Sunday 20 March 2016

भारतीय नववर्ष के महत्व को समझे और मनाये:-


आजाद भारत के नेताओ की गुलाम मानसिकता :-

आजादी के बाद हमने परतंत्रता के बहुत से चिह्न हटाए, सड़कों के नामों का भारतीयकरण किया, पर संवत् और राष्ट्रीय कैलेंडर के विषय में हम सुविधावादी हो गए, हमें विस्मृति रोग ने जकड़ लिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् नवम्बर 1952 में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद के द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गयी। समिति ने 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी।
किन्तु, तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कलेण्डर को ही सरकारी कामकाज हेतु उपयुक्त मानकर 22 मार्च 1957 को इसे राष्ट्रीय कलेण्डर के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
इसके लिए यह तर्क दिया जा सकता है कि अब जब संसार के अधिकतर देशों ने समान कालगणना के लिए ईस्वी सन् स्वीकार कर लिया है तो दुनिया के साथ चलने के लिए हमें भी इसका प्रयोग करना चाहिए।
इसका अर्थ यह है कि हमने सुविधा को आधार बनाकर राष्ट्रीय गौरव से समझौता कर लिया है और यह भी भुला दिया कि काम चलाने और जश्न मनाने में बहुत अंतर है। लेकिन बंगलादेश व् नेपाल का सरकारी कलेंडर विक्रम संवत् ( abbreviated “V.S.”) ही है ।

पाश्चात्य नव वर्ष मनाने का तरीका :-
पाश्चात्य नव वर्ष :-

एक जनवरी के नजदीक आते ही जगह-जगह हैप्पी न्यू ईयर के बैनर व होर्डिंग लगने लगते हैं। मैकालेप्रणीत शिक्षा पद्धति के ढ़ांचे में पले- बढ़े ये काले अंग्रेज सदैव पाश्चात्य नव वर्ष का स्वागत करने की तैयारी करते रहने में अपनी शान समझते हैं।
होटल, रेस्तरॉ, व पव इत्यादि अपने-अपने ढंग से इसके आगमन की तैयारियां करने लगते हैं। बड़े-बड़े होटलों में हजारों रुपये प्रति व्यक्ति खर्च करके देश का एक कुलीन वर्ग सीटें रिजर्व कराता है। दारू की दुकानों की भी कटने लगती है। कहीं कहीं तो जाम से जाम इतने टकराते हैं कि घटनाऐं दुर्घटनाओं में बदल जाती हैं और मनुष्य- मनुष्यों से तथा गाड़ियां गाडियों से भिडने लगते हैं। रात-रात भर जाग कर नया साल मनाने से ऐसा प्रतीत होता है मानो सारी खुशियां एक साथ आज ही मिल जायेंगी।
तथाकथित सभ्य समाज जाम से जाम टकरा कर मदहोशी की हालत में विदेशी नववर्ष की शुभकामनाएं देता है। इनके देखा-देखी आम आदमी भी पीछे नहीं रहता। पाश्चात्य नववर्ष पर करोड़ों ग्रीटिंग कार्ड भेजे जाते हैं। टीवी के सामने बैठ कर मध्य रात्रि के अंधेरे में ही नया दिन मनाता है और कुछ मनचले सड़कों पर पटाखे छोड़कर, नशे में धुत होकर घर के दरवाजे खटखटाते है।हम भारतीय भी पश्चिमी अंधानुकरण में इतने सराबोर हो जाते हैं कि उचित अनुचित का बोध त्याग अपनी सभी सांस्कृतिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे बैठते हैं। पता ही नहीं लगता कि कौन अपना है और कौन पराया।
पाश्चात्य नव वर्ष का इतिहास :-
जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया। अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अग्रेंजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया। 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से प्रारम्भ होता था किन्तु 18वीं सदी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी।
ईस्वी कलेण्डर के महीनों के नामों में प्रथम छः माह यानि जनवरी से जून रोमन देवताओं (जोनस, मार्स व मया इत्यादि) के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासों के आधार पर रखे गये।
जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गये अन्यथा कोई भी दो मास 31 दिनों या लगातार बराबर दिनों की संख्या वाले नहीं हैं। ईसा से 753 वर्ष पहले रोम नगर की स्थापना के समय रोमन संवत् प्रारम्भ हुआ जिसके मात्र दस माह व 304 दिन होते थे। इसके 53 साल बाद वहां के सम्राट नूमा पाम्पीसियस ने जनवरी और फरवरी दो माह और जोड़कर इसे 355 दिनों का बना दिया।
ईसा के जन्म से 46 वर्ष पहले जूलियस सीजन ने इसे 365.25 दिन का बना दिया।छठी शताब्दी में डायोनिसियस ने इस सन् में फिर संशोधन किया; किंतु फिर भी प्रतिवर्ष 27 पल, 55 विपल का अन्तर पड़ता ही रहा। सन् 1739 में यह अन्तर बढ़ते-बढ़ते 11 दिन का हो गया; तब पोप ग्रेगरी ने आज्ञा निकाली कि ‘इस वर्ष 2 सितंबर के पश्चात 3 सितंबर को 14 सितंबर कहा जाय और जो ईस्वी सन् 4 की संख्या से विभाजित हो सके, उसका फ़रवरी मास 29 दिन का हो।
वर्ष का प्रारम्भ 25 मार्च के स्थान पर 1 जनवरी से माना जाय।’ इस आज्ञा को इटली, डेनमार्क, हॉलैंड ने उसी वर्ष स्वीकार कर लिया। जर्मनी और स्विटज़रलैंड ने सन् 1759 में, इंग्लैंड ने सन् 1809 में, प्रशिया ने सन् 1835 में, आयरलैंड ने सन् 1839 में और रूस ने सन् 1859 में इसे स्वीकार किया।
इतना संशोधन होने पर भी इस ईस्वी सन् में सूर्य की गति के अनुसार प्रतिवर्ष एक पल का अन्तर पड़ता है। सामान्य दृष्टि से यह बहुत थोड़ा अन्तर है, पर गणित के लिये यह एक बड़ी भूल है। 3600 वर्षों के बाद यही अन्तर एक दिन का हो जायगा और 36,000 वर्षों के बाद दस दिन का और इस प्रकार यह अन्तर चालू रहा तो किसी दिन जून का महीना वर्तमान अक्टूबर के शीतल समय में पड़ने लगेगा।
आखिर क्या आधार है इस काल गणना का ? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए।
भारतीय कलेंडर का वैज्ञानिक महत्व :-

ग्रेगेरियन कलेण्डर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 3580 वर्ष, रोम की 2757 वर्ष यहूदी 5768 वर्ष, मिस्त्र की 28671 वर्ष, पारसी 198875 वर्ष तथा चीन की 96002305 वर्ष पुरानी है।
इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 112 वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गयी है।

जिस प्रकार ईस्वी सम्वत् का सम्बन्ध ईसा जगत से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मुहम्मद साहब से है। किन्तु विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है।
इतना ही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नव संवत् यानि संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के 27वें व 30वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमशः 45 व 15 में विस्तार से दिया गया है। विश्व में सौर मण्डल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं।

इसी वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारम्भ करने की बात हो, सभी में हम एक कुशल पंडित के पास जाकर शुभ लग्न व मुहूर्त पूछते हैं। और तो और, देश के बडे से बडे़ राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इंतजार करते हैं जो कि विशुद्ध रूप से विक्रमी संवत् के पंचांग पर आधारित होता है।
भारतीय मान्यतानुसार कोई भी काम यदि शुभ मुहूर्त में प्रारम्भ किया जाये तो उसकी सफलता में चार चांद लग जाते हैं। वैसे भी भारतीय संस्कृति श्रेष्ठता की उपासक है। जो प्रसंग समाज में हर्ष व उल्लास जगाते हुए एक सही दिशा प्रदान करते हैं उन सभी को हम उत्सव के रूप में मनाते हैं। राष्ट्र के स्वाभिमान व देश प्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुडे़ हुए हैं। यह वह दिन है जिस दिन से भारतीय नव वर्ष प्रारम्भ होता है। आईये, इस दिन की महानता के प्रसंगों को देखते हैं –

भारतीय नववर्ष का ऐतिहासिक महत्व :
यह दिन सृष्टि रचना का पहला दिन है। इस दिन से एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 112 वर्ष पूर्व इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की।
विक्रमी संवत का पहला दिन: उसी राजा के नाम पर संवत् प्रारंभ होता था जिसके राज्य में न कोई चोर हो, न अपराधी हो, और न ही कोई भिखारी हो। साथ ही राजा चक्रवर्ती सम्राट भी हो। सम्राट विक्रमादित्य ने 2070 वर्ष पहले इसी दिन राज्य स्थापित किया था।
प्रभु श्री राम का राज्याभिषेक दिवस : प्रभु राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या में राज्याभिषेक के लिये चुना।
नवरात्र स्थापना : शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात्, नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन।
गुरू अंगददेव प्रगटोत्सव : सिख परंपरा के द्वितीय गुरू का जन्म दिवस।
समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने हेतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज स्थापना दिवस के रूप में चुना।
संत झूलेलाल जन्म दिवस : सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए।
शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस : विक्रमादित्य की भांति शालिनवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन : 5115 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ।
भारतीय नववर्ष का प्राकृतिक महत्व :-
बसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है।
फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।
नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है।
मोरारजी देसाई को जब किसी ने पहली जनवरी को नववर्ष की बधाई दी तो उन्होंने उत्तर दिया था- किस बात की बधाई? मेरे देश और देश के सम्मान का तो इस नववर्ष से कोई संबंध नहीं।
यही हम लोगों को भी समझना और समझाना होगा। क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके ?
आइये! विदेशी को फैंक स्वदेशी अपनाएँ और गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष यानि विक्रमी संवत् को ही मनायें तथा इसका अधिक से अधिक प्रचार करें।
भारतीय नव वर्ष का इतिहास :-
दो हजार वर्ष पहले शकों ने सौराष्ट्र और पंजाब को रौंदते हुए अवंतिका पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। विक्रमादित्य ने राष्ट्रीय शक्तियों को एक सूत्र में पिरोया और शक्तिशाली मोर्चा खड़ा करके ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की। थोड़े समय में ही इन्होंने कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात और सिंध भाग के प्रदेशों को भी शकों से मुक्त करवा लिया। वीर विक्रमादित्य ने शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी।
इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रमी संवत प्रचलित हुआ। सम्राट पृथ्वीराज के शासनकाल तक इसी संवत के अनुसार कार्य चला। इसके बाद भारत में मुगलों के शासनकाल के दौरान सरकारी क्षेत्र में हिजरी सन् चलता रहा।
इसे भाग्य की विडंबना कहें अथवा स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं का अनुचित दृष्टिकोण कि सरकार ने शक संवत् को स्वीकार कर लिया, लेकिन शकों को परास्त करने वाले सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रचलित संवत् को कहीं स्थान न दिया।
यह सच है कि भारतवासी अपने महापुरुषों के जन्मदिन एवं त्यौहार विक्रमी संवत् की तिथियों के अनुसार ही मनाते हैं। जन्मकुंडली तथा पंचांग भी इसी आधार पर बनते हैं। उदाहरण के लिए रक्षाबंधन श्रावणी पूर्णिमा को और सर्दी का आगमन शरद पूर्णिमा को मनाते है। गुरुनानक देव का जन्मदिवस कार्तिक पूर्णिमा, श्रीकृष्ण का भादों की अष्टमी, श्रीरामचंद्र का चैत्र की नवमी को ही मनाया जाता है।
इसी प्रकार बुद्ध पूर्णिमा, पौष सप्तमी और दीपावली के लिए कार्तिक अमावस्या सभी जानते हैं, किंतु न जाने क्यों अपनी तथा अपने बच्चों की जन्मतिथि ईस्वी सन् के अनुसार हम मनाते हैं।
31 दिसंबर की आधी रात को नववर्ष के नाम पर नाचने वाले आम जन को देखकर तो कुछ तर्क किया जा सकता है, पर भारत सरकार को क्या कहा जाए जिसका दूरदर्शन भी उसी रंग में रंगा अश्लील कार्यक्रम प्रस्तुत करने की होड़ में लगा रहता है और राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री पूरे राष्ट्र को नववर्ष की बधाई देते हैं।
भारतीय सांस्कृतिक जीवन का विक्रमी संवत् से गहरा नाता है। भरतीय नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है जिसे विक्रम संवत् का नवीन दिवस भी कहा जाता है ।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था – यदि हमें गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अन्तर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाए रखने वाले परकीयों की दिनांकों पर आश्रित रहनेवाला अपना आत्म गौरव खो बैठता है।
यह दिन हमारे मन में यह उदघोष जगाता है कि हम पृथ्वी माता के पुत्र हैं, सूर्य, चन्द्र व नवग्रह हमारे आधार हैं प्राणी मात्र हमारे पारिवारिक सदस्य हैं। तभी हमारी संस्कृति का बोध वाक्य ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम‘‘ का सार्थक्य सिद्ध होता है।
ध्यान रहे कि सामाजिक विश्रृंखलता की विकृतियों ने भारतीय जीवन में दोष एवं रोग भर दिया, फलस्वरूप कमजोर राष्ट्र के भू भाग पर परकीय, परधर्मियों ने आक्रमण कर हमें गुलाम बना दिया। सदियों पराधीनता की पीड़ाएं झेलनी पड़ी। पराधीनता के कारण जिस मानसिकता का विकास हुआ, इससे हमारे राष्ट्रीय भाव का क्षय हो गया और समाज में व्यक्तिवाद, भय एवं निराशा का संचार होने लगा।
जिस समाज में भगवान श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध महावीर, नानक व अनेक ऋषि-मुनियों का आविर्भाव हुआ। जिस धराधाम पर परशुराम, विश्वामित्र, वाल्मिकी, वशिष्ठ, भीष्म एवं चाणक्य जैसे दिव्य पुरुषों का जन्म हुआ। जहां परम प्रतापी राजा-महाराजा व सम्राटों की श्रृंखला का गौरवशाली इतिहास निर्मित हुआ उसी समाज पर शक, हुण, डच, तुर्क, मुगल, फ्रांसीसी व अंग्रेजों जैसी आक्रान्ता जातियों का आक्रमण हो गया।
यह पुण्यभूमि भारत इन परकीय लुटेरों की शक्ति परीक्षण का समरांगण बन गया और भारतीय समाज के तेजस्वी, ओजस्वी और पराक्रमी कहे जाने वाले शासक आपसी फूट एवं निज स्वार्थवश पराधीन सेना के सेनापति की भांति सब कुछ सहते तथा देखते रहे। जो जीत गये उन्होनें हम पर शासन किया और अपनी संस्कृति अपना धर्म एवं अपनी परम्परा का विष पिलाकर हमें कमजोर एवं रुग्ण किया।
किन्तु इस राष्ट्र की जिजीविषा ने, शास्त्रों में निहित अमृतरस ने इस राष्ट्र को मरने नहीं दिया। भारतीय नवसंम्वत के दिन लोग पूजापाठ करते हैं और तीर्थ स्थानों पर जाते हैं। लोग इस दिन तामसी पदार्थों से दूर रहते हैं, पर विदेशी नववर्ष के आगमन से घंटों पूर्व ही मांस मदिरा का प्रयोग, अश्लील-अश्लील कार्यक्रमों का रसपान तथा बहुत कुछ ऐसा प्रारंभ हो जाता है जिससे अपने देश की संस्कृति का रिश्ता नहीं है।
विक्रमी संवत के स्मरण मात्र से ही विक्रमादित्य और उनके विजय अभिमान की याद ताजा होती है, भारतीयों का मस्तक गर्व से ऊंचा होता है, जबकि ईस्वी वर्ष के साथ ही गुलामी द्वारा दिए गए अनेक जख्म हरे होने लगते हैं।

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