Sunday 6 March 2016

चक्रव्यूह में वीर अभिमन्यु


चक्रव्यूह में वीर अभिमन्यु को महारथियों की सहायता से जयद्रथ ने मिलकर मार डाला, तब पाण्डवों के शिविर में गहरा शोक छा गया । सुभद्रा और उत्तरा का विलाप सुनना सबके लिये असह्य हो गया । मित्र और अर्जुन के अनुरोध से भगवान श्रीकृष्ण बहन सुभद्रा को समझाने आये । अनेक प्रकार के उपदेश देते हुए उन्होंने कहा -
हे बहन ! तेरा पुत्र धीर, वीर, महारथी अपने पिता के समान बलवान था । उसने तो वीर क्षत्रियों को चिरवांछित उत्तम गति प्राप्त की है । बहुत से शत्रुओं को पराजित कर उन्हें मृत्यु के मुंह में भेजकर सब कामनाओं के पूर्ण करने वाले पुण्यवानों के अक्षय पद को प्राप्त किया है । जिस परम गति को संत लोग तप, ब्रह्मचर्य, वेदाध्ययन और ज्ञान के द्वारा प्राप्त करना चाहते हैं, तेरे पुत्र को वहीं गति मिली है । हे बहन ! तू वीरजननी, वीरपत्नी, वीरपुत्री और वीरभागिनी है, पुत्र के लिये शोक न कर, तेरा पुत्र रण में मरकर दुर्लभ परम गति को प्राप्त हुआ है । मैं तो चाहता हूं कि हमारे कुल में जितने पुरुष हैं, सभी यशस्वी अभिमन्यु की सी शुभ गति को प्राप्त हों । तू निश्चय रख, अर्जुन कल जयद्रथ को जरूर मार डालेगा ।’ भगवान यों समझाकर चले गये ।
सुभद्रा बोली - ‘काल की गति बड़ी विचित्र है । जिसके ऊपर श्रीकृष्ण सहायक थे, वहीं अभिमन्यु आज अनाथ की भांति मारा गया । परतुं हे पुत्र ! तुझे वही गति मिले, जो यज्ञ करनेवाले, दानी, ज्ञानी ब्राह्मण, ब्रह्मचर्य का आचरण करनेवाले, पुण्य तीर्थों में स्नान करनेवाले, उपकार मानने वाले, उदार, गुरुसेवक, हजारों की दक्षिणा देनेवाले, संग्राम से न मुड़कर वीर शत्रुओं को मारकर मरनेवाले, सहस्त्रों गौओं का दान करनेवाले, सामानसहित घर दान करने वाले, ब्राह्मणों और शरणागतों को धन की निधि दे देनेवाले, सर्वत्यागी, संन्यासी, व्रतधारी मुनि, पतिव्रता स्त्रियां, सदाचारी राजा, चारों आश्रमों के नियमों को पालने वाले, दीनों पर दया करनेवाले, समान भाग बांटनेवाले, चुगली न करनेवाले, धर्मशील, अतिथि को निराश न लौटाने वाले, आपत्ति और संकट के समय धैर्य रखने वाले, माता पिता के सेवक, अपनी ही स्त्री से भी ऋतुकाल में ही समागम करनेवाले, मत्सरता न करनेवाले, क्षमाशील, दूसरों को चुभने वाली बात न कहनेवाले, मद्य, मांस, मद, झूठ, दंभ और अहंकार से दूर रहनेवाले, दूसरों का किसी भांति भी अनिष्ट न करनेवाले, पाप - कार्य करने में लज्जित होने वाले, शास्त्रज्ञ और परमात्मज्ञान में ही तृप्त रहनेवाले जितेंद्रिय साधुओं को मिलती है ।’

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