Sunday, 20 March 2016

दीक्षा

दिशा प्रणाम___उज्जाई श्वास की क्रिया___नाडी परीक्षा___दीक्षा
दिशा प्रणाम :-
हमारे मन में लगातार कई तरह के विचार आते है जिन पर हमारा बस नहीं चलता। कई बार ये हमें चलाने लगते है। कई बार हम ध्यान नहीं लगा पाते। ऐसी नकारात्मक भावनाओं से छुटकारा पाने के लिए दिशा प्राणायाम जाता है।
इसके लिए सबसे पहले एक जगह पर खड़े हो जाए।पूर्व दिशा की और मुख कर ले। आँखें बंद कर नमस्कार की मुद्रा में ॐ का उच्चारण करें। नीचे वज्रासन में बैठ कर सिर ज़मीन पर टिका दे और हाथ आगे की और फैला दे। पूरी भावना के साथ ये सोचे की मोह और बंधन की भावना हमें पूर्व दिशा के देवताओं से मिलती है। ये उन्हें समर्पित है।जब मन में खालीपन की भावना आ जाए ; तो उठ कर खड़े हो जाए।
दक्षिण – दक्षिण दिशा की ओर मुड जाए और आँख बंद कर नमस्कार कर ॐ बोले। फिर वज्रासन में प्रणाम कर हाथ आगे फैलाकर मन में सोचे काम की भावना हमें दक्षिण दिशा के देवताओं से मिलती है। ये सिर्फ सर्जन के लिए ही काम आये।अतिरिक्त काम विकार उन्हें समर्पित।फिर मन में खालीपन लगने पर उठे।
पश्चिम – अब उठ कर यही क्रिया पश्चिम दिशाभिमुख हो कर करें। क्रोध और लोभ की भावनाएं हमें पश्चिम दिशा के देवताओं से मिलती है ; ये उन्हें समर्पित।
उत्तर – अब उत्तराभिमुख हो कर यही प्रक्रिया करें। अहंकार और ईर्ष्या की भावना हमें उत्तर दिशा के देवताओं से मिलती है। ये उन्हें समर्पित।
अब उठ कर से पूर्व दिशा की और मुड खड़े हो जाए। एक एक कर अपने पितरों , माता -पिता , देवताओं और गुरु तत्व को याद कर उनके आशीर्वाद प्राप्त हुए ऐसा महसूस करें।
इसे एक ही बार भी पूरी भावना के साथ करने से आप अपनी नकारात्मक भावनाओं में आश्चर्यजनक रूप से कमी पायेंगे।इसे रोज़ करे।
उज्जाई श्वास की क्रिया:-
कई बार योगी साधारण श्वास की जगह उज्जाई श्वास लेतें है . इससे एक प्रकार की ऊर्जा और गर्मी पैदा होती है जो शरीर से विषाक्त तत्व बाहर निकालने में मदद करती है . कहते है हिमालय की बर्फीली ठण्ड में इसी श्वास के कारण योगी निर्वस्त्र भी तप करते है .इसे करते हुए समुद्र के लहरों की तरह आवाज़ आती है ; इसलिए इसे “ओशन ब्रीद” भी कहते है . योगासन करते हुए हर आसन में ठहरते हुए 4-5 उज्जाई श्वास लेने से लाभ में वृद्धि होती है .
इस क्रिया को करने के लिए पद्मासन या सुखासन या वज्रासन में बैठ जाएं। पीठ सीधी रखे .आंखें बंद करते हुए शरीर को तनावमुक्त कर दें और अपना ध्यान अपने गले पर ले जाएं। अब कल्पना करें कि आप श्वास नाक से ना लेकर गले से ले रहे हैं। अब अपने गलकंठ को अंदर खींचते हुए आवाज के साथ लंबा श्वास भरें और फिर गले को भींचते हुए ही श्वास छोड़ें। यह इस क्रिया का एक चक्र हुआ। कम से कम इस क्रिया के 10 चक्रों का अभ्यास करें।
लाभ: यह क्रिया गले संबंधी समस्त रोग, गलकंठ, कंठमाला, गाइटर, टॉन्सिल और खर्राटे में बहुत ही लाभप्रद है। यह हमारे स्नायु तंत्र और मस्तिष्क को सबल बनाती है। अच्छी नींद के लिए यह क्रिया राम-बाण का काम करती है। कार्य क्षमता का भी विकास होता है . श्वास लम्बी होती है जो आयु में वृद्धि करता है . शरीर पूर्णतः एकाकार हो कर लय और सुर में आता है और निरोग होता है .सभी अवयव एक दुसरे से तालमेल बैठाते है ; क्योंकि शरीर का कोई भी अंग स्वतन्त्र नहीं पर एक दुसरे पर निर्भर है .
खेचरी मुद्रा :-
खेचरी मुद्रा एक सरल किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण विधि है। इसमें जिह्वा को मोडकर तालू के उपरी हिस्से से सटाना होता है। निरंतर अभ्यास करते रहने से जिह्वा जब लम्बी हो जाती है ; तब उसे नासिका रंध्रों में प्रवेश कराया जा सकता है। तब कपाल मार्ग एवं बिन्दुं विसर्ग से सम्बन्धित कुछ ग्रन्थियों में उद्दीपन होता है। जिसके परिणाम स्वरूप अमृत का स्त्राव आरम्भ होता है। उसी अमृत का स्त्राव होते वक्त एक विशेष प्रकार का अध्यात्मिक या मस्तीभरा अनुभव होता है। यह तो मुद्रा पूर्ण सिद्ध होने पर होता है पर सामान्य व्यक्ति जीभ को तालु से जोड कर इसका लाभ पा सकते है।
खेचरी मुद्रा को सिद्ध करने एवं अमृत के स्त्राव हेतु आवश्यक उद्दीपन में कुछ वर्ष भी लग सकते है , किन्तु हो जाने पर ये जीवन के लिए एक बड़ी ही उपयोगी क्रिया है।इसे करने से ध्यान के लिए बैठने पर मन पूर्णत: एकग्र और स्थिर होगा, जिसमे किसी प्रकार के विचार नही होंगे । तब पूर्ण शुन्य का अनुभव होगा ।
इसे करते हुए मन्त्र का जप करने पर ऐसा लगेगा जेसे जप कोई और ही कर रहा हो और स्वयं के प्रति पूर्ण सचेत रहते हुए भी बाहरी और भीतरी अनुभव भी होता रहता है। यदि नाड़ी मंडल में पूर्ण सामंजस हो, हृदय जडवत हो गया हो मस्तिष्क में अल्फ़ा तरंगे प्रबल हों तो मन चंचल केसे हो सकता है।
उज्जाई प्राणायाम करते हुए भी खेचरी मुद्रा करने से व अधिक प्रभावी हो जाता है; जिससे थायरॉइड की समस्या से मुक्ति मिलती है।इसे करने से लार अधिक मात्रा में बनती है और स्वास्थ्य सुधरने लगता है।इसे करने से पाचन सम्बन्धी बीमारियाँ , बवासीर , बार बार बेहोशी के दौरे आदि ठीक हो जाते है।ये ध्यान और मन्त्र जाप को और प्रभावी बनाती है।
नाडी परीक्षा :-
नाडी परीक्षा के बारे में शारंगधर संहिता ,भावप्रकाश ,योगरत्नाकर आदि ग्रंथों में वर्णन है .महर्षि सुश्रुत अपनी योगिक शक्ति से समस्त शरीर की सभी नाड़ियाँ देख सकते थे .ऐलोपेथी में तो पल्स सिर्फ दिल की धड़कन का पता लगाती है ; पर ये इससे कहीं अधिक बताती है .आयुर्वेद में पारंगत वैद्य नाडी परीक्षा से रोगों का पता लगाते है .
इससे ये पता चलता है की कौनसा दोष शरीर में विद्यमान है .ये बिना किसी महँगी और तकलीफदायक डायग्नोस्टिक तकनीक के बिलकुल सही निदान करती है . जैसे की शरीर में कहाँ कितने साइज़ का ट्यूमर है , किडनी खराब है या ऐसा ही कोई भी जटिल से जटिल रोग का पता चल जाता है .दक्ष वैद्य हफ्ते भर पहले क्या खाया था ये भी बता देतें है .भविष्य में क्या रोग होने की संभावना है ये भी पता चलता है .
– महिलाओं का बाँया और पुरुषों का दाया हाथ देखा जाता है .
– कलाई के अन्दर अंगूठे के नीचे जहां पल्स महसूस होती है तीन उंगलियाँ रखी जाती है .
– अंगूठे के पास की ऊँगली में वात , मध्य वाली ऊँगली में पित्त और अंगूठे से दूर वाली ऊँगली में कफ महसूस किया जा सकता है .
– वात की पल्स अनियमित और मध्यम तेज लगेगी .
– पित्त की बहुत तेज पल्स महसूस होगी .
– कफ की बहुत कम और धीमी पल्स महसूस होगी .
– तीनो उंगलियाँ एक साथ रखने से हमें ये पता चलेगा की कौनसा दोष अधिक है .
– प्रारम्भिक अवस्था में ही उस दोष को कम कर देने से रोग होता ही नहीं .
– हर एक दोष की भी ८ प्रकार की पल्स होती है ; जिससे रोग का पता चलता है , इसके लिए अभ्यास की ज़रुरत होती है .
– कभी कभी २ या ३ दोष एक साथ हो सकते है .
– नाडी परीक्षा अधिकतर सुबह उठकर आधे एक घंटे बाद करते है जिससरे हमें अपनी प्रकृति के बारे में पता चलता है . ये भूख- प्यास , नींद , धुप में घुमने , रात्री में टहलने से ,मानसिक स्थिति से , भोजन से , दिन के अलग अलग समय और मौसम से बदलती है .
– चिकित्सक को थोड़ा आध्यात्मिक और योगी होने से मदद मिलती है . सही निदान करने वाले नाडी पकड़ते ही तीन सेकण्ड में दोष का पता लगा लेते है .वैसे ३० सेकेण्ड तक देखना चाहिए .
– मृत्यु नाडी से कुशल वैद्य भावी मृत्यु के बारे में भी बता सकते है .
– आप किस प्रकृति के है ? –वात प्रधान , पित्त प्रधान या कफ प्रधान या फिर मिश्र ? खुद कर के देखे या किसी वैद्य से पता कर देखिये
दीक्षा :-
दीक्षा अर्थात मोक्ष मार्ग में व्रती बनाने का संस्कार
“परा” और “अपरा-विद्या” का निरूपण करते हुए मुण्डकोपनिष्द में कहा गया है की अपरा-विद्या वेदत्रयी और उसके अंग आदि है तथा परा विद्या परा तत्व का साक्षात्कार कराने तथा मोक्ष प्राप्ति का हेतु होती है | इसका प्रधान विषय ज्ञान तथा साधन द्वारा जीवत्व दोष से विमुक्त करना एवं स्व-स्वरूप की प्राप्ति है |

अनन्त कोटि जन्मों के पुण्य संचय से अपरा-विद्या द्वारा जनित भोगों से विमुख होकर जीव भगवत प्रेरणा से परा विद्या विषयक परिचय प्राप्त करने को उत्सुक होता है, उस समय उस मुमुक्षु को मोक्ष मार्ग में व्रती बनाने के संस्कार को दीक्षा कहते है |

” दीक्षा अर्थात दिव्य ज्ञान द्वारा पाप से विशुद्धी प्राप्त करना”|
दीक्षा शब्द दी+क्षा दो अक्षरों से बना है | आगम उसकी साधारण सी व्याख्या- ” दिव्य ज्ञान द्वारा पाप से विशुद्धी प्राप्त करना”- इन शब्दों में देते है |

“दीक्षा अर्थात अपूर्व श्रद्धा का आदान तथा पूर्ण विश्वास का प्रदान” | श्रद्धा तथा विश्वास का अपूर्व सम्मिलन ही दीक्षा का मधुर स्वरूप है |

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