Sunday, 20 March 2016

ॐ” (ओ३म्) सबसे बड़ा बीज मन्त्र है

, अन्य सब मन्त्रों की उत्पत्ति इसी मन्त्र से हुई है, सृष्टि की उत्पत्ति भी इसी मंत्र से हुई है। (वैसे ही आत्मानुसंधान सबसे बड़ा तंत्र है)|
“ॐ” (ओ३म् ) और तारक मन्त्र “राम” दोनों एक ही हैं| दोनों का फल भी एक ही है।
वैसे तो ओंकार की चेतना में निरंतर रहें पर विधिवत् साधना में कुछ बातों का ध्यान रखना अति आवश्यक है —
(1) ओंकार का ध्यान करते समय कमर सीधी रहे यानि मेरु दंड उन्नत रहे।
(2) दृष्टी भ्रूमध्य में रहे| जो उन्नत साधक है उनकी दृष्टी भ्रूमध्य और सहस्त्रार पर एक साथ रहे।
(3) आसन ऊनी हो जिस पर एक रेशम का वस्त्र विछा हो।
(4) मुँह पूर्व या उत्तर दिशा में हो।
(5) जो दायें हाथ से लिखते हैं उनको दायें कान में व जो बाएँ हाथ से लिखते हैं उनको बाँयें कान में ओंकार की ध्वनी सुनेगी।
कुछ समय पश्चात ओंकार की ध्वनी खोपड़ी के पीछे के भाग, शिखास्थान से नीचे, मेरुशीर्ष (medulla) जहां मस्तिष्क से मेरुदंड की नाड़ियाँ मिलती हैं, वहाँ सुननी आरम्भ हो जायेगी और उसका विस्तार सारे ब्रह्माण्ड में होने लगेगा।
एक विराट ज्योति का प्रादुर्भाव भी यहीं से होगा जो भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होगी। यह मेरुशीर्ष यानि मस्तक ग्रंथि ही वास्तविक आज्ञाचक्र है।भ्रूमध्य तो दर्पण की तरह है जहाँ गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं।
(6) आरम्भ में लकड़ी के “T” के आकार के लकड़ी के एक हत्थे को सामने रखकर उस पर अपनी कोहनियाँ टिका दें, अंगूठों से कान बंद कर लें और ओंकार की ध्वनी को सुनें।साथ साथ मानसिक रूप से ओ३म् ओ३म् ओ३म् का जाप करते रहें।
“ॐ” यह लिखने में प्रतीकात्मक है, और “ओ३म्” यह ध्वन्यात्मक है। इस की लिखावट पर कोई विवाद ना करें। महत्व उस का है जो सुनाई देता है, न कि कैसे लिखा गया है।
(7) कुछ धर्मगुरुओं के अनुसार ॐ के जाप का अधिकार मात्र सन्यासियों को है, गृहस्थों को नहीं| गृहस्थ ॐ के साथ भगवान के अन्य किसी नाम का सम्पुट लगाएँ।पर मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता क्योंकि यह वेदविरुद्ध है।
सारे उपनिषद् और भगवद्गीता “ओंकार’ की महिमा से भरे पड़े हैं। जो उपनिषदों में यानि वेदों में है वही प्रमाण है, वही मान्य है। जो वेदविरुद्ध है वह अमान्य है|
(8) भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन, और कानों से ओंकार की ध्वनी यानि नादब्रह्म को सुनते रहें व मन में ओंकार का जप करते रहें| किसी भी तरह के वाद-विवाद में ना पड़ें| आपका लक्ष्य परमात्मा है, ना कि कोई सिद्धांत या बौद्धिकता|
(9) उपरोक्त साधना की सफलता एक ही तथ्य पर निर्भर है की आपके ह्रदय में कितनी भक्ति है। बिना भक्ति के कोई लाभ नहीं होगा और आप कुछ कर भी नहीं पाएँगे।
जितनी गहरी भक्ति होगी उतनी ही अच्छी साधना होगी, उतना ही गहरा समर्पण होगा। कर्ताभाव ना आने दें।सब कुछ प्रभु के चरणों में समर्पित कर दें| कर्ता भी वे ही है और भोक्ता भी वे हैं। आप तो उनके एक उपकरण मात्र हैं|
अपना सब कुछ, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हें समर्पित कर दें। इसकी इतनी महिमा है की उसे बताने की सामर्थ्य मेरी क्षमता से परे है।
(10) आगे की बात फिर कभी,अभी इतना ही पर्याप्त है। आगे की बातें बहुत ही उन्नत साधकों के लिए है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय...
||ॐ तत्सत्||

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