Wednesday 9 March 2016

भुवनकोश का संक्षिप्त वर्णन


महाराज युधिष्ठिर ने पूछा - भगवन् ! यह जगत किसमें प्रतिष्ठित है ? कहां से उत्पन्न होता है ? इसका किसमें लय होता है ? इस विश्व का हेतु क्या है ? पृथ्वी पर कितने द्वीप, समुद्र तथा कुलाचल हैं ? पृथ्वी का कितना प्रमाण है ? कितने भुवन हैं ? इन सबका आप वर्णन करें ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - महाराज ! आपने जो पूछा है, वह सब पुराण का विषय है, किंतु संसार में घूमते हुए मैंने जैसा सुना और जो अनुभव किया है, उनका संक्षेप में मैं वर्णन करता हूं । सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मंवंतर और वंशानुचरित - इन पांच लक्षणों से समन्वित पुराण कहा जाता है ।
अनघ ! आपका प्रश्न इन पांच लक्षमों में से सर्ग (सृष्टि) के प्रति ही विशेष रूप से संबद्ध है, इसलिए इसका मैं संक्षेप में वर्णन करता हूं । अव्यक्त प्रकृति से महत्तत्त्व - बुद्धि उत्पन्न हुई । महत्तत्त्व त्रिगुणात्मक अहंकार उत्पन्न हुआ, अहंकार से पञ्चतन्मात्रा, पञ्चतन्मात्राओं से पांच महाभूत और इन भूतों से चराचर जगत उत्पन्न हुआ है । स्वावर जंगमात्मक अर्थात् चराचर जगत के नष्ट होने पर जलमूर्तिमय विष्णु रह जाते हैं अर्थात् सर्वत्र जल परिव्याप्त रहता है, उससे भूतात्मक अण्ड उत्पन्न हुआ । कुछ समय के बाद उस अण्ड के दो भाग हो गये । उसमें एक खण्ड पृथ्वी और दूसरा भाग आकाश हुआ । उसमें जरायु से मेरु आदि पर्वत हुए । नाडियों से नदी आदि हुई । मेरु पर्वत सोलह हजार योजन भूमि के अंदर प्रविष्ट है और चौरासी हजार योजन भूमि के ऊपर है, बत्तीस हजार योजन मेरु के शिखर शिखर का विस्तार है । कमलस्वरूप भूमि की कर्णिका मेरु है । उस अण्ड से आदि देवता आदित्य उत्पन्न हुए, जो प्रात:काल में ब्रह्मा, मध्याह्न में विष्णु और सायंकाल में रुद्ररूप से अवस्थित रहते हैं । एक आदित्य ही तीन रूपों को धारण करते हैं । ब्रह्मा से मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ और नारद - ये नौ मानस - पुत्र उत्पन्न हुए । पुराणों में इन्हें ब्रह्मपुत्र कहा गया है । ब्रह्मा के दक्षिण अंगूठे से दक्ष ब्रह्मपुत्र कहा गया है । ब्रह्मा के दक्षिण अंगूठे से दक्ष उत्पन्न हुए और बायें अंगूठे से प्रसूति उत्पन्न हुईं । दोनों दंपत्ति अंगूठे से ही उत्पन्न हुए । उन दोनों से उत्पन्न हर्यश्व आदि पुत्रों को देवर्षि नारद ने सृष्टि के लिये उद्यत होने पर भी सृष्टि से विरत कर दिया । प्रजापति दक्ष ने अपने पुत्र हर्यश्वों को सृष्टि से विमुख देखकर सत्या आदि नामवाली साठ कन्याओं को उत्पन्न किया और उनमें से उन्होंने दस धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताईस चंद्रमा को, दो बाहुपुत्र को, दो कृशाश्व को, चार अरिष्टनेमि को, एक भृगु को और एक कन्या शंकर को प्रदान किया । फिर इनसे चराचर जगत उत्पन्न हुआ । मेरु पर्वत के तीन श्रृंगों पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव की क्रमश: वैराज, वैकुण्ठ तथा कैलाश नामक तीन पुरियां हैं । पूर्व आदि दिशाओं में इंद्र आदि दिक्पालों की नगरी है । हिमवान्, देमकूट, निषध, मेरु, नील, श्वेत और श्रृंगवान - ये सात जंबूद्वीप में कुल - पर्वत हैं ।
जंबूद्वीप लक्ष योजन प्रमाणवाला है । इसमें नौ वर्ष हैं । जंबू, शाक, कुश, क्रौंच, शाल्मलि, गोमोद तथा पुष्कर - ये सात द्वीप हैं । ये सातों द्वीप सात समुद्रों से परिवेष्टित हैं । क्षार, दुग्ध, इक्षुरस, सुरा, दधि, घृत और स्वादिष्ट जल के सात समुद्र हैं । सातों समुद्र और सातों द्वीप एक की अपेक्षा एक द्वीगुण हैं । भूर्लोकस भुवर्लोक, स्वर्लोक,महर्लोक, जललोक, तपोलोक और सत्यलोक - ये देवताओं के निवास स्थान हैं । सात पाताल लोक हैं - अतल, महातल, भूमितल, सुतल, वितल, रसातल तथा तलातल । इनमें हिरण्यात्र आदि दानव और वासुकि आदि नाग निवास करते हैं । हे युधिष्ठिर ! सिद्ध और ऋषिगण भी इनमें निवास करते हैं । स्वायंभुब, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष - ये छ: मनु व्यतीत हो गये हैं, इस समय वैवस्वत मनु वर्तमान हैं । बारह आदित्य, आछ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार - ये तैंतीस देवता वैवस्वत मंवंतर में कहे गये हैं । विप्रचित्ति से दैत्यगण और हिरण्यात्र से दानवगण उत्पन्न हुए हैं ।
द्वीप और समुद्रों से समन्वित भूमि का प्रमाम पचास कोटि योजन है । नौका की तरह यह भूमि जल पर तैर रही है । इसके चारों और लोकालोक पर्वत हैं । नैमित्तिक, प्राकृत, आत्यान्तिक और नित्य - ये चार प्रकार के प्रलय हैं । जिससे इस संसार की उत्पत्ति होती है । प्रलय के समय उसी में इसका लय हो जाता है । जिस प्रकार ऋतु के अनुकूल वृक्षों के पुष्प, फल और फूल उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार संसार भी अपने समय से उत्पन्न होता और अपने समय से लीन होता है । संपूर्ण विश्व के लीन होने के बाद महेश्वर वेद शब्दों के द्वारा पुन: इसका निर्माण करते हैं । हिंस्त्र, अहिंस्त्र, मृदु, क्रूर, धर्म, अधर्म, सत्य, असत्य आदि कर्मों से जीव अनेक योनियों को इस संसार में प्राप्त करते हैं । भूमि जल से, जल तेज से, तेज वायु से, वायु आकाश से वेष्टित है । आकाश अहंकार से, अहंकार महत्तत्त्व से, महत्तत्त्व प्रकृति से और प्रकृति उस अविनाशी पुरुष से परिव्याप्त है । इस प्रकार के हजारों अण्ड उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं । सुर, नर, किन्नर, नाग, यक्ष तथा सिद्ध आदि से समन्वित चराचर जगत नारायण की कुक्षि में अवस्थित है । निर्मल बुद्धि तथा शुद्ध अंत:करण वाले मुनिगण इसके बाह्य और आभ्यन्तरस्वरूप को देखते हैं अथवा परमात्मा की माया ही उन्हें जानती है ।

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