जिस प्रकार आकाशादि भूतों के गुण क्रमश: अन्य भूतों से मिलते हुए पृथ्वी में सब गुण मिल जाते हैं, इसी प्रकार मधुर रस में भी सब रसों का समावेश है ।
रस रूप श्रीकृष्ण की लीलाएं माधुर्य रस में पगी हुई हैं । इन मधुर लीलाओं में रहनेवाले आनंद (रस) का वर्णन करने में जब सजीव मन और वाणी भी असमर्थ हैं, तब निर्जीव लेखनी क्या वर्णन करे ?
‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’
यह तो हुआ संक्षेप में रसों के परस्पर संबंध का दिग्दर्शन और सब रसों का माधुर्य रस में समावेश । अब लेख के शीर्षक के अनुसार श्रीकृष्णलीला में माधुर्य क्या है ? इस पर विचार करना है । कोई भी चरित्र हो, जब तक उसमें मधुरता न होगी तब तक उसके श्रवण या मनन करने वालों में भावावेश नहीं हो सकता, और भाव के बिना भक्ति एवं भक्ति के अभाव में प्रेम असंभव है । प्रेमी के प्रेम का स्थायी रूप तभी होता है जब एक रस का अवलंबन मिलता है । जहां माधर्य नहीं वहां रस नहीं, मधुर (मिठास) - रहित नीरस वस्तु में प्रेम तो दूर की बात है । स्वार्थ बिना कामना भी नहीं होती ।
गुण, कामना रहित पल पल में बढ़नेवाला एक रस और अति सूक्ष्म है, अनुभव द्वारा ही कुछ जाना जा सकता है । मधुर रसाश्रय फ्रेम की परिपुष्टि विरह से होती है । मधुर रसमयी रासलीला में श्रीराधिका जी को अकेल छोड़ श्रीकृष्ण अंतर्धान हुए । उस समय की वियोगिनी श्रीराधिका की उक्ति -
हा नाथ ! रमण ! प्रेष्ठ ! क्वासि क्वासि महाभुज ।
दास्यास्ते कृपणाया मे सखे ! दर्शय सन्निधिम् ।।
कैसी मधुर है ?
माधुर्य में शांत, दास्य, सख्य के समावेश का ऐसा उदाहरण कहीं ढूंढे भी न मिलेगा । विरहासक्ति प्रेम की ऊंची दशा है, आसक्ति आकर्षण के बिना हो नहीं सकती । हमारे श्रीकृष्ण तो ‘कर्षयतीति कृष्ण:’ स्वयं ही खींच लेते हैं, अन्यावतारों से श्रीकृष्ण में यही विशेषता है, एवं अन्य चरित्रों से श्रीकृष्णलीला में माधुर्य रस ही प्रधान है । यदि श्रीकृष्णचरित्र में माधुर्य रस न होता तो संभवत: ‘लीलावतार श्रीकृष्ण’ यह प्रसिद्धि भी न होती । माधुर्यसमयी लीला के रसास्वादन करने वालों की अवस्था अनिर्वचनीय है ।

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