Wednesday 9 March 2016

रामकृष्ण परमहंस चरित्र


रामकृष्ण अपने को अपने युवा शिष्यों के बराबर मानते थे । वह उनके बंधु सखा थे, उनके साथ सहज आत्मीयता से बात करते थे, किसी गुरुता के साथ नहीं । मानो इन बढ़ते हुए मानव पौधों के और सूर्य के प्रकाश के बीच में आकर वह इनके विकास में बाधक होना नहीं चाहते थे । दूसरों के व्यक्तित्व के प्रति उनमें इतना सम्मान था, उसे अवरुद्ध करने से वह इतना डरते थे कि उन्हें शिष्यों की श्रद्धा पाने में भी संकोच होता था । वह नहीं चाहते थे कि शिष्यों का उनके प्रति प्रेम स्वयं शिष्यों के लिए बंधन बन जाएं ।
‘मधुमक्खियों को अपने हृदय का मधु चूसने दो पर इस बात का ध्यान रखो कि तुम्हारे हृदय का सौंदर्य किसी मधुमक्खी को बंदी न कर ले !’
शिष्यों पर अपने विचार लादने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था । अध्यात्म विद्या और देव विज्ञान पर व्यर्थ की चर्चा भी कभी नहीं होती थी ।
‘मुझे विवाद पसंद नहीं है । ईश्वर तर्क की शक्ति से परे हैं । मैं देख सकता हूं कि जो कुछ है सब ईश्वर हैं । फिर तर्क करने से क्या लाभ ? उद्यान में जाओ, पवित्र आम खाओ और फिर बाहर चले जाओ । उद्यान में आम के वृक्ष के पत्ते गिनने तो कोई नहीं जाता । फिर पुनर्जन्म अथवा मूर्तिपूजा को लेकर विवाद में समय क्यों नष्ट किया जाएं ?’
तब फिर महत्त्व किस वस्तु का था ? व्यक्तिगत अनुभव का । पहले प्रयोग करो फिर ईश्वर में विश्वास करो । विश्वास धार्मिक अनुभव के पहले नहीं आता, उसकी निष्पत्ति होनी चाहिए । अगर वह पहले आता है तो वह असंगत है ।
रामकृष्ण के लिए दया का अर्थ था मानव मात्र में बसे भगवान से प्रेम, क्योंकि ईश्वर मानव में अवतरित होता है । जो व्यक्ति मानव में ईश्वर को प्रेम नहीं करता वह मानव को प्रेम नहीं करता इसलिए मानव की सच्ची सेवा नहीं कर सकता और इससे जो उत्पत्ति होती है वह भी सही है, जिसने भगवान को प्रत्येक व्यक्ति में नहीं देखा वह भगवान को जान नहीं सकता ।
किंतु जब तक यह दृष्टि नहीं मिलती तब तक क्या पीड़ित और मरती हुई मानव जाति की उपेक्षा की जाएं ? नहीं, कदापि नहीं । जो रामकृष्ण ने स्वयं संपन्न नहीं किया, जो वह अपने कर्म की मर्यादा के और अपनी जीवनावधि की सीमा के (जो कि तब नितट हो आ रही थी) भीतर संपन्न कर नहीं सकते थे वह कार्य उन्होंने अपने पट्ट शिष्य और अपनी सीख के उत्तराधिकारी विवेकानंद के ऊपर छोड़ दिया - उस व्यक्ति के ऊपर, जिसे मानव जाति के उद्धार के लिए मानव जाति से अलग खींच लेना ही स्वयं रामकृष्ण का विशेष कर्तव्य था । विवेकानंद को ही उन्होंने मानो स्वयं अपनी इच्छा के विरोध में दीन दुखियों का कष्ट दूर करने का काम सौंपा ।
रामकृष्ण अपने विचार को प्रत्येक शिष्य की दृष्टि की पहुंच के अनुकूल ढाल ले सकते थे । मानवी चेतना के सूक्ष्म संतुलन को तोड़ न देकर वह उसके अंगों के अनुपात को बड़ी बारीकि से बदलते रहकर और पुष्ट कर देते थे । प्रत्येक के स्वभाव के अनुसार वह अपनी पद्धति में इतने परिवर्तन ले आते थे कि कभी कभी ऐसा जान पड़ने लगता था कि उनके विचारों में परस्पर विरोध है ।

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