Saturday 12 March 2016

श्रीमद्भागवत महापुराण

: द्वादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय: जिस समय मनुष्यों की प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-परलौकिक सुख-भोगों की ओर होती हैं तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुण में स्थित होकर काम करने लगती हैं—समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है । जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषों का बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचि के साथ सकाम कर्मों में लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझना चाहिये। जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनता की प्रधानता हो, उसे तमोगुण-प्रधान कलियुग समझना चाहिये । जब कलियुग का राज्य होता है, तब लोगों का भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्त में कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियों में दुष्टता और कुलटापन की वृद्धि हो जाती है। सारे देश में लुटेरों की प्रधानता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंग से वेदों का तात्पर्य निकालने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। ब्राह्मण नामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रिय को तृप्त करने में ही लग जाते हैं। कलियुग के मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासना को तृप्त करने के लिये ही किसी से प्रेम करते हैं। जिन्हें धर्म का रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचें सिंहासन पर विराजमान होकर धर्म का उपदेश करने लगते हैं। पुत्र अपने बूढ़े माँ-बाप की रक्षा, पालन-पोषण नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने निपुण-से-निपुण, सब कामों में योग्य पुत्रों की भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं । मनुष्य गिरते या फिसलते समय विवश होकर भी यदि भगवान के किसी एक नाम का उच्चारण कर ले, तो उसके कर्मबन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती है। परन्तु कलियुग से प्रभावित होकर लोग उन भगवान की आराधना से भी विमुख हो जाते हैं। परीक्षित्! कलियुग के अनेकों दोष हैं। कुल वस्तुएँ दूषित हो जाती हैं, स्थानों में भी दोष की प्रधानता हो जाती है। सब दोषों का मूल स्त्रोत तो अन्तःकरण ही है, परन्तु जब पुरुषोत्तम भगवान हृदय में आ विराजते हैं, तब उनकी सन्निधिमात्र से ही सब-के-सब दोष नष्ट हो जाते हैं । भगवान के रूप, गुण, लीला, धाम और नाम के श्रवण, संकीर्तन, ध्यान, पूजन और आदर से वे मनुष्य के हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं। और एक-दो जन्म के पापों की तो बात ही क्या, हजारों जन्मों के पाप के ढेर-के-ढेर भी क्षणभर में भस्म कर देते हैं। जैसे सोने के साथ संयुक्त होकर अग्नि उसके धातुसम्बन्धी मलिनता आदि दोषों को नष्ट कर देती है, वैसे ही साधकों के हृदय में स्थित होकर भगवान उनके अशुभ संस्कारों को सदा के लिये मिटा देते हैं । विद्या, तपस्या, प्राणायाम, समस्त प्राणियों के प्रति मित्रभाव, तीर्थस्नान, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधन से मनुष्य के अन्तःकरण की वैसी वास्तविक शुद्धि नहीं होती, जैसी शुद्धि भगवान के हृदय में विराजमान हो जाने पर होती है। परीक्षित्! यों तो कलियुग दोषों का खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह गुण यही है कि कलियुग में केवल भगवान का संकीर्तन करने मात्र से ही सारी असक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है । सत्ययुग में भगवान का ध्यान करने से, त्रेता में बड़े-बड़े यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करने से और द्वापर में विधिपूर्वक उनकी पूजा-सेवा से जो फल मिलता है, वह कलियुग में केवल भगवान का कीर्तन करने से ही प्राप्त हो जाता है ।

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