Thursday 3 March 2016

रामकृष्ण परमहंस और युवा विवेकानंद की एक मनोरंजक बातचीत


गुरु (मुस्कुराकर) - तुम्हारी क्या राय है, नरेंद्र? जो लोग संसार में रहते हैं वे बहुधा उन लोगों के बारे में बड़ी कठोर बातें कहते हैं जो सर्वथा भगवान में रहते हैं। हाथी जब राजमार्ग पर जाता है तब उसके पीछे सर्वदा कुत्तों या दूसरे जानवरों की टोली भौंकती, चीखती-चिल्लाती चलती है। लेकिन वह उनकी कोई परवाह नहीं करता और अपनी राह बढ़ा चला जाता है। अच्छा बेटा, मान लो कि लोग तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारी बुराई करें तो तुम क्या करोगे?
नरेंद्र (विवेकानंद) - मैं उन्हें पीछे भौंकनेवाले गली के कुत्ते समझूंगा।
गुरु (हंसकर) - नहीं बेटा! ऐसा कभी न सोचना! स्मरण रखो सभी प्राणियों और वस्तुओं में भगवान बसते हैं। इसलिए सभी हमारे आदर के पात्र हैं। हम लोगों से अपने व्यवहार में इतना ही कर सकते हैं कि भलों से मिलें और बुरों की संगत से बचते रहें। यह सत्य है कि भगवान बाघ में भी हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि हम बाघ के गले में बांहें डालकर उसे छाती से लगा लें। (शिष्यगण हंस पड़े)
नरेंद्र - तो क्या दुष्ट लोग अपमान करें तो भी चुप रहना होगा?
गुरु - एक खेत था जिसमें गड़रिए अपने भेड़ चराया करते थे। उसी खेत में एक भयानक विषधर सांप भी रहता था। एक दिन एक महात्मा उधर से निकले। लड़के सब उसकी ओर दौड़े और बोले - 'बाबा, उधर से न जाना। उधर विषधर सांप है।' महात्मा ने उत्तर दिया - 'बच्चों मैं तुम्हारे सांप से नहीं डरता। मैं ऐसे मंत्र जानता हूं जो मेरी रक्षा करेंगे।' यह कहकर वह आगे बढ़ गए। सांप उन्हें देखकर फन उठाकर फुफकारता हुआ बढ़ने लगा। महात्मा ने एक मंत्र पढ़ा और सांप केंचुए-सा निरस्त्र होकर उनके पैरों में लोटने लगा। महात्मा ने कहा, 'तुम क्यों इस प्रकार दूसरों का अहित करते हो? मैं तुम्हें एक नाम जपने को देता हूं उससे तुम भगवान से प्रेम करना सीख जाओगे और अंत में एक दिन भगवान को देख सकोगे तब पाप करने की प्रवृत्ति तुममें नहीं रहेगी।'उन्होंने सांप के कान में वह नाम कह दिया। सांप ने विनत होकर पूछा, 'आत्मरक्षा के लिए मुझे क्या करना होगा?' महात्मा बोले, 'वही नाम जपो और किसी प्राणी का कोई अहित न करो। मैं फिर आऊंगा तो देखूंगा कि तुम क्या करते रहे हो।' यह कहकर महात्मा चले गए।.....दिन बीतते गए। लड़कों ने लक्ष्य किया कि सांप काटता नहीं। वे उसे पत्थर मारने लगे। वह शांत रहा - केंचुए सा निरीह। एक लड़के ने उसे पूंछ से उठा लिया और सिर के ऊपर से घुमाकर पत्थरों पर दे मारा। सांप के मुंह से रक्त बहने लगा। उसे मरा जानकर छोड़ दिया गया। रात को उसे होश आया। किसी तरह वह अपने टूटे हुए शरीर को घसीटता हुआ बिल तक ले गया। कुछ दिनों में वह पिंजर मात्र रह गया और भोजन ढूंढ़ने के लिए निकलने में भी उसे बड़ा कष्ट होने लगा। लड़कों के डर से वह केवल रात को बाहर निकलता था। ब्राह्मण महात्मा से दीक्षा लेने के समय से उसने किसी का अहित नहीं किया था। जैसे-तैसे पत्ते-फुनगी खाकर ही वह गुजारा करता था। महात्मा लौटे तो उन्होंने सांप को सब जगह ढूंढ़ा। लड़कों ने उनसे कहा कि सां प मर गया। महात्मा को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि वह जानते थे कि जो नाम वह सांप को दे गए थे उसमें ऐसी शक्ति थी कि जब तक जीवन का रहस्य न मिल जाय अर्थात् जब तक भगवान के दर्शन न हो जाएं तब तक मृत्यु होना असंभव था। उन्होंने खोज जारी रखी और सांप को नाम लेकर पुकारते रहे। अंत में सांप बिल में से निकला। आकर उसने गुरु को प्रणाम किया। दोनों में बातचीत होने लगी।
महात्मा - 'कहो कैसे रहे?'
सांप - 'सब आपकी दया है। ईश्वर की कृपा से अच्छा हूं।'
महात्मा - 'ऐसा है तो यह हालत कैसे हो गई - क्या हुआ तुम्हें? केवल ठठरी रह गई है।'
सांप - 'महाराज! आपकी आज्ञा मानकर मैंने यत्न किया कि किसी को क्षति न पहुंचाऊं। घास-पात खाकर जीता रहा हूं। इसलिए संभव है कुछ दुबला हो गया हूं।'
महात्मा - 'नहीं, मेरे विचार में तो यह परिवर्तन केवल भोजन बदलने से नहीं है। कुछ और बात भी होगी। बताओ क्या है?'
सांप - 'अरे हां शायद .....हां वही बात रही होगी। एक दिन गड़रियों ने मेरे साथ बड़ा बुरा व्यवहार किया। उन्होंने मुझे पूंछ पकड़कर उठाया और बार-बार पत्थरों पर पटका। बेचारे लड़के - उन्हें क्या पता कि मुझमें क्या परिवर्तन आ गया है। वे कैसे जान सकते थे कि मैंने काटना छोड़ दिया है?'
महात्मा - 'लेकिन यह तो पागलपन है। निरा पागलपन! तुम ऐसे मूर्ख हो कि अपने शत्रुओं को ऐसा दुर्व्यवहार करने से भी नहीं रोक सकते? मैंने तुम्हें इतना ही कहा था कि भगवान के रचे प्राणियों को काटना मत। लेकिन तुम्हें जो मारने आए थे उन्हें डराने के लिए तुमने फुफकारा भी क्यों नहीं?'
यह कहकर रामकृष्ण विनोद-भरी आंखों से अपने शिष्यों की ओर देखते हुए बोले -
'इसलिए अपना फन उठाओ.......पर काटो मत! जो समाज में रहता है, विशेषकर यदि नागरिक है या परिवार वाला है, उसे आत्मरक्षा के लिए बुराई के विरोध का दिखावा तो करना ही चाहिए। पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बुराई का बदला बुराई से न दें।'

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