Sunday 6 March 2016

महर्षि सौभरिकी जीवन गाथा


वासना का राज्य अखण्ड है । वासना का विराम नहीं । फल मिलने पर यदि एक वासना को हम समाप्त करने में समर्थ भी होते हैं तो न जाने कहां से दूसरी और उससे भी प्रबलतर वासनाएं पनप जाती हैं । प्रबल कारणों से कतिपय वासनाएं कुछ काल के लिये लुप्त हो जाती हैं, परंतु किसी उत्तेजक कारण के आते ही वे जाग पड़ती हैं । भला कोई स्वप्न में भी सोच सकता था कि महर्षि सौभरि काण्व का दृढ़ वैराग्य मीनराज के सुखद गार्हस्थ्य जीवन को देखकर वायु के एक हल के से झकोरे से जड़ से उखड़कर भूतलशायी बन जाएंगा ?
महर्षि सौभरि कण्व - वंश के मुकुट थे, उन्होंने वेद - वेदांग का गुरु मुख से अध्ययन कर धर्म का रहस्य भलीभांति जान लिया था । उनका शस्त्र चिंतन गहरा था, परंतु उससे भी अधिक गहरा था उनका जगत के प्रपंचों से वैराग्य । जगत के समग्र विषय सुख क्षणिक हैं । जब चित्त को उनसे यथार्थ शांति नहीं मिल सकती, तब कोई विवेकी पुरुष अपने अनमोल जीवन को इन कौड़ी के तीन विषयों की ओर क्यों लगायेगा ? आज का विशाल सुख कल ही अतीत की स्मृति बन जाता है । जब पल भर में सुख की सरिता सूखकर मरुभूमि के विशाल बालू के ढेर के रूप में परिणत हो जाती है, तब कौन विज्ञ पुरुष इस सरिता के सहारे अपनी जीवन वाटिका को हरी भरी रखने का उद्योग करेगा ? सौभरि का चित्त इन भावनाओं की रगड़ से इतना चिकना बन गया था कि पिता माता का विवाह करने का प्रस्ताव चिकने घड़े पर जल बूंद के समान उन पर टिक न सका । उन्होंने बहुत समझाया ‘अभी भरी जवानी है, अभिलाषाएं उमड़ी हुई हैं, तुम्हारे जीवन का यह नया वसंत है, कामना मंजरी के विकसित होने का उपयुक्त समय है, रसलोलुप चित्त भ्रमर को इधर उधर से हटाकर सरस माधवी के रसपान में लगाना है । अभी वैराग्य का बाना धारण करने का अवसर नहीं ।’ परंतु सौभरि ने किसी के शब्दों पर कान न दिया । उनका कान तो वैराग्य से भरे, अध्यात्म सुख से सने, सात्त्विक गीतों को सुनने में न जाने कब से लगा हुआ था ।
पिता माता का अपने पुत्र को गार्हस्थ्य - जीवन में लाने का उद्योग सफल न हो सका । पुत्र के हृदय में भी देर तक द्वंद्व मचा रहा । एक बार चित्त कहता - माता पिता के वचनों का अनादर करना पुत्र के लिये अत्यंत हानिकारक है, परंतु दूसरी बार एक विरोधी वृत्ति धक्का देकर सुझाती - ‘आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति ।’ आत्मकल्याण ही सबसे बड़ी वस्तु ठहरी । गुरुजनों के वचनों और कल्याण भावना में विरोध होने पर हमें आत्मकल्याण से पराङ्मुख नहीं होना चाहिये । सौभरि इस अंतर्युद्ध को अपने हृदय के कोने में बहुत देर तक छिपा न सके और घर से सदा के लिये नाता तोड़कर उन्होंने इस युद्ध को भी विराम दिया । महर्षि के जवानी में ही वैराग्य से और अकस्मात घर छोड़ने से लोगों के हृदय विस्मित हो उठे ।

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