Wednesday, 27 July 2016

सती दमयन्ती



विदर्भ देश में भीष्मक नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी पुत्री का नाम दमयन्ती था। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रुपवती थी। उन्हीं दिनों निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल राज्य करते थे। वे बड़े ही गुणवान, सत्यवादी तथा ब्राह्मणभक्त थे। निषध देश में जो लोग विदर्भ देश में आते थे, वे महाराज नल के गुणों की बड़ी प्रशंसा करते थे। यह प्रशंसा दमयन्ती के कानो तक भी पहुँचती थी। इसी तरह विदर्भ देश से आने वाले लोग राज कुमारी के रुप और गुण की चर्चा महाराज नल के समक्ष करते। इसका परिणाम यह हुआ कि नल और दमयन्ती एक दूसरे के प्रति आकृष्ट होते गये।
दमयन्ती का स्वयंवर हुआ। उसने स्वयंवर में बड़े-बड़े देवताओं और राजाओं को छोड़कर राजा नल का ही वरण किया। नव-दम्पति को देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। दमयन्ती निषध-नरेश राजा नल की महरानी बनी। दोनों बड़े सुख से समय बिताने लगे। दमयन्ती पतिव्रताओं में शिरोमणी थी। अभिमान तो उसे छू भी न सका था। समयानुसार दमयन्ती के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। दोनों बच्चे माता-पिता के अनुरुप ही सुन्दर रुप और गुण से सम्पन्न थे। समय-सदा एक- सा नहीं रहता, दुःख-सुख का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। वैसे तो महराज नल गुणवान, धर्मात्मा तथा पुण्यश्लोक थे, किन्तु उनमें एक दोष था- जुए का व्यसन। नल के एक भाई का नाम पुष्कार था। वह नल से अलग रहता था। उसने उन्हें जुए के लिये आमन्त्रित किया। खेल आरम्भ हुआ। भाग्य प्रतिकूल था। नल हारने लगे। सोना, चाँदी, रथ,वाहन, राजपाट सब हाथ से निकल गया। महारानी दमयन्ती ने प्रतिकूल समय जानकर अपने दोनों बच्चों को विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिनपुर भेज दिया।
इधर नल जुए में अपना सब कुछ हार गये। उन्होंने अपने शरीर के सारे वस्त्राभूषण उतार दिये। केवल एक वस्त्र पहनकर नगर से बाहर निकले। दमयन्ती भी मात्र एक साड़ी में पति का अनुसरण किया। एक दिन राजा नल ने सोने के पंख वाले कुछ पक्षी देखे। राजा नल ने सोचा, यदि इन्हें पकड़ लिया जाये तो इनको बेचकर निर्वाह करने के लिये कुछ धन कमाया जा सकता है। ऐसा विचार कर उन्होंने अपने पहनने का वस्त्र खोलकर पक्षियों पर फेंका। पक्षी वह वस्त्र लेकर उड़ गये। अब राजा नल के पास तन ढ़कने के लिये भी कोई वस्त्र नहीं रह गया। नल अपनी अपेक्षा दमयन्ती के दुःख से अधिक व्याकुल थे। एक दिन दोनों जंगल में एक वृक्ष के नीचे एक ही वस्त्र से तन छिपाये पड़े थे। दमयन्ती को थकावट के कारण नींद आ गयी। राजा नल ने सोचा, दमयन्ती को मेरे कारण बड़ा दुःख सहन करना पड़ रहा है। यदि मैं इसे इसी अवस्था में छोड़कर चल दूँ तो यह किसी तरह अपने पिता के पास पहुँच जायगी। यह विचार कर उन्होंने तलवार से उसकी आधी साड़ी को काट लिया और उसी से अपना तन ढ़ककर तथा दमयन्ती को उसी अवस्था में छोड़कर वे चल दिये। जब दमयन्ती की नींद टूटी तो बेचारी अपने को अकेली पाकर करुण विलाप करने लगी। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह अचानक एक अजगर के पास चली गयी और अजगर उसे निगलने लगा। दमयन्ती की चीख सुनकर एक व्याध ने उसे अजगर का ग्रास होंने से बचाया। किंतु वह व्याध स्वभाव से दुष्ट था। उसने दमयन्ती के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसे अपनी काम-पिपासा का शिकार बनाया चाहा। दमयन्ती उसे शाप देते हुए बोली- यदि मैंने अपने पति राजा नल को छोड़कर किसी अन्य पुरुष का चिन्तन न किया हो तो इस पापी व्याध के जीवन का अभी अन्त हो जाए। दमयन्ती की बात पूरी होते ही व्याध के प्राण-पखेरु उड़ गये। देवयोग से भटकते हुए दमयन्ती एक दिन चेदि नरेश सुबाहु के पास और उसके बाद अपने पिता के पास पहुँच गयी। अंततः दमयन्ती के सतीत्व के प्रभाव से एक दिन महाराज नलके दुःखों का भी अन्त हुआ। दोनों का पुनर्मिलन हुआ और राजा नल को उनका राज्य भी वापस मिल गया।

Tuesday, 26 July 2016

क्यों प्रिय है भगवान शिव को बेलपत्र


शिव पूजा का सबसे पावन दिन है सोमवार। सभी देवों में शिव ही ऐसे देव हैं जो अपने भक्तों की भक्ति-पूजा से बहुत जल्दी ही प्रसन्न हो जाते हैं। शिव भोले को आदि और अनंत माना गया है जो पृथ्वी से लेकर आकाश और जल से लेकर अग्नि हर तत्व में विराजमान हैं।
शिव पूजा में बहुत सी ऐसी चीजें अर्पित की जाती हैं जो अन्यल किसी देवता को नहीं चढ़ाई जाती, जैसे- आक, धतूर, भांग आदि लेकिन भगवान शिव को बेलपत्र सबसे ज्यादा प्रिय है।
भगवान शिव के पूजन में बेलपत्र का विशेष महत्त्व है। शिवलिंग पर बेलपत्र अर्पित करने से प्रसन्न होते हैं महादेव। मान्यता है कि शिव की उपासना बिना बेलपत्र के पूरी नहीं होती।
 बेलपत्र का महत्त्व
बेल के पेड़ की पत्तियों को बेलपत्र कहते हैं। बेलपत्र में तीन पत्तियां एक साथ जुड़ी होती हैं लेकिन इन्हें एक ही पत्ती मानते हैं। भगवान शिव की पूजा में बेलपत्र प्रयोग होते हैं और इनके बिना शिव की उपासना सम्पूर्ण नहीं होती। पूजा के साथ ही बेलपत्र के औषधीय प्रयोग भी होते हैं। इसका प्रयोग करके तमाम बीमारियां दूर की जा सकती हैं।
 बेलपत्र चढ़ाने की मान्यता
सागर मंथन के समय जब हालाहल नाम का विष निकलने लगा तब विष के प्रभाव से सभी देवता एवं जीव-जंतु व्याकुल होने लगे। ऐसे समय में भगवान शिव ने विष को अपनी अंजुली में लेकर पी लिया। विष के प्रभाव से स्वयं को बचाने के लिए शिव जी ने इसे अपनी कंठ में रख लिया इससे शिव जी का कंठ नीला पड़ गया और शिव जी नीलकंठ कहलाने लगे।
लेकिन विष के प्रभाव से शिव जी का मस्तिष्क गर्म हो गया। ऐसे समय में देवताओं ने शिव जी के मस्तिष्क पर जल उड़ेलना शुरू किया जिससे मस्तिष्क की गर्मी कम हुई। बेल के पत्तों की तासीर भी ठंडी होती है इसलिए शिव जी को बेलपत्र भी चढ़ाया गया। इसी समय से शिव जी की पूजा जल और बेलपत्र से शुरू हो गयी।
बेलपत्र और जल से शिव जी का मस्तिष्क शीतल रहता और उन्हें शांति मिलती है। इसलिए बेलपत्र और जल से पूजा करने वाले पर शिव जी प्रसन्न होते हैं। शिवरात्रि की कथा में प्रसंग है कि, शिवरात्रि की रात में एक भील शाम हो जाने की वजह से घर नहीं जा सका।
उस रात उसे बेल के वृक्ष पर रात बितानी पड़ी। नींद आने से वृक्ष से गिर न जाए इसलिए रात भर बेल के पत्तों को तोड़कर नीचे फेंकता रहा। संयोगवश बेल के वृक्ष के नीचे शिवलिंग था। बेल के पत्ते शिवलिंग पर गिरने से शिव जी प्रसन्न हो गये। शिव जी भील के सामने प्रकट हुए और परिवार सहित भील को मुक्ति का वरदान दिया। 

जीव-जंतु भी दया और ममता के पात्र होते हैं।


अल्बर्ट श्वाइट्जर मानव मात्र को ही नहीं, बल्कि सभी जीवों को समान रुप से प्रेम करने के हिमायती थे। एक बार वे अपने एक मित्र के साथ कहीं जा रहे थे।घर से रेलवे स्टेशन जाने के लिए उन्होंने सवारी खोजी,किंतु रात का समय होने कारण उन्हें कोई साधन नही मिला। अतः दोनों ने पैदल ही स्टेशन जाने का निश्चय किया। सामान अधिक होने की वजह से एक लाठी पर उसे लटका लिया और दोनों मित्र लाठी के एक-एक सिरे को अपने कंधे पर रख चलने लगे। चूंकि रेलगाड़ी आने में कम समय रह गया था, इसलिए दोनों ही मित्र तेजी से चल रहे थे। आगे अल्बर्ट के मित्रऔर पीछे वे स्वयं। जब स्टेशन थोड़ी देर रह गया, तो उन लोगों ने चलने की गति और तीव्र की। अचानक मित्र को बड़े जोर का धक्का लगा और पूरा सामान, जो लाठी के बीच में रखा था,खिसकर उनके सिर पर आ गया । वे गिरते-गिरते बचे। उन्होनें घबराकर अल्बर्ट से पूछा- क्यों भाई, क्या बात है? अल्बर्ट बोले- मुझे क्षमा करे, लेकिन यह देखिए मार्ग में एक कीड़ा पड़ा है। किसी के पैर के नीचे दबकर मर सकता है। इसी को बचाने के लिए मैं एक ओर हुआ, तो संतुलन बिगड़ गया और सारा बोझ आप पर आ गया। आप तनिक रुक जाएं तो मैं इस कीड़े को उठाकर एक ओर रख देता हूं।
ऐसा कह कर उन्होंने एक लकड़ी लेकर कीड़े को उस पर चढ़ाया और अत्यंत ममत्व भाव से उठा कर ऐसे स्थान पर रख दिया, जहां किसी का पैर उस पर न पड़ सकता था। उनकी जाव दया देख कर उनके मित्र उनके प्रति श्रद्धावनत हो गए।श्वाइट्जर का यह जीवन प्रसंग उन मूक और निरीह जीव-जंतुओं के प्रति दया व प्रेम को प्रोतसाहित करता है, जो इंसान से भी बढ़कर हमारी ममता के पात्र होने चाहिए क्योंकि वे अपनी आवश्यकताओं,विवशताओं और कष्टों को अभिव्यक्त नही कर सकते।
‪#‎शिक्षा‬- जीव-जंतुओं के प्रति स्नेह भाव रखकर हम एक ऐसीकृति का आदर करते हैं जो उसी परमपिता परमेश्वर ने बनाई है, जिसने हमें हनाया है 

| गायत्री महाविद्या ||



• २४ गायत्री
• आद्यशक्ति गायत्री
• ब्राह्मी
• वैष्णवी
• शाम्भवी
• वेदमाता
• देव माता
• विश्वमाता
• ऋतम्भरा
• मन्दाकिनी
• अजपा
• ऋद्धि-सिद्धि
• सावित्री
• सरस्वती
• लक्ष्मी
• महाकाली
• कुण्डलिनी
• ज्वालामुखी
• भुवनेश्वरी
• भवानी
• अन्नपूर्णा
• महामाया
• पयस्विनी
• त्रिपुरा

यों तो गायत्री में सन्निहित शक्तियाँ और उनकी प्रतिक्रियाओं के नामों का उल्लेख अनेक साधना शास्त्रों में अनेक प्रकार से हुआ है ।। इनके नाम, रूपों में भिन्नता दिखाई पड़ती है ।। इस मतभेद या विरोधाभास से किसी असमंजस में पड़ने की आवश्यकता नहीं है ।।
एक ही शक्ति को विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करने पर उसके विभिन्न परिणाम निकलते हैं ।। दूध पीने पर व्यायाम प्रिय व्यक्ति पहलवान बनता है ।। विद्यार्थी की स्मरण शक्ति बढ़ती है ।। योगी को उस सात्त्विक आहार से साधना में मन लगता है ।। प्रसूता के स्तनों में दूध बढ़ता है ।। यह लाभ एक दूसरे से भिन्न है ।।
इससे प्रतीत होता है कि दूध के गुणों का जो वर्णन किया गया है, उसमें मतभेद है ।। यह विरोधाभास ऊपरी है ।। भीतरी व्यवस्था को समझने पर यों कहा जा सकता है कि हर स्थिति के व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार इससे लाभ पहुँचता है ।। दूध के गुणों में जो विरोधाभास जान पड़ता है, उसके लिए असमंजस नहीं करना चाहिए ।।

कई बार शब्दों के अन्तर से भी वस्तु की भिन्नता मालूम पड़ती है ।। एक ही पदार्थ के विभिन्न भाषाओं में विभिन्न नाम होते हैं ।। उन्हें सुनने पर सहज- बुद्धि को भ्रम हो सकता है और अनेक पदार्थों की बात चलती लग सकती है ।। पर जब यह प्रतीत होगा कि एक ही वस्तु के भाव भेद से अनेक उच्चारण हो रहे हैं तो उस अन्तर को समझने में देर नहीं लगती, जिससे एकता को अनेकता में समझा जा रहा था ।।

एक सूर्य के अनेक लहरों पर अनेक प्रतिबिम्ब चमकते हैं ।। व्यक्तियों की मनःस्थिति के अनुरूप एक ही उपलब्धि का प्रतिफल अनेक प्रकार का हो सकता है ।। धन को पाकर एक व्यक्ति व्यवसायी, दूसरा दानी, तीसरा अपव्ययी हो सकता है ।। धन के इन गुणों को देखकर उसकी भिन्न प्रतिक्रियाएँ झाँकने की बात अवास्तविक है ।।
वास्तविक बात यह है कि हर व्यक्ति अपनी इच्छानुसार धन का उपयोग करके अभीष्ट प्रयोजन पूरे कर सकता है ।। गायत्री के २४ अक्षरों में सन्निहित चौबीस शक्तियों का प्रभाव यह है कि मनुष्य की मौलिक विशिष्टताओं को उभारने में उनके आधार पर असाधारण सहायता मिलती है ।।
इसे आन्तरिक उत्कर्ष या दैवी अनुग्रह- दोनों में से किसी नाम से पुकारा जा सकता है ।। कहने- सुनने में इन दोनों शक्तियों में जमीन आसमान जैसा अन्तर दिखता है और दो भिन्न बातें कही जाती प्रतीत होती हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि व्यक्तित्व में बढ़ी हुई विशिष्टताएँ सुखद परिणाम उत्पन्न करती हैं और प्रगति क्रम में सहायक सिद्ध होती हैं ।।
इतना कहने से भी काम चलता है ।। भीतरी उत्कर्ष और बाहरी अनुग्रह वस्तुतः एक ही तथ्य के दो प्रतिपादन भर हैं ।। उन्हें अन्योन्याश्रित भी कहा जा सकता है ।।

गायत्री की २४ शक्तियों का वर्णन शास्त्रों ने अनेक नाम रूपों से किया है ।। उनके क्रम में अन्तर है ।। इतने पर भी इस मूल तथ्य में रत्ती भर भी अन्तर नहीं आता कि इस महाशक्ति के अवलम्बन से मनुष्य की उच्चस्तरीय प्रगति का द्वार खुलता है और जिस दिशा में भी उसके कदम बढ़ते हैं उसमें सफलता का सहज दर्शन होता है ।।

गायत्री ब्रह्म चेतना है ।। समस्त ब्रह्माण्ड के अन्तराल में वही संव्याप्त है ।। जड़ जगत् का समस्त संचालन उसी की प्रेरणा एवं व्यवस्था के अन्तर्गत हो रहा है ।। अन्य प्राणियों में उसका उतना ही अंश है, जिससे अपना जीवन निर्वाह सुविद्या पूर्वक चला सकें ।। मनुष्य में उसकी विशेषता है ।।
यह विशेषता सामान्य रूप से मस्तिष्क क्षेत्र की अधिष्ठात्री बुद्धि के रूप में दृष्टिगोचर होती है ।। सुख सुविद्याओं को जुटाने वाले साधन इसी के सहारे प्राप्त होते हैं ।। असामान्य रूप से यह ब्रह्म चेतना प्रज्ञा है ।। यह अन्तःकरण की गहराई में रहती है ।। और प्रायः प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है ।। पुरुषार्थी उसे प्रयत्न पूर्वक जगाते और क्रियाशील बनाते हैं ।।
इस जागरण का प्रतिफल बहिरंग और अन्तरंग में मुक्ति बन कर प्रकट होता है ।। बुद्धिबल से मनुष्य वैभववान बनता है, प्रज्ञाबल से ऐश्वर्यवान् ।। वैभव का स्वरूप है- धन, बल, कौशल, यश, प्रभाव अर्जित ऐश्वर्य का रूप महान् व्यक्तित्व है
।। इसके पाँच वर्ग हैं ।। सन्त, ऋषि, महर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि ।। पांच देवों का वर्गीकरण इन्हीं विशेषताओं के अनुपात से किया है ।। विभिन्न स्वरूप, विभिन्न क्षेत्रों में प्रकट होने वाले उत्कृष्टता के ही पाँच स्वरूप हैं ।। वैभव सम्पन्नों को दैत्य (समृद्ध) और ऐश्वर्यवान् महामानवों को दैव (उदात्त) कहा गया है ।।

वैभव उपार्जन करने के लिए आवश्यक ज्ञान और साधन किस प्रकार किये जा सकते हैं इसे शिक्षा कहते हैं ।। ऐश्वर्यवान बनने के लिए जिस ज्ञान एवं उपाय को अपनाना पड़ता है, उसका परिचय विद्या से मिलता है ।। विद्या का पूरा नाम ऋतम्भरा प्रज्ञा या विद्या है ।। इसका ज्ञान पक्ष योग और साधन पक्ष तप कहलाता है ।। योग उपासना है और तप साधना ।।
इन्हें अपनाना परम पुरुषार्थ कहलाता है ।। जिस अन्तराल में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी हुई- बीजरूप से विद्यमान शक्ति को सक्रिय बनाने में जितनी सफलता मिलती है, वह उतना ही बड़ा महामानव- सिद्ध पुरुष, देवात्मा एवं अवतार कहलाता है ।।

ब्रह्म चेतना- गायत्री सर्वव्यापक होने से सर्व शक्तिमान् है ।। उसके साथ विशिष्ट घनिष्ठता स्थापित करने के प्रयास साधना कहलाते हैं ।। इस सान्निध्य में प्रधान माध्यम- भक्ति है ।। भक्ति अर्थात् भाव- संवेदना ।। भाव शरीर धारियों के साथ ही विकसित हो सकता है ।। साधना की सफलता के लिए भाव भरी साधना अनिवार्य है ।।
मनुष्य को जिस स्तर का चेतना- तन्त्र मिला है उसके दिव्य शक्तियों को देव- काया में प्रतिष्ठापित करने के उपरान्त ही ध्यान धारणा का प्रयोजन पूरा हो सकता है ।। तत्त्वदर्शियों ने इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए समस्त दिव्य शक्तियों के स्वरूप मानव आकृति में प्रतिष्ठित किये हैं ।। यही देवता और देवियाँ हैं ।। गायत्री को आद्य शक्ति के रूप में मान्यता दी गई है ।। निराकार उपासक प्रातःकाल के स्वर्णिम सूर्य के रूप में उसकी धारणा करते हैं ।।

आद्यशक्ति गायत्री को संक्षेप में विश्वव्यापी ब्रह्म चेतना समझा जाना चाहिए ।। उसकी असंख्य तरंगें हैं ।। अर्थात् उस एक ही महासागर में असंख्यों लहरें उठती हैं ।। उनके अस्तित्व पृथक्- पृथक् दीखते हुए भी वस्तुतः उन्हें सागर की जलराशि के अंग अवयव ही माना जायगा ।।
गायत्री की सहस्र शक्तियों में जिन २४ की प्रधानता है, वे विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाली शक्ति धाराएँ हैं ।। २४ अवतार- २४ देवता ऋषि- २४ गीताएँ आदि में गायत्री के २४ अक्षरों का ही तत्त्वज्ञान विभिन्न पृष्ठभूमि पर बताया, समझाया गया है ।। इन २४ अक्षरों में सन्निहित शक्तियों की उपासना २४ देवियों के रूप में की जाती है ।।

तथ्य को समझने में बिजली के उदाहरण से अधिक सरलता पड़ेगी ।। बिजली सर्वत्र संव्याप्त ऊर्जा तत्त्व है ।। यह सर्वत्र संव्याप्त और निराकार है ।। उसे विशेष मात्रा में उपार्जित एवं एकत्रित करने के लिए बिजलीघर बनाये जाते हैं ।। उपलब्ध विद्युत शक्ति को स्विच तक पहुँचाया जाता है ।। स्विच के साथ जिस प्रकार का यन्त्र जोड़ दिया जाता हैं ।।
बिजली उसी प्रयोजन को पूरा करने लगती है ।। बत्ती जलाकर प्रकाश, पंखा चलाकर हवा, हीटर से गर्मी, कूलर से ठण्डक, रेडियो से आवाज, टेलीविजन से दृश्य, मोटर से गति- स्पर्श से झटका जैसे अनेकानेक प्रयोजन पूरे होते हैं ।।
इनका लाभ एवं अनुभव अलग- अलग प्रकार का होता है ।। इन सबके यन्त्र भी अलग- अलग प्रकार के होते हैं ।। इतने पर भी विद्युत शक्ति के मूल स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता है ।। इन विविधताओं को उसके प्रयोगों की भिन्नताएँ भार कहा जा सकता है ।। आद्य- शक्ति गायत्री एक ही है, पर उसका प्रयोग विभिन्न प्रयोजनों के लिए करने पर नाम- रूप में भिन्नता आ जाती है और ऐसा भ्रम होने लगता है कि वे एक दूसरे से पृथक तो नहीं है?
विचारवान जानते है कि बिजली एक ही है ।। उद्देश्यों और प्रयोगों की भिन्नता के कारण उनके नाम रूप में अंतर आता है और पृथकता होने जैसा आभास मिलता है ।। तत्त्वदर्शी इस पृथकता में भी एकता का अनुभव करते हैं ।। गायत्री की २४ शक्तियों के बारे में ठीक इसी प्रकार समझा जाना चाहिए ।।

पेड़ के कई अंग अवयव होते हैं- जड़, तना, छाल, टहनी, पत्ता, फूल, पराग, फल, बीज आदि ।। इन सबके नाम, रूप, स्वाद, गंध, गुण आदि भी सब मिला कर यह सारा परिवार वृक्ष की सत्ता में ही सन्निहित माना जाता है ।। गायत्री की २४ शक्तियाँ भी इसी प्रकार मानी जानी चाहिए ।।
सूर्य के सात रंग, सात अश्व- पृथक्- पृथक् निरूपित किये जाते हैं ।। उनके गुण, धर्म भी अलग- अलग होते हैं ।। इतने पर भी ये सूर्य- परिवार के अन्तर्गत ही हैं ।। गायत्री की २४ शक्तियों की उपासना को विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न नाम रूपों में किया जा सकता है, पर यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वे सभी स्वतन्त्र एवं विरोधी हैं ।। उन्हें एक ही काया के विभिन्न अवयव एवं परस्पर पूरक मान कर चलना ही उपयुक्त है ।।

गायत्री का उपास्य सूर्य-सविता है । सविता का तेजस सहस्रांशु कहलाता है । उसके सात रंग अश्व है और सहस्र किरणें गायत्री की सहस्र शक्तियाँ हैं । इनका उल्लेख-संकेत उसके सहस्र नामों में वर्णित है । गायत्री सहस्रनाम प्रख्यात हैं । इनमें अष्टोत्तरशत अधिक प्रचलित हैं । इनमें भी २४ की प्रमुखता है । विश्वामित्र तन्त्र में इन २४ नामों का उल्लेख है । इन शक्तियों में से १२ दक्षिण पक्षीय हैं और १२ वाम पक्षीय । दक्षिण पक्ष को आगम और वाम पक्ष को निगम कहते हैं । कहा गया है-

गायत्री बहुनामांस्ति संयुक्ता देव शक्तिभिः ।
सर्वं सिद्धिषु व्याप्ता सा दृष्टा मुनिभ्राहिता॥
अर्थात्-”गायत्री के असंख्य नाम हैं, समस्त देवशक्तियाँ उसी से अनुप्राणित हैं, समस्त सिद्धियों में उसी का दर्शन होता है ।”

चतुर्विंशति साहस्रं महा प्रज्ञा मुखं मतम् ।
चतुर्विंशक्ति शवे चैतु ज्ञेयं मुख्यं मुनीषिभिः॥
अर्थात्- महा प्रज्ञा के २४ हजार नाम प्रधान हैं, इनमें २४ को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है ।

तत्रापि च सहस्रं तु प्रधान परिकीर्तिम् ।
अष्टोत्तरशतं मुख्यं तेषु प्रोक्तं महर्षिभः॥
अर्थात्-उन (२४००० नामों) में भी मात्र सहस्रनाम ही सर्वविदित हैं । सहस्रों में से एक सौ आठ चुने जा सकते हैं ।

चतुर्विंशतिदेवास्याः गायत्र्याश्चाक्षराणि तु ।
सन्ति सर्वसमर्थानि तस्याः सादान्वितानि च॥
अर्थात्- चौबीस अक्षरों वाली सर्व समर्थ गायत्री के चौबीस नाम भी ऐसे ही हैं,
जिनमें सार रूप से गायत्री के वैभव – विस्तार का आभास मिल जाता है ।

चतुर्विशतिकेष्वेवं नामसु द्वादशैव तु ।
वैदिकानि तथाऽन्यानि शेषाणि तान्त्रिकानि तु॥
अर्थात्- गायत्री के चौबीस नामों में बारह वैदिक वर्ग के हैं और बारह तांत्रिक वर्ग के ।

चतुर्विंशतु वर्णेषु चतुर्विशति शक्तयः ।
शक्ति रूपानुसारं च तासाँ पूजाविधीयते॥
अर्थात्- गायत्री के चौबीस अक्षरों में चौबीस देवशक्तियाँ निवास करती हैं । इसलिए उनके अनुरूपों की ही पूजा-अर्चा की जाती है ।
आद्य शक्तिस्तथा ब्राह्मी, वैष्णवी शाम्भवीति च ।
वेदमाता देवमाता विश्वमाता ऋतम्भरा॥
मन्दाकिन्यजपा चैव, ऋद्धि सिद्धि प्रकीर्तिता ।
वैदिकानि तु नामानि पूर्वोक्तानि हि द्वादश॥
अर्थात्- (१) आद्यशक्ति (२) ब्राह्मी (३) वैष्णवी (४) शाम्भवी (५) वेदमाता (६) देवमाता (७) विश्वमाता (८)ऋतम्भरा (९) मन्दाकिनी (१०)अजपा (११)ऋद्धि (१२) सिद्धि-इन बारह को वैदिकी कहा गया है ।

सावित्री सरस्वती ज्ञेया, लक्ष्मी दुर्गा तथैव च ।
कुण्डलिनी प्राणग्निश्च भ्ावानी भुवनेश्वरी॥
अन्नपूर्णेति नामानि महामाया पयस्विनी ।
त्रिपुरा चैवेति विज्ञेया तान्त्र्कानि च द्वादश॥
अर्थात्-(१) सावित्री (२) सरस्वती (३) लक्ष्मी (४) दुर्गा (५) कुण्डलिनी (६) प्राणाग्नि (७) भवानी (८) भुवनेश्वरी (९) अन्नपूर्णा (१०) महामाया (११) पयस्विनी और (१२) त्रिपुरा-इन बारह को तान्त्र्ािकी कहा गया है ।
बारह ज्ञान पक्ष की, बारह विज्ञान पक्ष की शक्तियों के मिलन से चौबीस अक्षर वाला गायत्री मन्त्र विनिर्मित हुआ ।

गायत्री तत्त्वबोध के अनुसार-
गायत्रीमंत्रगावर्णाः प्रतीका निश्चितं मताः ।
स्वस्वविशिष्टदेवीनां देवतानामथापि च॥
ऋषीणां शक्तिबीजानां यंत्राणामपि पार्वती ।
सन्त्येषां च प्रयोगोऽथ रहस्यं तत्फलं पृथक् ॥
तत्त्वज्ञानयुता योगरतास्ते हि तपस्विनः ।
उद्भावयन्ति यान्येवं लाभमासादयन्ति च॥
अर्थात्- गायत्री मंत्र का प्रत्येक अक्षर एक-एक विशिष्ट शक्तिधारा-देवी का, देवता का, ऋषि का, शक्तिबीज का, यन्त्र चक्र का प्रतीक है । इनमें से प्रत्येक के अपने-अपने प्रयोग और प्रतिफल है । जिन्हें तत्त्वज्ञानी, योगी तपस्वी प्रकट करते और लाभान्वित होते रहते हैं ।
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आद्यशक्ति गायत्री


‘तत्’ वर्णस्य तु देवीं तामाद्यां शक्तिं वदन्त्यथ ।।
देवतां च परंब्रह्म बीजमोङ्कारमेव च॥
विश्वामित्रमृषिं यन्त्रं गायत्रीं फलमस्य च॥
प्रज्ञादीक्षे विभूतिद्वे संस्कारित्वाऽऽप्तकामते॥
अर्थात्- ‘तत्’ अक्षर की देवी- ‘आद्यशक्ति’ देवता- ‘परब्रह्म’ बीज ‘ॐ’ ऋषि- ‘विश्वामित्र’ यन्त्र- ‘गायत्रीयन्त्रम्’, विभूति- ‘प्रज्ञा एवं दीक्षा’ तथा प्रतिफल- ‘आप्तकाम एवं सुसंस्कारिता है ।’
ब्रह्म एक है ।। उसकी इच्छा क्रीड़ा- कल्लोल की हुई ।। उसने एक से बहुत बनना चाहा, यह चाहना- इच्छा ही शक्ति बन गई ।। इच्छा शक्ति ही सर्वोपरि है ।। उसी की सार्मथ्य से यह समस्त संसार बन कर खड़ा हो गया है ।। जड़- चेतन सृष्टि के मूल में परब्रह्म की जिस आकांक्षा का उदय हुआ, उसे ब्राह्मी शक्ति कहा गया ।। यही गायत्री है ।। संकल्प से प्रयत्न, प्रयत्न से पदार्थ का क्रम सृष्टि के आदि से बना है और अनन्तकाल से चला आया है ।। प्रत्यक्ष तो पदार्थ ही दीखता है ।। पदार्थों पर ही हम अनुभव और उपयोग करते हैं ।। यह स्थूल हुआ ।।
सूक्ष्मदर्शी वैज्ञानिक जानते हैं कि पदार्थ की मूल सत्ता अणु संगठन पर आधारित है ।। यह अणु और कुछ नहीं, विद्युत तरंगों से बने हुए गुच्छक मात्र हैं ।। यह सूक्ष्म हुआ ।। उससे गहराई में उतरने वाले तत्त्वदर्शी अध्यात्मवेत्ता जानते हैं कि विश्वव्यापी विद्युत तरंगें भी स्वतन्त्र नहीं हैं, वे ब्रह्मचेतना की प्रतिक्रिया भर हैं ।। जड़ जगत् की पदार्थ सम्पदा में निरन्तर द्रुतगामी हलचलें होती हैं ।। इन हलचलों के पीछे उद्देश्य, संतुलन, विवेक, व्यवस्था का परिपूर्ण समन्वय है ।।
‘इकॉलाजी’ के ज्ञाता भली प्रकार जानते हैं कि सृष्टि के अन्तराल में कोई अत्यन्त दूरदर्शी, विवेकयुक्त सत्ता एवं सुव्यवस्था विद्यमान है ।। इसी सार्मथ्य की प्रेरणा से सृष्टि की समस्त हलचलें किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए गतिशील रहती हैं ।। यही सत्ता ‘आद्यशक्ति’ है- इसी को गायत्री कहा गया है ।।
साक्षी, दृष्टा, निर्विकार, निर्विकल्प, अचिन्त्य, निराकार, व्यापक ब्रह्म की सृष्टि व्यवस्था जिस सार्मथ्य के सहारे चलती है, वही गायत्री है ।।
गायत्री त्रिपदा है ।। गंगा- यमुना सरस्वती के संगम को तीर्थराज कहते हैं ।। गायत्री मन्त्रराज है ।। सत्- चित्- ”सत्यं शिवं सुन्दरम्”, सत- रज, ईश्वर- जीव, भुवःलोक, स्वःलोक का विस्तार त्रिपदा है ।।
पदार्थों में ठोस, द्रव्य, वाष्प, प्राणियों में जलचर, थलचर, नभचर- सृष्टिक्रम के उत्पादन, अभिवर्धन, परिवर्तन, गायत्री के ही तीन उपक्रम हैं ।। सर्दी, गर्मी, वर्षा की ऋतुएँ, दिन- रात्रि काल में महाकाल की हलचलें देखी जा सकती हैं ।। प्राणाग्नि, कालाग्नि, योगाग्नि के रूप में त्रिपदा की ऊर्जा व्याप्त है ।।
सृष्टि के आदि में ब्रह्म का प्रकटीकरण हुआ- यह ॐकार है ।। ॐकार के तीन भाग हैं- अ उ म् ।। उनके तीन विस्तार भूः- भुवः हैं ।। उनके तीन चरण हैं ।। इस प्रकार शब्द ब्रह्म ही पल्लवित होकर गायत्री मन्त्र बना ।।
पौराणिक कथा के अनुसार सृष्टि के आदि में विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पर ब्रह्मा जी प्रकट हुए ।। उन्हें आकाश वाणी द्वारा गायत्री मन्त्र मिला और उसकी उपासना करके सृजन की क्षमता प्राप्त करने का र्निदेश हुआ ।।
ब्रह्मा ने सौ वर्ष तक गायत्री का तप करके सृष्टि रचना की शक्ति एवं सामग्री प्राप्त की ।। यह कथा भी शब्द ब्रह्म की भाँति गायत्री को ही आद्य शक्ति सिद्ध करती है ।। ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग के अन्तर्गत संसार की समस्त विचार सम्पदा और भाव विविधता त्रिपदा गायत्री की परिधि में ही सन्निहित है ।।
आद्यशक्ति के साथ सम्बन्ध मिलाकर साधक सृष्टि की समीपता तक जा पहुँचता है और उन विशेषताओं से सम्पन्न बनता है जो परब्रह्म में सन्निहित हैं ।। परब्रह्म का दर्शन एवं विलय ही जीवन लक्ष्य है ।। यह प्रयोजन आद्यशक्ति की सहायता से संभव होता है ।।
आद्यशक्ति का साधक पर अवतरण ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में होता है और साधक ब्रह्मर्षि बन जाता है ।। नर पशुओं की प्रवृत्तियाँ, वासना, तृष्णा, अहंता के कुचक्र में परिभ्रमण करती रहती हैं ।। नरदेवों की अन्तरात्मा में निष्ठा, प्रज्ञा एवं श्रद्धा की उच्च स्तरीय आस्थाएँ प्रगाढ़ बनती हैं और परिपक्व होती चली जाती हैं ।। निष्ठा अर्थात् सत्कर्म, प्रज्ञा अर्थात् सद्ज्ञान ।।
श्रद्धा- अर्थात् सद्भाव ।। इन्हीं की सुखद प्रतिक्रिया- तृप्ति, तुष्टि एवं शान्ति के रूप में साधक के सामने आती है ।। तृप्ति अर्थात् संतोष, तुष्टि अर्थात् समाधान ।। शान्ति अर्थात् उल्लास ।। उच्च स्तरीय भाव- संवरण की उपलब्धि होने पर साधक सदा अपनी आस्थाओं का आनन्द लेते हुए रस विभोर हो जाता है ।। शोक- संताप से उसे आत्यन्तिक छुटकारा मिल जाता है ।।
शरणागति के लिए बढ़ता हुआ हर कदम साधक को इन्हीं विभूतियों से लाभान्वित करता चलता है ।।
संक्षेप में आद्यशक्ति गायत्री के स्वरूप, वाहन आयुध आदि का विवेचन इस प्रकार है-
आद्यशक्ति के एक मुख, दो हाथ, अपनी निजी माता का बोध कराने वाली सहज छवि ।। हाथों में पुस्तक एवं जल कमण्डलु- सद्ज्ञान एवं श्रद्धा- स्नेहयुक्त पात्रता के प्रतीक हैं ।। वाहन- हंस विवेक, मुक्ता चयन एवं उज्ज्वलता का प्रतीक है ।।

ब्राह्मी


‘स’ वर्णस्य देवी च ब्राह्मी ब्रह्मा तु देवता ।।
ऋषिर्वशिष्ठो यन्त्रं च ब्राह्मी भूतिद्वयं पुनः॥
श्रद्धायुक्ता च विद्यन्ते फलं सृष्टिः सुसन्ततिः॥
अर्थात्- ‘स’ अक्षर की देवी ‘ ब्राह्मी ‘, देवता- ‘ब्रह्मा’, बीज- ‘ह्रीं’ ऋषि- ‘वशिष्ठ’, यन्त्र ‘ब्राह्मीयंत्रम्’, विभूति ‘श्रद्धा एवं युक्ता’ और प्रतिफल- सृजन शक्ति एवं सुसन्तति है ।’
त्रिदेव प्रसिद्ध हैं- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, उत्पादन, अभिवृद्धि, परिवर्तन ।। इन्हें ब्राह्मी कहा जाता है ।। सृजन — उत्पादन में संलग्न संसार, की सबसे बड़ी विशेषता है ।। यह क्षमता धरती में हैं और जननी में है ।। अपने उत्पादनों से दूसरों को निहित करना और स्वयं धन्य बनना, इसी उत्कृष्टता के कारण धरती माता और जननी माता गौरवान्वित होती हैं ।।
यह ब्राह्मी माता के अनुदान हैं, जिन्हें जो जितनी मात्रा में उपलब्ध करता है, वह उसी अनुपात के महामानव बनता चला जाता है ।। ध्वंस दानवों का और सृजन देवों का सिद्धान्त हैं ।। इससे सृजन क्रियाओं में संलग्न मनुष्य ही देव- मानव कहलाते हैं ।।
गायत्री की ब्राह्मी शक्ति की साधना करने से साधक में ब्रह्म तेजस्- ब्राह्मणत्व विकसित होता है ।। ब्राह्मण पृथ्वी के देवता माने जाते हैं ।। उन्हें भूदेव कहते हैं ।।
सत्- रज में- सत्यं शिवं सुंदरम् में प्रथम वर्ग सत् या सत्य का है ।। यही ब्राह्मी विशेषता है ।। उसका अवलम्बन ग्रहण करने से व्यक्तित्व- स्वभाव में सतोगुण बढ़ता है और आचार, व्यवहार में सतोगुण का- पवित्रता एवं सादगी का अनुदान निरन्तर बढ़ता जाता है ।।
ब्राह्मी हंस वाहिनी है ।। उसके एक हाथ में पुस्तक दूसरे में कमण्डलु है ।। किशोरी कन्या उसकी वय है ।। इन अलंकारों से ब्रह्मशक्ति का स्वरूप समझने में सहायता मिलती है और उसका अनुग्रह पाने का द्वार खुलता है ।। गायत्री का वाहन सामान्य हंस नहीं, मनुष्यों में पाये जाने वाले राजहंस- परमहंस हैं ।।
राजहंस- शालीन, सज्जन, श्रेष्ठ, आदर्श ।। परमहंस- तत्त्वज्ञानी, तपस्वी, परमार्थी, जीवनमुक्त ।। गायत्री उपासना के आधार पर साधक सामान्य मानवी स्तर से ऊँचा उठकर राजहंस बनता है ।। साधना की परिपक्वता से वह परमहंस की स्थिति तक पहुँच जाता है ।। देवात्मा सिद्ध पुरुष के रूप में दृष्टिगोचर होता है ।।
नीर- क्षीर विवेक हंस का प्रधान गुण हैं ।। दूसरा है- मोती ही चुगना- कौड़ी को हाथ न लगाना ।। यही सतोगुण है ।। उत्कृष्ट चिन्तन- सद्विवेक और औचित्य को ही अपनाना- अनौचित्य से बचे रहना- यही हंस प्रवृत्ति है ।। ब्राह्मी चेतना का स्वरूप यही है ।। गायत्री का हंस वाहन है ।। अर्थात् हंस प्रवृत्ति के व्यक्तित्वों को ही वह महाशक्ति अपने निकटतम रखती है ।। दूसरा तात्पर्य यह है कि इस उपासना के फलस्वरूप साधक का सतोगुण क्रमशः बढ़ता ही चला जाता है ।।
पुस्तक से सद्ज्ञान और कमण्डलु से सत्कार्य का संकेत है, गायत्री शक्ति के दोनों हाथों में यही वरदान रखे हैं ।। ब्राह्मी साधना से अन्तःकरण में उत्कृष्ट चिन्तन की तरंगें उठती हैं ।। क्रिया- कलाप में सत्कर्म करने का उल्लास एवं साहस उभरता है ।। गायत्री को ब्राह्मण की कामधेनु कहा गया है ।।
उसका तात्पर्य यह है कि ब्राह्मी शक्ति कामधेनु का पयपान करने वाला साधक सच्चे अर्थों में ब्राह्मण बनता है और आत्मसंतोष, लोक सम्मान तथा दैवी अनुग्रह के तीनों वरदान प्राप्त करता है ।।
ऋद्धियों और सिद्धियों पर अधिकार ब्रह्म- परायण का होता है ।। जिसका बाह्य और अन्तर जीवन पवित्र है, उसी को मन्त्र सिद्धि उपलब्ध होती है ।। इसके लिए आवश्यक पात्रता गायत्री की ब्रह्म धारा के सम्पर्क से प्राप्त होती है ।।
सावित्री- सत्यवान की कथा में सावित्री ने सत्यवान को वरण किया था और उसे मृत्यु के मुख से छुड़ाने तथा लकड़हारे से राजा बना देने का अनुदान प्राप्त किया था ।। सत्यवान साधक, सावित्री की सच्ची सहायता प्राप्त कर सके, ब्राह्मी शक्ति के माध्यम से यही पृष्ठभूमि बनती है ।।
संक्षेप में ब्राह्मी शक्ति के वाहन, आयुध का विवेचन निम्न प्रकार हैः-
ब्राह्मी के चार मुख- चतुर्मुखी प्रतिभा- समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी आदि वृत्तियों तथा चार हाथ- चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ , काम, मोक्ष) के प्रतीक हैं ।।
हाथों में पुस्तक से वेदज्ञान, माला से सतत ध्यान- जागरूकता, जल- कमण्डलु से आद्रर्ता तथा आशीर्वाद मुद्रा से सतत अनुग्रह का बोध ।। वाहन हंस- शुभ्र आकांक्षाओं का प्रतीक है ।।

वैष्णवी


‘वि’ अक्षरस्य च देवी सा वैष्णवी देवता च सः ।।
विष्णुः ‘णं’ बीजमेतस्य वैष्णवी यन्त्रमेव च॥
ऋषिः स नारदो भूती निष्ठाक्षेमे च सन्त्यपि ।।
फलं वचोर्ऽथ तद्दिव्यं वैभवं द्वयमेव तु॥
अर्थात् – ‘वि’ अक्षर की देवी- ‘वैष्णवी’, देवता- ‘विष्णु’, बीज- ‘णं’, यन्त्र- ‘वैष्णवीयंत्रम्’, ऋषि- ‘नारद’, विभूति- ‘निष्ठा एवं क्षमा’ और प्रतिफल- वर्चस एवं दिव्य ‘वैभव’ हैं ।।
विष्णु की शक्ति वैष्णवी है ।। वैष्णवी अर्थात पालनकर्ती ।। इसे ‘व्यवस्था’ भी कह सकते हैं ।।
उत्पादन ‘आरम्भ’ है ।। अभिवर्धन ‘मध्य’ है ।। एक है शैशव दूसरा है यौवन ।। यौवन में प्रौढ़ता, परिपक्वता, सुव्यवस्था की समझदारी भरी होती है ॥ साहस और पराक्रम का पुट रहता है ।। यही रजोगुण है ।। त्रिपदा की दूसरी धारा वैष्णवी है ।। इसे गंगा की सहायक यमुना कहा जा सकता है ।।
इस साधना से साधक को उन सिद्धियों- विभूतियों एवं सत्प्रवृत्तियों की उपलब्धि होती है ।। जिसके आधार पर वह यथार्थवादी योजनाएँ बनाने में ही नहीं, उन्हें सुव्यवस्था, तन्मयता एवं तत्परता के सहारे आगे बढ़ाने और सफल बनाने में समर्थ होता है ।।
वैष्णवी को दूसरे अर्थों में लक्ष्मी कह सकते हैं ।। भौतिक क्षेत्र में इसी को सम्पन्नता और आत्मिक क्षेत्र में इसी को सुसंस्कारिता के नाम से पुकारा जाता है ।। विभिन्न स्तरों की सफलताएँ इसी आधार पर मिलती हैं ।। वैष्णवी का वाहन गरुड़ है ।।
गरुड़ की कई विशिष्टताएँ हैं ।। एक तो उसकी दृष्टि अन्य सब पक्षियों की तुलना में अधिक तीक्ष्ण होती है ।। सुदूर आकाश में ऊँची उड़ान उड़ते समय भी जमीन पर रेंगता कोई सर्प मिल जाय तो वह उस पर बिजली की तरह टूटता है और क्षण भर में ही तोड़- मरोड़ कर रख देता है ।। गरुड़ की चाल अन्य पक्षियों की तुलना में कहीं अधिक तीव्र होती है ।। आलस्य और प्रमाद उससे कोसों दूर रहते हैं ।। उसे जागरूकता का प्रतीक माना जाता है ।।
अव्यवस्था रूपी सर्प से घोर शत्रुता रखने वाली, तथा उसे निरस्त करने के लिए टूट पड़ने वाली प्रकृति गरुड़ है ।। दूरदर्शिता अपनाने वाले लोगों को गरुड़ कहा जा सकता है ।। जिन्हें आलस्य है न प्रमाद, ये गरुड़ हैं ।। ऐसे ही प्रबल पराक्रमी लोगों को गरुड़ की तरह वैष्णवी का प्यार प्राप्त होता है ।।
वैष्णवी की उपासना से समृद्धि का पथ प्रशस्त होता चला जाता है ।।
वैष्णवी की साधना का प्रतिफल सम्पन्नता है ।। ऐसे साधकों की आन्तरिक दरिद्रता दूर हो जाती है ।। ये सद्गुण सम्पदाओं के धनी होते हैं, उन्हें सच्चे अर्थों में विभूतिवान् कहा जा सकता है ।। साथ ही उन्हें मानसिक दरिद्रता का भी दुःख नहीं भोगना पड़ता है ।।
विष्णु का नारी स्वरूप वैष्णवी है ।। उसके आयुध भी चार हैं- शंख, चक्र, गदा, पद्म ।। जहाँ चार हाथ हैं, वहाँ यह चारों हैं ।। जहाँ दो ही हाथ हैं वहाँ शंख और चक्र दो ही आयुध हैं ।। शंख का अर्थ है- संकल्प, सुनिश्चित का प्रकटीकरण- उद्घोष
।। चक्र का अर्थ है गति, सक्रियता ।। गदा का अर्थ है शक्ति ।। पद्म का अर्थ है सुषुमा, कोमलता ।। इन चारों को देव गुण भी कह सकते हैं ।। देव अनुदान, वरदान भी देते हैं ।।
जो आयुध विष्णु के हैं वे वैष्णवी के हैं ।। जिसमें यह चतुर्विध आकर्षण होगा उस पर वैष्णवी की कृपा बरसेगी ।। उसी तथ्य को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जिन पर वैष्णवी का अनुग्रह होगा उनमें आयुधों के रूप में उपरोक्त चारों सद्गुणों का अनुपात बढ़ता चला जायगा ।।
वैष्णवी के आयुध, वाहन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-
वैष्णवी के एक मुख, चार हाथों में- शंख, चक्र, गदा, पद्म ।। शंख से दुष्कृत्यों के विनाश और सत्पुरुषों के सहयोग का उद्घोष, चक्र से सृष्टि चक्र के अनुशासन, गदा से व्यवस्था को दृढ़तापूर्वक लागू करने तथा कमल से दिव्य उल्लास फैलाने का बोध सन्निहित है ।।
वाहन गरुड़- जो आतंक फैलाने वाले सर्प का काल तथा तीव्र गति का प्रतीक है ।।

शाम्भवी


‘तुः’ अक्षरस्य च देवी शाम्भवी देवता शिवः ।।
बीजं ‘शं’ अत्रिरेवर्षिः शाम्भवी यन्त्रमेव च ।।
भूती मुक्ताशिवे मुक्तिः फलं चानिष्टनाशनम्॥
अर्थात – ‘तुः’ अक्षर की देवी- ‘शाम्भवी’, देवता- ‘शिव’, बीज- ‘शं’, ऋषि- ‘अत्रि’, यंत्र- ‘शाम्भवीयन्त्रम्’, विभूति- ‘मुक्ता एवं शिवा’ तथा ‘प्रतिफल’- मुक्तिप्राप्ति तथा अनिष्ट- निवारण’ है ।।
त्रिपदा गायत्री का तीसरा प्रवाह शाम्भवी है ।। इसे उपयोगी परिवर्तन की शक्ति माना जाता है ।।
दूसरे शब्दों में यह काया कल्प की वह सामर्थ्य है जो जीर्णता को नवीनता में- मूर्छना को चेतना में- शिथिलता को सक्रियता में तथा मरण को जीवन में परिवर्तन करती है ।। पुनर्जीवन, नव निर्माण इसी को कहते हैं ।। गायत्री की शाम्भवी शक्ति वह है जो अशक्त को शक्तिवान और कुरूप को सौन्दयर्वान बनाने में निरन्तर संलग्न रहती है ।। प्रकारान्तर से इसे शिव- शक्ति भी कह सकते हैं ।।
शाम्भवी के दो आयुध हैं त्रिशूल व डमरू ।। त्रिशूल अर्थात तीन धार वाला वह शस्त्र जो मनुष्य की आधिभौतिक, आध्यात्मिक एवं आधि- दैविक विपत्तियों को विदीर्ण करने में पूरी तरह समर्थ है ।।
मनुष्य जीवन में अनेकानेक कष्ट, संकट उत्पन्न करने वाले तीन कारण हैं
(१) अज्ञान
(२) अभाव
(३) अशक्ति
इन तीनों का निवारण करने वाले (१) ज्ञान (२) पुरुषाथर् (३) संयम के तीन शस्त्र उठाने पड़ते हैं ।। इन तीनों का समन्वय त्रिशूल है ।। शांभवी की उपासना करने वाला त्रिशूल धारी बनता है ।। गायत्री साधना में यदि सच्ची लगन हो तो व्यक्तित्व में ऐसी प्रतिभा का विकास होता है जो पिछड़ी हुई मनःस्थिति एवं परिस्थिति से उलट कर समृद्ध एवं समुन्नत बना सके ।।
डमरू जागरण का उत्साह का- अग्रगमन का प्रतीक है ।। शांभवी के एक हाथ में डमरू होने का अर्थ है कि इस शक्ति- धारा के सम्पर्क में आने पर नव जागरण का- पुरुषार्थ, प्रयासों में उत्साह का, ऊँचा उठने, आगे बढ़ने का साहस उत्पन्न होता है ।।
शाम्भवी का वाहन वृषभ है ।। शिव को अपनी प्रकृति के अनुरूप सभी प्राणियों में यही भाया है ।। वृषभ बलिष्ठ भी होता है और परिश्रमी भी ।। सौम्य भी होता है और सहिष्णु भी ।। उसकी शक्ति सृजनात्मक प्रयोजनों में लगी रहती है ।। समर्थ होते हुए भी वह अपनी क्षमता को पूरी तरह सृजन प्रयोजनों में लगाये रहता है ।।
ध्वंस में उसकी शक्ति प्रायः नहीं ही प्रयुक्त होती ।। वृषभ श्रम, साहस, धैर्य, एवं सौजन्य का प्रतीक है ।। इस गुण की जहाँ जितनी मात्रा होगी वहाँ उतना ही अधिक स्नेह, सहयोग शाम्भवी का बरसेगा ।। इन सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए शाम्भवी की उपासना की जाती है ।।
शाम्भवी के मस्तिष्क के मध्य में तीसरा नेत्र है ।। तीसरा नेत्र अर्थात् शक्तियों के सन्दर्भ में उसे दूरदर्शन, परोक्ष दर्शन, भविष्य दर्शन आदि का केन्द्र संस्थान माना जाता है ।। यही तत्त्वदर्शियों की बिन्दु- साधना का लक्ष्य आज्ञाचक्र है ।। इसी के खुलने से अशुभों और अनिष्टों को परास्त किया जा सकता है ।।
भगवान शंकर ने इसी तृतीय नेत्र को खोलकर कामदेव को भस्म किया था ।। दमयंती ने इसी को खोल कर व्याध को भस्म किया था ।। यह आज्ञाचक्र में सन्निहित शाप क्षमता का परिचय है ।। दूसरी व्याख्या यह है कि तृतीय नेत्र- आज्ञा चक्र के जागरण से उस विवेक शीलता का विकास होता है जो कषाय- कल्मषों की हानियों को स्पष्ट रूप से दिखा सके ।।
सामान्य मनुष्य प्रत्यक्ष लाभ के लिए ही भविष्य को नष्ट करते रहते हैं, पर जागृत विवेक सदा दूरगामी परिणामों को ही देखता है और तदनुरूप वर्तमान की गतिविधियों का निर्धारण – करता है ।। इसी रीति- नीति के सहारे सामान्य मनुष्यों को असामान्य एवं महामानव बनने का अवसर मिलता है ।।
शाम्भवी की उपासना में तीसरा ज्ञान- चक्षु खुलता है और उसी से अर्जुन की तरह आत्म दर्शन – ब्रह्मदर्शन का लाभ मिलता है ।। वह सूझ पड़ता है, जो सामान्य लोगों की कल्पना एवं प्रकृति से सर्वथा बाहर होता है ।।
संक्षेप में शाम्भवी के स्वरूप, वाहन, आयुध आदि का तात्त्विक विवेचन इस तरह है
शाम्भवी के एक मुख, सिर पर गंगा एवं द्वितीया का चन्द्रमा जो सद्ज्ञान की धारा और विकासमान शान्त मस्तिष्क का प्रतीक है ।।
चार हाथों में त्रिशूल- तीन शत्रुओं (वासना, तृष्णा, अहंकार) को नष्ट करने का प्रतीक, डमरू- शिवत्व का उद्घोष, कमण्डलु- पात्रता विकास तथा आशीर्वाद मुद्रा- श्रेष्ठ पुरुषों- देवताओं से लेकर पिछड़े लोगों- प्रेत तक के लिए मार्गदर्शन का आश्वासन है ।।

देव माता


‘रे’ वर्णस्य च देवी तु देवमाताऽथ देवता ।।
इन्द्रो बीजं च ‘लृं’ अस्य भृगुः स ऋषिरुत्तमः॥
यन्त्रं देवेशयन्त्रं च देवयानी तथैव च ।।
दिव्या भूती फलं सन्ति देवत्वं सच्चरित्रता॥
अर्थात – ‘रे’ अक्षर की देवी- ‘देवमाता’, देवता- ‘इन्द्र’, बीज- ‘लृं’, ऋषि- ‘भृगु’, यन्त्र, विभूति- ‘दिव्या एवं देवयानी’ तथा प्रतिफल- ‘देवत्व व सच्चरित्रता’ हैं ।।
गायत्री का एक नाम ‘देवमाता ” भी है ।।
देव माता इसलिए कि उसकी गोद में बैठने वाला- पयपान करने वाला- आँचल पकड़ने वाला अपने में देवत्व बढ़ाता है और आत्मोत्सर्ग के क्षेत्र में क्रमिक विकास करते हुए इसी धरती पर विचरण करने वाले देव- मानवों की पंक्ति में जा खड़ा होता है ।।
गायत्री मन्त्र के २४ अक्षरों में जो शिक्षायें भरी पड़ी हैं वे सभी ऐसी हैं कि उनका चिन्तन मनन करने वाले की चेतना में अभिनव जागृति उत्पन्न होती है और अन्तःकरण यह स्वीकार करता है कि मानव जीवन की सार्थकता एवं सफलता देवत्व की सतवृत्तियाँ अपनाने में है ।।
अज्ञानान्धकार में भटकने वाले मोह- ममता की सड़ी कीचड़ में फंसे रहते हैं और रोते- कलपते जिन्दगी के दिन पूरा करते हैं ।। किन्तु गायत्री का आलोक अन्तराल में पहुँचते ही व्यक्ति सुषुप्ति से विरत होकर जागृति में प्रवेश करता है ।।
स्वार्थ को संयत करके परमार्थ प्रयोजनों में रस लेना और उस दिशा में बढ़ चलने के लिए साहस जुटाना, यही है मनुष्य शरीर में देवत्व का अवतरण, दैवी सम्पदा से जितनी मात्रा में सुसम्पन्न बनता है, यह उसी अनुपात से इसी जीवन में स्वर्गीय सुख- शान्ति का अनुभव करता है ।। उसके व्यक्तित्व का स्तर समुन्नत भी रहता है और सुसंस्कृत भी ।।
देवात्मा शब्द से ऐसे ही लोगों को सम्मानित किया जाता है ।। और से स्वयं ऊँचे उठते, आगे बढ़ते हैं और अपने साथ- साथ अनेकों को उठाते आगे बढ़ाते हैं ।। चन्दन वृक्ष की तरह उनके अस्तित्व से, सारा वातावरण महकता है और सम्पर्क में आने वाले अन्य झाड़- झंखाड़ों को भी सुगन्धित होने का सौभाग्य मिलता है ।।
गायत्री उपासना का प्रधान प्रतिफल देवत्व का सम्वर्धन है ।। साधक का अन्तरंग और बहिरंग देवोपम बनता चला जाता है ।। एक- एक करके दुष्प्रवृत्तियाँ छूटती हैं और प्रगति हर कदम पर सत्प्रवृत्तियों की उपलब्धि होती है ।।
गुण- कर्म -स्वभाव में गहराई तक घुसे हुए कषाय- कल्मष एक- एक करके स्वयं पतझड़ के पत्तों की तरह गिरते- झड़ते चले जाते हैं ।। उनके स्थान पर बसन्त के अभिनव पत्र पल्लवों की तरह मानवोचित श्रेष्ठता बढ़ती चली जाती है ।।
देवता देने वाले को कहते हैं ।। गायत्री उपासना सच्चे अर्थो में की जा सके तो देवत्व की मात्रा बढ़ेगी ही ।। देवता के दो गुण हैं- व्यक्तित्व की दृष्टि से उत्कृष्ट और आचरण की दृष्टि से आदर्श ।। ऐसे लोग हर घड़ी अपने प्रत्यक्ष और परोक्ष अनुदानों से सतयुगी वातावरण उत्पन्न करते चले जाते है ।।
देवता सदा युवा रहते हैं ।। मानसिक बुढ़ापा उन्हें कभी नहीं आता ।। प्रसन्नता उनके चेहरे पर छाई रहती है ।। सन्तोष की नींद सोते है, आशा भरी उमंग में तैरते हैं ।। किन्हीं भी परिस्थितियों में उन्हें खिन्न, उद्विग्न, निराश एवं असंतुलित नहीं देखा जाता ।।
यह विशेषताएँ जिनमें हों उन्हें देव- मानव कहा जा सकता है ।। देवता स्वर्ग में रहते हैं ।। चिन्तन की उत्कृष्टता, विधेयात्मक चिन्तन में उत्साह, आनन्द और सन्तोष के तीनों ही तत्त्व घुले हुए हैं ।। देवता आप्त काम होते हैं ।।
कल्प वृक्ष उनकी सभी कामनाओं को पूरा करता है ।। यह स्थिति उन सभी को प्राप्त हो सकती है जो निर्वाह के लिए जीवन- यापन की न्यूनतम आवश्यकता पूरी हो जाना भर पर्याप्त मानते हैं और अपनी महत्त्वाकाँक्षाएँ सदुद्देश्यों में नियोजित रखते हैं ।। वासना, तृष्णा और अहंता ही अतृप्त रहते हैं ।।
सद्भावनाओं को चरितार्थ करने में तो हर क्षण अवसर ही अवसर है ।। देवत्व मनःस्थिति में उतरता है ।। फलतः परिस्थितियों को स्वर्गीय सन्तोषजनक बनने में देर नहीं लगती ।। देव माता गायत्री साधक को इसी उच्च भूमिका में घसीट ले जाती है ।।
देवमाता के स्वरूप का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस प्रकार से है-
देवमाता के एक मुख, दो हाथ- सहज मातृभाव युक्त छवि ।। गोद में बालक से देवत्व के विकास का, आशिर्वाद मुद्रा से सभी को अनुदान देने की उदारता का बोध है ।। आसन व्यवस्था पीठ- व्यवस्था की क्षमता की प्रतीक है ।

वेदमाता


वस्य वणर्स्य देवी तु वेदमाताऽथ देवता ।।
आदित्यो बीजं ‘ओं’ एवं ऋषिव्यार्सोऽथयन्त्रकम् ॥
विद्या सन्ति च भूती द्वे स्मृतिविद्ये क्रमात्तथा ।।
अस्य प्रतिफलं दिव्यस्फुरणं ज्ञानमुत्तमम्॥
अर्थात – ‘व’ अक्षर की देवी- ‘वेदमाता’, देवता- ‘आदित्य’, बीज- ‘ओं’, ऋषि- ‘वेदव्यास’, यन्त्र- ‘विद्यायन्त्रम्’, विभूति- ‘स्मृति एवं विद्या’ तथा प्रतिफल- ‘दिव्य स्फुरणा व सद्ज्ञान’ है ।।
गायत्री को वेदमाता इसलिए कहा गया कि उसके २४ अक्षरों की व्याख्या के लिए चारों वेद बने ।। ब्रह्माजी को आकाशवाणी द्वारा गायत्री मन्त्र की ब्रह्म दीक्षा मिली ।। उन्हें अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए सामर्थ्य, ज्ञान और विज्ञान की शक्ति और साधनों की आवश्यकता पड़ी ।।
इसके लिए अभीष्ट क्षमता प्राप्त करने के लिए उन्होंने गायत्री का तप किया ।। तप- बल से सृष्टि बनाई ।। सृष्टि के सम्पर्क, उपयोग एवं रहस्य से लाभान्वित होने की एक सुनियोजित विधि- व्यवस्था बनाई ।। उसका नाम वेद रखा ।।
वेद की संरचना की मनःस्थिति और परिस्थिति उत्पन्न करना गायत्री महाशक्ति के सहारे ही उपलब्ध हो सका ।। इसलिए उस आद्यशक्ति का नाम ‘वेदमाता’ रखा गया ।।
वेद सुविस्तृत हैं ।। उसे जन साधारण के लिए समझने योग्य बनाने के लिए और भी अधिक विस्तार की आवश्यकता पड़ी ।। पुराण- कथा के अनुसार ब्रह्मा जी ने चार मुखों से गायत्री के चार चरणों की व्याख्या करके चार वेद बनाये ।।
”ॐ भूभुर्वः” के शीर्ष भाग की व्याख्या से ‘ऋग्वेद’ बना ।। ‘तत्सवितुर्वेण्यम ‘ का रहस्योद्घाटन यजुर्वेद में है ।। ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ का तत्त्वज्ञान विमर्श ‘सामवेद में है ।’ ‘धियो योनः प्रचोदयात्’ की प्रेरणाओं और शक्तियों का रहस्य ‘अथर्ववेद ‘ में भरा पड़ा है ।।
विशालकाय वृक्ष की सारी सत्ता छोटे से बीज में सन्निहित रहती है ।। परिपूर्ण मनुष्य की समग्र सत्ता छोटे से शुक्राणु में समाविष्ट देखी जा सकती है ।। विशालकाय सौरमण्डल के समस्त तत्त्व और क्रिया कलाप परमाणु के नगण्य से घटक में भरे पड़े हैं ।।
ठीक इसी प्रकार संसार में फैले पड़े सुविस्तृत ज्ञान- विज्ञान का समस्त परिकर वेदों में विद्यमान है, और उन वेदों का सारतत्त्व गायत्री मन्त्र में सार रूप में भरा हुआ है ।। इस लिए गायत्री को ज्ञान- विज्ञान के अधिष्ठात्री वेद वाङ्मय की जन्मदात्री कहा जाता है ।। शास्त्रों में असंख्य स्थानों पर उसे ‘वेदमाता’ कहा गया है ।।
गायत्री मन्त्र का अवगाहन करने से वह ब्रह्मज्ञान साधक को सरलता पूर्वक उपलब्ध होता है, जिसको हृदयंगम कराने के लिए वेद की संरचना हुई है ।। गायत्री का माहात्म्य वर्णन करते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य ने लिखा है- ‘गायत्री विद्या’ का आश्रय लेने वाला वेदज्ञान का फल प्राप्त करता है ।।
गायत्री के अन्तः करण में वे स्फुरणायें अनायास ही उठती हैं, जिनके लिए वेद विद्या का परायण किया जाता है ।।
वेद ज्ञान और विज्ञान दोनों के भण्डार हैं ।। ऋषिओं के प्रेरणाप्रद अर्थ भी हैं और उनके शब्द गुच्छकों में रहस्यमय शक्ति के अदृश्य भंडार भी ।। वेद में विज्ञान भी भरा पड़ा है ।।
स्वर- शास्त्र के अनुसार इन ऋचाओं का निर्धारित स्वर- विज्ञान के अनुसार पाठ, उच्चारण करने से साधक के अन्तराल का स्तर इतना ऊँचा उठ जाता है कि उस पर दिव्य प्रेरणा उतर सकें ।। उसके व्यक्तित्व में ऐसा ओजस् ,तेजस् एवं वर्चस् प्रकट होता है, जिसके सहारे महान् कार्य कर सकने योग्य शौर्य — साहस का परिचय दे सकें ।।
वातावरण में उपयुक्त प्रवाह, परिवर्तन संभव कर सकने के रहस्य वेद मन्त्रों में विद्यमान हैं ।। मन्त्रों के प्रचण्ड प्रवाह का वर्णन शास्त्रों में मिलता है ।। इस रहस्यमय प्रक्रिया को वेदमाता की परिधि में सम्मिलित समझा जाना चाहिए ।।
वेद ज्ञान, दूरदर्शी दिव्य दृष्टि को कहते हैं ।। इसे अपनाने वाले का मस्तिष्क निश्चित रूप से उज्ज्वल होता है ।। चार वेद, चार मंडल मात्र नहीं हैं ।। उस ज्ञान का विस्तार करने के कारण ब्रह्मा जी के चार मुख हुए ।। उनकी वैखरी, मध्यमा, परा, पश्यन्ति- चारों वाणी समस्त विश्व को दिशा देने में समर्थ हुई ।।
गायत्री का अवगाहन करने वाले चारों ऋषि- सनक, सनन्दन, सनातन, सनत् कुमार वेद भगवान् के प्रत्यक्ष अवतार कहलाये ।। चार वर्ण, चार आश्रम की परम्परा वेदों की आचार पद्धति है ।।
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय जिसे पाकर मनुष्य कृतकृत्य बनता है, वह वेद ज्ञान है- कामधेनु के चार थन- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की चारों विभूतियों का पयपान करते हैं ।। साधन चतुष्टय में प्रवृत्ति वेदमाता की चतुर्विध दिव्य प्रेरणा ही समझी जा सकती है ।।
वेदमाता की साधना साधक को चार वेदों का आलंबन प्रदान करती और उसे सच्चे अर्थ में वेदवेत्ता, ब्रह्म ज्ञानी बनाती है, तत्त्वज्ञान, सद्ज्ञान, आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न करती है ।।
संक्षेप में वेदमाता के स्वरूप, वाहन आदि का विवेचन इस तरह से हैः-
वेदमाता के एक मुख, चार हाथों में चार वेद है ।। यह एक ब्राह्मी चेतना से निस्सृत ज्ञान की चार धाराओं का बोध कराता है ।। कमल आसन- सहस्रार कमल में भरी हुई अनन्त पंखुड़ियों- परत का प्रतीक है ।।

विश्वमाता


विश्वमाता ‘णि’ देवी सा विश्वकमार् च देवता ।।
बीजं ‘स्रीं’ यन्त्रमस्यैवं मातृयन्त्रमृषिश्च सः॥
अङ्गिरा भूतिके ध्येया विराजा सन्ति वै क्रमात् ।।
सहयोगस्य संसिद्धिविर्राटानुभवः फलम् ॥
अर्थात – ‘णि’ अक्षर की देवी- ‘विश्वमाता’, देवता- ‘विश्वकर्मा’, बीज ‘श्रीं’, यन्त्र- मातृयन्त्रम्, ऋषि- ‘अंगिरा’, विभूति- ‘विराट एवं ध्येय’ और प्रतिफल- ‘विराटानुभूति एवं सहयोग सिद्धि’ हैं ।।
गायत्री का एक नाम विश्वमाता है ।। माता को अपनी सन्तानें प्राणप्रिय होती हैं ।। सभी को एकता के सूत्र में बँधे और समग्र रूप से सुखी समुन्नत देखना चाहती है ।। विश्वमाता गायत्री की प्रसन्नता भी इसी में है कि मनुष्य मिलजुल कर रहें ।। समता बरतें और आत्मीयता भरा सद्व्यवहार अपनाकर समग्र सुख- शान्ति का वातावरण बनायें ।।
मनुष्यों और अन्य प्राणियों के बीच भी सहृदयता भरा व्यवहार रहे ।।
विश्व भर में सतयुगी वातावरण बनायें रहने में अतीत की सांस्कृतिक गरिमा एवं भावभरी सद्भावना ही निमित्त कारण थी ।।
अगले दिनों विश्वमाता का वात्सल्य फिर सक्रिय होगा ।। वे अपनी विश्व वाटिका के सभी घटकों को फिर से सुसंस्कृत, सुव्यवस्थित, एवं समुन्नत बनाने में प्रखरता भरी अवतार- भूमिका सम्पन्न करेंगी ।। प्रज्ञावतार के रूप में विश्व के नव निर्माण का प्रस्तुत प्रयास उस महाशक्ति के वात्सल्य का सामयिक उभार समझा जा सकता है ।।
अगले दिनों ”वसुधैव कुटुम्बकम्’ का आदर्श सर्वमान्य होगा ।। एकता, ममता, समता और शुचिता के चार आदर्शों के अनुरूप व्यक्ति एवं समाज की रीति- नीति नये सिरे से गढ़ी जायेगी ।। एक भाषा, एक धर्म, एक राष्ट्र एक संस्कृति का निर्माण , जाति, लिंग और धर्म के आधार पर बरती जाने वाली असमानता का उन्मूलन, एवं एकता और समता के सिद्धान्त प्राचीन काल की तरह अगले दिनों भी सर्वमान्य होंगे ।।
शुचिता अर्थात जीवन क्रम में सर्वतोमुखी शालीनता का समावेश- ममता अर्थात आत्मीयता एवं सहकारिता भरा सामाजिक प्रचलन ।। प्राचीन काल की तरह अगले दिनों भी ऐसी ही मनःस्थिति एवं परिस्थिति बनाने के लिए विश्वमाता की सनातन भूमिका इन दिनों विशेष रूप से सक्रिय हो रही है ।।
मस्तिष्क पर शिखा के रूप में विवेक की ध्वजा फहराई जाती है ।। शरीर को कर्तव्य- बन्धनों में बाँधने के लिए कन्धे पर यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है ।। यह दोनों ही गायत्री की प्रतीक प्रतिमा हैं ।।
भगवान् का विराट् रूप दर्शन अनेक भक्तों को अनेक बार अनेक रूपों में होता है ।। विराट् ब्रह्म के तत्व दर्शन का व्यवहारिक रूप है- विश्व मानव- विश्वबन्धुत्व, विश्व- परिवार, विश्व- भावना, विश्व- संवेदना ।। इसमें व्यक्तिवाद मिटता है और समूहवाद उभरता है ।। यही प्रभु समर्पण है ।।
संकीर्ण स्वार्थपरता के बन्धनों से मुक्त होकर विराट् के साथ एकात्मता स्थापित कर लेना ही परम लक्ष्य माना गया है ।। आत्म चिन्तन, ब्रह्म चिन्तन, योगाभ्यास, धर्मानुष्ठान आदि के साधनात्मक उपचार इसी निमित्त किये जाते है ।।
जन- जीवन में इन आस्थाओं और परम्पराओं का समावेश ही व्यक्ति में देवत्व के उदय की मनःस्थिति और धरती पर सुख- शान्ति की स्वर्गीय परिस्थिति का कारण बनता है ।। विश्वमाता गायत्री की प्रवृत्ति प्रेरणा यही है ।।
गायत्री महाशक्ति को विश्वमाता कहते हैं ।। उसके अंचल में बैठने वाले में पारिवारिक उदात्त भावना का विकास होता है ।। क्षुद्रता के भव बन्धनों से मुक्ति- संकीर्णता के नरक से निवृत्ति- यह ही अनुदान विश्वमाता की समीपता एवं अनुकम्पा के हैं, जिन्हें हर सच्चा साधक अपने में उमँगता बढ़ता देखता है ।।
विश्वमाता के स्वरूप व आसन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस तरह है-
विश्वमाता के एक मुख, चारों हाथों में- शंख से हर प्राणी को ममता भरे अनुदान देने का उद्घोष, कमण्डलु से स्नेह भरी समता का, उठी हुई उँगली से एकता का निर्देश तथा आशीर्वाद मुद्रा से अनुदान की उदारता का बोध ।। आसन भूमण्डल अर्थात समस्त विश्व कार्य क्षेत्र है ।।

मन्दाकिनी


‘भ’ वणर्स्य देवीं तु मता मन्दाकिनी वसुः ।।
देवता बीजं ‘उं’ चैव गौतमोऽसावृषिस्तथा॥
निमर्ला यन्त्रमेवं च निमर्ला विरजे पुनः ।।
भूती सन्ति फलं चैव निमार्ल्यं पापनाशनम्॥
अर्थात – ‘भ’ अक्षर की देवी- ‘मन्दाकिनी’, देवता- ‘वसु’, बीज- ‘उं’, ऋषि- ‘गौतम’, यन्त्र- निर्मालायन्त्रम, विभूति- निर्मला एवं विरजा’ और प्रतिफल- निर्मलता व पापनाश’ हैं ।।
दृश्यमान गंगा और अदृश्य गायत्री की समता मानी जाती है ।। गायत्री की एक शक्ति का नाम मन्दाकिनी भी है ।। गंगा पवित्रता प्रदान करती है, पापकर्मों से छुटकारा दिलाती है ।। गायत्री से अन्तःकरण पवित्र होता है, कषाय कल्मषों के संस्कारों से त्राण मिलता है ।। गंगा और गायत्री दोनों की ही जन्म- जयन्ती एक है- ज्येष्ठ शुक्ल दशमी ।। दोनों को एक ही तथ्य का स्थूल एवं सूक्ष्म प्रतीक माना जाता है ।।
गंगा का अवतरण भगीरथ के तप से संभव हुआ ।। गायत्री के अवतरण में यही प्रयत्न ब्रह्मा जी को करना पड़ा ।। मनुष्य जीवन में गायत्री की दिव्य धारा का अनुग्रह उतारने के लिए तपस्वी- जीवन बिताने की -तपश्चर्या सहित साधना करने की आवश्यकता पड़ती है ।। गायत्री के द्रष्टा ऋषि- विश्वामित्र हैं ।।
उन्होंने भी तपश्चर्या के माध्यम से इस गौरवास्पद पद को पाया था ।। विश्वामित्र ने गायत्री महाशक्ति का अपना उपार्जन राम- लक्ष्मण को हस्तान्तरित किया था- बला और अतिबला विद्याओं को सिखाया था ।। इसी से वे इतने महान् पुरुषार्थ करने में समर्थ हुए ।। बला और अतिबला गायत्री- सावित्री के ही नाम हैं ।।
गंगा शरीर को पवित्र करती है, गायत्री आत्मा को ।। गंगा मृतकों को तारती है, गायत्री जीवितों को, गंगा- स्नान से पाप धुलते हैं, गायत्री से पाप प्रवृत्ति ही निर्मूल होती है ।। गायत्री उपासना के लिए गंगातट की अधिक महत्ता बतलाई गई है ।। दोनों का समन्वय गंगा- यमुना के संगम की तरह अधिक प्रभावोत्पादक होता है ।।
सप्त ऋषियों ने गायत्री साधना द्वारा परम सिद्धि पाने के लिए उपयुक्त स्थान गंगा तट ही चुना था और वहीं दीर्घकालीन तपश्चर्या की थी ।। गायत्री के एक हाथ में जल भरा कमण्डलु है ।। यह अमृत जल- गंगा जल ही है ।। उच्चस्तरीय गायत्री साधना करने वाले प्रायः गंगा स्नान- गंगा जल पान- गंगातट का सान्निध्य, जैसे सुयोग तलाश करते हैं ।।
भक्त- गाथा में रैदास की कठौती में गंगा के उमगने की कथा आती है ।। अनुसूइया ने चित्रकूट के निकट तप करके मन्दाकिनी को धरती पर उतारा था ।। गायत्री उपासना से साधक का अन्तःकरण गंगोत्री- गोमुख जैसा बन जाता है और उसमें से प्रज्ञा की निर्झरिणी प्रवाहित होने लगती है ।।
गायत्री की अनेक धाराओं में एक मन्दाकिनी है ।। उसका अवगाहन छापों के प्रायश्चित एवं पवित्रता संवर्धन के लिए किया जाता है ।।
मन्दाकिनी के स्वरूप, वाहन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-
मन्दाकिनी के एक मुख, चार हाथ हैं, उनमें कमल से सौम्यता, जल पात्र से दिव्य रस, पुस्तक से ज्ञान प्रवाह तथा माला से सात्त्विक- पवित्रता का बोध होता है ।। वाहन- मगर को चीरकर चलने की असाधारण क्षमता का प्रतीक है ।।

ऋतम्भरा__

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ऋतम्भरा च ‘यं’ देवी विद्यते देवता पुनः ।।
हिरण्यगभोर् बीजं ‘ऋं’ भरद्वाजो महानृषिः॥
ऋतं यन्त्रं विभूती च सत्या सा सुमुखी तथा ।।
न्यायःच स्थिरप्रज्ञत्वं फलं सन्ति यथाक्रमम्॥
अर्थात – ‘यं’ अक्षर की देवी- ‘ऋतम्भरा’, देवता- ‘हिरण्यगर्भ’, बीज एवं सुमुखी’ तथा प्रतिफल- ‘स्थिरप्रज्ञता व न्याय’ हैं ।।
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ऋतधामा____
टिप्पणी : पुराणों में इन्द्र, मनु एवं व्यास को ऋतधामा नाम दिया गया है । वैदिक साहित्य में ऋत का धाम कौन सा है, इसकी व्याख्या मात्र उपलब्ध होती है । वहां इन्द्र,मनु अथवा व्यास का नाम नहीं है ।
जैमिनीय ब्राह्मण ३.३८४ के अनुसार भू, भुव: और स्व: लोक में भुव: लोक ऋत का धाम है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३४७ के अनुसार ऋत का धाम वायु का लोक है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१२१ तथा तैत्तिरीय संहिता ३.३.५.४ के अनुसार यह अन्तरिक्ष लोक है ।
तैत्तिरीय संहिता ४.२.७.२ में अग्नि के लिए ऋत के धाम से इष व ऊर्ज का सम्पादन किया जाता है । ऋग्वेद १.४३.९ में ऋत के धाम में सोम की प्रजाओं का उल्लेख आता है । इसके अतिरिक्त ऋग्वेद ४.७.७, ७.३६.५ तथा १०.१२४.३ में भी ऋत के धाम का उल्लेख आता है । अन्तरिक्ष मधु का स्थान है ।
ऋतध्वज___
टिप्पणी : ऋतध्वज के संदर्भ में वैदिक साहित्य में कोई प्रत्यक्ष उल्लेख उपलब्ध नहीं है । आप्टे के संस्कृत – अंग्रेजी कोश में रुद्र के ऋतध्वज नाम का उल्लेख है । यदि ऋत लोक को वायु का लोक माना जाए तो वायु लोक की चरम सीमा तृतीय नेत्र है । अतः इसे ऋतध्वज कहा जा सकता है ।
ऋग्वेद ५.४३.७, अथर्ववेद ६.३६.१, तैत्तिरीय संहिता १.५.११.१ तथा तैत्तिरीय आरण्यक ४.५.२ के आधार पर ऋतध्वज को घर्म भी कह सकते हैं । ऋतध्वज द्वारा शूकर रूप धारी पातालकेतु राक्षस को बाण से वेधन के प्रसंग के संदर्भ में, पौराणिक साहित्य में यज्ञ को यज्ञवराह / शूकर का रूप दिया जाता है । सायण भाष्य में ऋत का अर्थ स्थान – स्थान पर यज्ञ किया गया है ।
डा. फतहसिंह के अनुसार यज्ञ के कईं स्तर हैं । निचले स्तर पर, मर्त्य स्तर पर वरुण का यज्ञ चलता है । ऋतध्वज द्वारा पातालकेतु का पीछा करते हुए गर्त में प्रवेश करने से तात्पर्य अपने व्यक्तित्व के निचले कोशों मे, स्तरों में प्रवेश से हो सकता है ।
ऋतध्वज – पत्नी मदालसा, जिसे कुण्डला की सखी कहा गया है और जिसे ऋतध्वज गर्त में प्रवेश करने के पश्चात् पाता है, के सम्बन्ध में वैदिक साहित्य से कोई प्रत्यक्ष संकेत नहीं मिलता । परोक्ष संकेत बौधायन श्रौत सूत्र ६.१९, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ११.१.१० से इस प्रकार प्राप्त होता है कि अग्निष्टोम यज्ञ के प्रातःसवन में आग्नीध्र नामक ऋत्विज से पूछा जाता है कि आपः मद उत्पन्न करते हैं या नहीं ?
आग्नीध्र उत्तर देता है कि ‘ मदन्ति देवी अमृता ऋतावृध ।’ तब आग्नीध्र से कहा जाता है कि उन्हें ले आओ । तब आग्नीध्र मदन्ती नामक पात्र को छूकर, हिरण्य रखकर सोम का सिंचन करता है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १३.१३.८ में भी द्युलोक के यज्ञ द्वारा तथा पृथिवी में ऋत द्वारा वर्धन होने पर मोद का उल्लेख आता है ।
इन प्रसंगों में मदन्ती मदालसा का रूप हो सकता है । मदालसा के बारे में दूसरा परोक्ष संकेत ऋग्वेद १.१६१.९ से मिल सकता है जहां ऋभुगण ऋता को बोलते हुए चमसों / यज्ञपात्रों का निर्माण करते हैं । जैसा कि महाभारत में स्पष्ट किया गया है, ऋता सत्त्व के १८ गुणों से युक्त प्रकृति का नाम है । इसकी सहायता से ऋभुगण एक चमस के ४ चमस बना देते हैं । चार चमस मदालसा के ४ पुत्रों के संकेत हो सकते हैं।
ऋतम्भर___
टिप्पणी : ऋतम्भर राजा की धेनु ऋतम्भरा प्रज्ञा है, वह प्रज्ञा जिसके द्वारा यह ज्ञात हो जाए कि किस समय कौन सा कार्य करना है, त्रिकाल दृष्टि । जाबालि ऋषि उपनिषदों में सत्यकाम है जो जबाला का पुत्र है । सत्यकाम से गुरु ने पूछा कि वह किसका पुत्र है ? उसने उत्तर दिया कि मेरी माता कहती है कि उसने बहुत से ऋषियों की सेवा की है ।
पता नहीं वह किसका पुत्र है । ऋषि का अर्थ ज्ञानवृत्ति है । अज का अर्थ है जिसका जन्म नहीं , जो अजात है । जबाला के ज का अर्थ है वह सत्य जो जायमान है, जन्म ले सकता है । बाला का अर्थ है जिसने जायमान सत्य को बल दिया हो, उसे प्रज्वलित कर दिया हो । ऐसी जबाला ने सत्य को, ज्ञान को विभिन्न ऋषियों से एकत्र किया है ।
तभी सत्य उत्पन्न हो सकता है । उसी का पुत्र सत्यकाम है । वह जाबालि ऋषि है , वही ऋतम्भर को सत्य बता सकता है । जंगल से व्याघ्र का आना ऋतंभरा प्रज्ञा में अहंकार का उत्पन्न होना है । मैं प्रज्ञावान हूं, ऐसा अहंकार ऋतम्भरा प्रज्ञा रूपी गौ को खा जाता है ।
इस अहंकार को नष्ट करने का उपाय अयोध्यापति ऋतुपर्ण बताता है – रामभक्ति । इससे अहंकार नष्ट हो जाएगा । फिर राजा गौ की सेवा करे तो सन्तान उत्पन्न होगी । चित्तवृत्तियाँ जो अन्तर्मुखी हैं, गौ कहलाती हैं । – फतहसिंह
वैदिक साहित्य में केवल ऋग्वेद ५.५९.१ व ९.९७.२४ में ही ऋतम्भर शब्द का उल्लेख आया है । इस ऋचा में द्युलोक व पृथिवी से ऋत के भरण के लिए मरुतों की अर्चना की जाती है । पुराणों में ऋतम्भर की कथा वैदिक साहित्य की किस ग्रन्थि को सुलझाती है, यह अन्वेषणीय है । ऋतम्भर को सत्यवान् रूपी पुत्र प्राप्ति की चिन्ता है जिसके लिए वह जाबालि ऋषि के पास जाता है ।
उपनिषदों में जाबालि का नाम सत्यकाम जाबालि आया है जो जबाला का पुत्र है । जबाला / जभारा ऋषियों से सत्य का भरण / सम्पादन करती है । ऋतम्भर द्वारा गौ की सेवा के संदर्भ में, यह कहा जा सकता है कि अश्व का सम्बन्ध सत्य के साथ होगा और गौ का ऋत के साथ ।
ऋग्वेद १.८४.१६, ३.७.२, ३.५६.२, ४.४०.५, ५.४५.७ व ८, ७.३६.१, ९.६६.१२, ९.७२.६, ९.९४.२, १०.१००.१०, १०.१०८.११, अथर्ववेद १०.१०.३३, २०.१७.९, तैत्तिरीय संहिता ४.२.११.३ में भी ऋत के साथ गौ का उल्लेख आया है । इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद १.७३.६, १.१४१.१, १.१५३.३, ४.२३.१०, ९.७०.१, ९.७७.१, अथर्ववेद ७.१.१ में ऋत के साथ धेनु या धेना शब्द प्रकट हुआ है ।
ऋग्वेद ४.३.९ व ४.२३.९ में उल्लेख आता है कि ऋत से ऋत की स्तुति की जाती है । जिस प्रकार गौ कच्चा खाकर उसे मधु समान दुग्ध में रूपान्तरित कर देती है , ऐसे ही ऋत को पकाकर उसे मधु का रूप प्रदान करना है । यह मधु रूप ही सत्य का रूप हो सकता है जिसकी ऋतम्भर को अभिलाषा है । आगे की कथा का तात्पर्य अन्वेषणीय है ।
अथर्ववेद १०.८.३१ तथा शतपथ ब्राह्मण ६.४.४.१० के आधार पर एक प्रबल संभावना यह बनती है कि ऋत भक्ति के अज और अवि प्रकारों से सम्बन्धित है । इससे आगे की भक्तियां गौ और अश्व होती हैं । अतः पुराणों में ऋतम्भर की कथा के माध्यम से इस परोक्ष तथ्य को स्पष्ट किया गया है ।
ऋतम्भरा______
टिप्पणी : केवल पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद ४८ में ऋतम्भरा प्रज्ञा का उल्लेख आया है । स्वामी ओमानन्द कृत पातञ्जल योग प्रदीप के अध्ययन से प्रतीत होता है कि ऋतम्भरा प्रज्ञा सविकल्प समाधि की स्थिति है । इससे उच्चतर स्थिति निर्विकल्प समाधि है । निर्विकल्प समाधि के पश्चात् व्युत्थान हो तो इस प्रकार से हो कि समाधि से तारतम्य जुडा रहे , यह अभीष्ट है । तब योगी पथ भ्रष्ट नहीं होता ।
ऋतवाक्______
टिप्पणी : ऋग्वेद १.१७९.२, १.१८५.१०, ३.३१.२१, ३.५५.३, ४.५.११, ४.६.५, ९.११३.२, ९.११३.४, १०.१२.१, १०.३५.८, १०.६१.१०, १०.११०.११, १०.१३८.२, १०.१७७.२, अथर्ववेद ७.१.१, १४.१.३१, १८.१.२९, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.८.५, जैमिनीय ब्राह्मण ३.१६०, ३.८९, ३.३६० आदि में ऋतवाक् के उल्लेख आए हैं ।
ऋग्वेद ४.२३.८ के अनुसार ऋत का श्लोक बधिर को भी सुनाई पडता है । सायण ने ऋत का अर्थ स्तोत्र भी किया है । अतः यह कहा जा सकता है कि ऋतवाक् सामञ्जस्य की कोई अवस्था है जिससे ऐतरेय आरण्यक के संकेतों के अनुसार सत्यवाक् रूपी पुष्प और फल उत्पन्न होते हैं । पुराणों में ऋतवाक् मुनि द्वारा रेवती के पातन की कथा का रहस्य अन्वेषणीय है ।
ऋता_____
टिप्पणी :ऋग्वेद १.४६.१४, १.६७.८, १.१६१.९, ६.१५.१४, ६.६७.४, ९.९७.३७, १०.१०.४, १०.१०६.५ में ऋता शब्द प्रकट हुआ है । ऋग्वेद में अन्य स्थानों पर ऋतावृध:, ऋतावाना, ऋतावरी आदि शब्द प्रकट हुए हैं जिनका पद पाठ ऋतऽवृध: , ऋतऽवाना, ऋतऽवरी आदि रूपों में किया गया है ।
वैदिक साहित्य में अन्य किसी स्थान पर ऋता की व्याख्या उपलब्ध नहीं होती । यह अन्वेषणीय है कि क्या ऋतम्भरा प्रज्ञा और ऋतध्वज – पत्नी मदालसा को ऋता से जोडा जा सकता है ? ऋग्वेद १.४६.१४ की ऋचा में ऋता का सायण भाष्य यज्ञगत हवियां किया गया है ।
समाधि से ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति होती है।___
समाधि का अर्थ है अपनी पूर्ण शक्ति कों केंद्रित कर जीवन रहस्य को समझने का यत्न करना , जो सत्य ज्ञान हो जाता है । यह समाधि दो प्रकार की है – सविचार और निर्विचार । सविचार समाधि से प्रकृति की सूक्ष्म बातों का ज्ञान होता है और निर्विचार समाधि का फल अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति है ।
ऐसा योगशास्त्र में लिखा है –
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ।।
सूक्ष्म विषयत्वं चालिङ्गपर्यवसायनम् ।।
ताः एवं सबीजः समाधिः ।।
निर्विचार वैशार्द्येSध्यात्म प्रसादः ।।
जब समाधि सफल होती है तो मनुष्य में एक विशेष प्रकार की बुद्धि उत्पन्न होती है , जिअको ऋतंभरा कहते हैं । इससे इन्द्रियों से जाने तथा अनुभवादि से प्राप्त हुए ज्ञान में भी विशेषता प्राप्त होती है।
इस ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्राप्त होने से एक नवीन प्रकार के संस्कार उत्पन्न होते हैं । ये संस्कार इन्द्रिय ज्ञान और अनुमानादि से उत्पन्न संस्कारों से भिन्न प्रकार के होते हैं । यह निर्वीज समाधि को उत्पन्न करने वाले हैं । निर्बीज का अर्थ है कि ये संस्कार साधारण संस्कारों की भांति सांसारिक कर्मों का बीज नहीं बन सकते ।
इसको इस प्रकार लिखा है –
ऋतम्भरा तत्र प्रजा ।
श्रुतानुमाप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।
तज्जः संस्कारोंSन्यसंस्कार प्रतिबन्धौ समाधिः ।
तस्यापि निरोधे सर्व्निरोधान्नि र्बीजः ।।
जिन मनुष्यों के संस्कार वही हैं जो इन श्रवणादि इन्द्रियों और अनुमान आदि प्रमाणों से प्राप्तं होते हैं , वे तो मूर्ति पूजन करते समय यह समझते हैं कि भगवान् उसमे ही हैं और वह पूजन से प्रसन्न हो रहा है । वे बेचारे भूल में फंसे यही समझते हैं कि उस पूजन से उनको ऋद्धि – सिद्धि तथा मोक्ष मिलने वाला है ।
परन्तु ऋतम्भरा प्रज्ञा वाला मनुष्य यह जानता है कि शिवलिंग एक पत्थर का टुकड़ा है । इस पर भी यदि वह उसका पूजन करता है इस कारण नहीं कि उससे भगवान प्रसन्न होता है , प्रत्युत इसलिए कि इससे आत्मोन्नति होती है ।

अजपा


‘र्गो’ देवीमजपामेवं देवतां मरुतं तथा ।।
बीजं ‘यं’ तमृषिं चास्य कथयन्ति पतञ्जलिम् ॥
यन्त्रं निरञ्जनां भूती सहजां च निरञ्जनाम् ।।
शान्तिं प्रतिफलं चास्य भयनाशं च सवर्तः॥
अर्थात्- ‘र्गो’ अक्षर की देवी- ‘अजपा’, देवता- ‘मरुत्’, बीज- ‘यं’, ऋषि- ‘पतञ्जलि’, यन्त्र- ‘निरंजनायन्त्रम्’, विभूति- ‘निरंजना एवं सहजा’, स्फूर्ति — ‘शांति एवं भयनाश’ हैं ।।
गायत्री साधना की एक ऐसी स्थिति है, जिसमें आत्मा का परमात्मा के साथ आदान- प्रदान का सिलसिला स्वयमेव चल पड़ता है और इस दिव्य मिलन के फलस्वरूप मिलने वाली उपलब्धियों का लाभ मिलने लगता है ।। उस स्थिति को अजपा कहते हैं ।।
‘अजपा’ गायत्री का साधनात्मक स्वरूप ‘सोऽहम् साधना’ इसे ‘हंस- योग’ भी कहते हैं ।। गायत्री का वाहन हंस है ।। यह हंस ‘सोऽहम्’ साधना के माध्यम से साधा जाने वाला हंस योग ही है ।। गायत्री शब्द का अर्थ है- प्राण का त्राण करने वाली ।। ‘गय’ प्राण को और ‘त्री’ त्राण करने वाले को कहते हैं ।। प्राण तत्त्व का विशिष्ट अवतरण प्राणायाम के माध्यम से होता है ।।
गायत्री- साधना में २४ प्राणायामों का विद्यान है ।। इन सबमें ‘सोऽहम्’ साधना को प्रधानता मिली है ।। यह अत्यन्त उच्चस्तरीय स्वसंचालित प्राणायाम ही है ।। सामान्य प्राणायामों में इच्छा शक्ति, विचार शक्ति एवं शारीरिक गतिविधियों का उपयोग होता है ।। सोऽहम् साधना में यह सारा काम आत्मा स्वयं कर लेती है ।। शरीर और मन के सहयोग की उसे आवश्यकता नहीं पड़ती ।।
श्वाँस जब शरीर में प्रवेश करता है तब ‘सो’ की सूक्ष्म ध्वनि होती है ।। जब श्वाँस बाहर निकलता है तो ‘हम’ की शब्दानुभूति होती है ।। ये ध्वनियाँ बहुत ही सूक्ष्म हैं ।। स्थूल कर्णेंन्द्रियाँ उन्हें नहीं सुन सकती ।। शब्द की तन्मात्रा तक पहुँचने वाली ध्यान- धारणा में ही उसकी अनुभूति होती है ।।
शान्त चित्त से एकाग्रता पूर्वक श्वाँस के भीतर जाते समय ‘सो’ को और बाहर निकलते ‘हम’ के शब्द प्रवाह को धारण करने पर कुछ समय बाद यह दिव्य ध्वनि अनायास ही अनुभव में आने लगती है ।। कृष्ण के वेणुनाद सुनने से जैसा आनन्द गोपियों को मिलता था, वैसी ही दिव्य अनुभूति इन्द्रियों को, उपत्यिकाओं को, इस ‘सोऽहम्’ ध्वनि प्रवाह को सुनने से होती है ।।
शब्द ब्रह्म- नाद ब्रह्म का उल्लेख शास्त्रों में होता है ।। मोटी विवेचना में सत्संग- प्रवचन को ‘शब्द’ और भक्ति भरे भाव संगीत को ‘नाद’ ब्रह्म कहते हैं ।। पर दिव्य भूमिका में ये दोनों ही शब्द ‘सोऽहम्’ साधना के लिए प्रयुक्त होते हैं ।। तपस्वी इसी को ‘अनाहत ध्वनि’ कहते हैं ।।
गायत्री का मूल उद्गम ‘ॐकार’ है ।। उसी का विस्तार गायत्री के २४ अक्षरों में हुआ है ।। इसी प्रकार नाद ब्रह्म का बीज ‘सोऽहम्’ है, उसी का विस्तार ‘नादयोग’ के साधनों में सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा घण्टा- घड़ियाल, मेघगर्जन, वंशी, मृदंग, कलरव आदि की अनेकानेक ध्वनियों में अनुभव होता है ।।
यह दिव्य ध्वनियाँ प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल से उठती हैं और उनके सुनने की क्षमता उत्पन्न हो जाने पर, उनके पीछे छिपे वे रहस्य प्रकट होने लगते हैं, जो विश्व की अविज्ञात गतिविधियों की जानकारी देकर साधक को सूक्ष्मदर्शी बना देती हैं ।।
सामान्य साधनायें शरीर और मन की सहायता से प्रयत्न पूर्वक करनी पड़ती हैं ।। पर ‘अजपा- गायत्री’ का आत्मा के साथ सीधा सम्बन्ध जुड़ जाने से साधना क्रम स्वसंचालित हो जाता है और अपनी धुरी पर स्वयमेव घूमने लगता है ।। अजपा साधना भी है और शक्ति भी ।।
सोऽहम् के ध्यान, अभ्यास को साधना कहते हैं ।। उसका आत्मा के साथ सीधा सम्बन्ध जुड़ जाने और गति चक्र के स्वयमेव घूमने लगने की स्थिति में वही एक शक्ति बन जाती है ।। इस शक्ति के सहारे साधक आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है ।। उसका उपयोग आत्म कल्याण और विश्व कल्याण के लिए महत्त्वपूर्ण क्षमताएँ सम्पादित करने में भी होता है ।।
अजपा में सन्निहित हंसयोग को ध्यान में रखते हुये गायत्री का वाहन हंस बताया गया है ।। जो इसे साधता है, उसका अन्तरंग नीर- क्षीर विवेक की क्षमता सम्पन्न दिव्यदर्शी बनता है ।। उसका बहिरंग मोती चुगने तथा कीड़े न खाने जैसा आदर्शवादी हो जाता है ।।
ऐसे ही चिन्तन में उत्कृष्टता और कर्तृत्व में आदर्शवादिता अपनाने वाले को राजहंस कहते हैं ।। ऊँचा उठने पर वे ही परमहंस बन जाते हैं ।। इस उच्चस्तरीय भूमिका तक पहुँचने में गायत्री की अजपा शक्ति का अनुग्रह असाधारण रहता है ।।
अजपा के स्वरूप, वाहन आदि का संक्षिप्त विवरण निम्न हैं ।।
अजपा के एक मुख है ।। अर्धनिमीलित नेत्र- अन्तर्दृष्टि के प्रतीक हैं ।।
चार हाथों में दो ध्यान मुद्रा में- अन्तःकरण की गहराइयों में जाने का, माला -सतत ईश स्मरण का तथा कमल निरभिमान- निर्मल भाव का प्रतीक है ।

ऋद्धि-सिद्धि

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ऋद्धिं ‘दे’ वणर्देवीं तु गणेशं देवतां तथा ।।
बीजं ‘गं’ च कणाद तं ऋषिमृद्धिं च यन्त्रकम् ॥
तुष्टिं भद्रां विभूती च कथयन्ति द्वयं पुनः ।।
प्रतिफलं गुणवत्तां तां तुष्टिं च सुखदायिनीम्॥
अर्थात – ‘दे’ अक्षर की देवी- ‘ऋद्धि’, देवता- गणेश, बीज- ‘गं’ ऋषि- ‘कणाद’, यन्त्र ‘ऋद्धियन्त्रम्,’ विभूति- ‘तुष्टा एवं भद्रा’ तथा प्रतिफल -‘तुष्टि एवं गुणवत्ता ” है ।।
सिद्धिं ‘व’ देवीं च क्षेत्रपालं च देवताम् ।।
बीजं’क्षं’ कथयन्त्येवं अगस्तयमृषिमस्य तु ॥
सिद्धिं यन्त्रं विभूती च सूक्ष्मां तां योगिनीं तथा ।।
फलं तन्मयतामाद्यं द्वितीयं कायर्कौशलम्॥
अर्थात – ‘व’ अक्षर की देवी- ‘सिद्धि’, देवता- ‘क्षेत्रपाल’, बीज ‘क्षं’, ऋषि- ‘अगस्त्य’, यन्त्र- ‘सिद्धियन्त्रम्’, विभूति- ‘सूक्ष्मा एवं योगिनी’ और प्रतिफल- ‘तन्मयता एवं कार्यकुशलता हैं ।।
गायत्री महाशक्ति की गरिमा, महत्ता, एवं प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, इसका उत्तर विभिन्न देवताओं के स्वरूप, वाहन, आयुध, स्वभाव आदि पर दृष्टि डालने से मिल जाता है ।। देवता और देवियों को गायत्री महाशक्ति का विशिष्ट प्रवाह ही समझा जा सकता है ।।
गायत्री के २४ देवताओं में एक गणेश भी है ।। गणेश अर्थात विवेक बुद्धि के देवता ।। जहाँ दूरदर्शी विवेक का बाहुल्य दिखाई पड़े, समझना चाहिए कि वहाँ गणेश की उपस्थिति और अनुकम्पा प्रत्यक्ष है ।। सद्ज्ञान ही गणेश है ।। गायत्री मन्त्र की मूल धारणा सद्ज्ञान ही है ।। अस्तु, प्रकारान्तर से गणेश को गायत्री की प्रमुख शक्ति धारा कहा जा सकता है ।।
गणेश के साथ दो दिव्य सहेली- सहचरी रहती हैं ।। एक का नाम ऋद्धि और दूसरी का सिद्धि है ।। ऋद्धि अर्थात आत्मिक विभूतियाँ ।। सिद्धि अर्थात सांसारिक सफलताएँ ।। विवेक की ये दो उपलब्धियाँ सहज स्वाभाविक हैं ।।
ब्रह्म के साथ जिस प्रकार गायत्री, सावित्री को दो सहचरी माना गया है, उसी प्रकार गणेश के साथ भी ऋद्धि और सिद्धि हैं ।। ऋद्धि आत्म बल और सिद्धि समृद्धि बल है ।। परब्रह्म की दो सहेलियाँ परा और अपरा प्रकृति हैं, उन्हीं के सहारे जड़- चेतन विश्व का गति चक्र घूमता है ।।
विवेक रूपी गणेश का स्वरूप निर्माण करते समय तत्त्वदर्शियों ने उसकी दो सहेलियों का भी चित्रण किया है ।। आत्म बल और भौतिक सफलताओं का सारा क्षेत्र विवेक पर आधारित है ।। इसी तथ्य को गणेश और उनकी सहचरी ऋद्घि- सिद्घि के रूप में प्रस्तुत किया गया है ।।
ऋद्धि अर्थात आत्मज्ञान- आत्मबल आत्म संतोष, अन्तरंग उल्लास, आत्म- विस्तार, सुसंस्कारिता एवं ऐश्वर्य ।। सिद्धि अर्थात प्रतिभा, स्फूर्ति , साहसिकता, समृद्धि, विद्या, समर्थता, सहयोग सम्पादन एवं वैभव ।। लगभग यही विशेषताएँ गायत्री और सावित्री की हैं ।। दोनों एक साथ जुड़ी हुई हैं ।। जहाँ ऋद्धि है वहाँ सिद्धि भी रहेगी ।।
गणेश पर दोनों को चँवर डुलाना पड़ता है ।। विवेकवान् आत्मिक और भौतिक दोनों दृष्टियों से सुसम्पन्न होते हैं ।। संक्षेप में गणेश के साथ अविच्छिन्न रूप में जुड़ी हुई ऋद्धि- सिद्धियों के चित्रण का यही तात्पर्य है ।।
गणेश के एक हाथ में अंकुश, दूसरे में मोदक हैं ।। अंकुश अर्थात अनुशासन- मोदक अर्थात सुख साधन ।। जो अनुशासन साधते हैं वे अभीष्ट साधन भी जुटा लेते हैं ।। गणेश से संबद्ध इन- दो उपकरणों का यही संकेत है ।। ऋद्धि अर्थात् आत्मिक उत्कृष्टता ।। सिद्धि अर्थात् भौतिक समर्थता ।।
मर्यादाओं का अंकुश मानने वाले और संयम साधने वाले, हर दृष्टि से समर्थ बनते हैं ।। उन्हें सुख- साधनों की- सुविद्या की- कमी नहीं रहती ।। उत्कृष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति सदा मुदित रहते हैं- प्रसन्नता बाँटते, बखेरते देखे जाते हैं ।। यही मोदक हैं जिससे हर घड़ी संतोष, आनन्द का रसास्वादन मिलता है ।।
विवेकवान का चुम्बकीय व्यक्तित्व दृश्य और अदृश्य जगत् से वे सब उपलब्धियाँ खींच लेता हैं, जो उसकी प्रगति एवं प्रसन्नता के लिए आवश्यक हैं ।।
ऋद्धि- सिद्धियों के सम्बन्ध में एक भ्रान्ति यह है कि यह कोई जादुई चमत्कार दिखाने में काम आने वाली विशेषताएँ हैं ।। आकाश में उड़ना, पानी पर चलना, अदृश्य हो जाना, रूप बदल लेना, कहीं से कुछ वस्तुएँ मँगा देना या उड़ा देना, भविष्य- कथन जैसी आश्चर्यजनक बातों को सिद्धि कहा जाता है ।।
यह जादुई खेल- मेल है, जो हाथ की सफाई, चालाकी या हिप्नोटिज्म जैसे उथले भावात्मक प्रयोगों से भी सम्पन्न किये जा सकते हैं ।। इन्हें दिखाने का उद्देश्य प्रायः लोगों को चमत्कृत करके अपने चंगुल में फँसा लेना एवं अनुचित लाभ उठाना ही होता है ।।
इसलिए ऐसे प्रदर्शनों की साधना का शास्त्रों में पग- पग पर मनाही की गई है ।। उनमें विशेषताएँ हों भी तो भी, उन्हें प्रदर्शन से रोका गया है ।। फिर जो हाथ की सफाई के चमत्कार दिखाते और उसकी संगति अध्यात्म सामर्थ्य से जोड़ते हैं, उन्हें तो हर दृष्टि से निन्दनीय कहा जा सकता है ।।
वास्तविक ऋद्धि यही है कि साधक अपने उत्कृष्ट व्यक्तित्व के सहारे आत्म संतोष, लोक- श्रद्धा एवं दैवी अनुकम्पा के विविध लाभ पाकर मनुष्यों के बीच देवताओं जैसी महानता प्रस्तुत करे और अपनी आदर्शवादी साहसिकता से जन- जन को प्रभावित करे ।।
वास्तविक सिद्धि यह है कि उपार्जन तो पर्वत जितना करे, पर अपने लिए औसत नागरिक जितना निर्वाह लेकर शेष को सत्प्रयोजनों के लिए उदारता पूर्वक समर्पित कर दे ।। ऐसे अनुकरणीय आदर्श उपस्थित कर सकना उच्च स्तर का चमत्कार ही है ।। जो इस मार्ग पर जितना आगे बढ़ सके, उसे उतना ही बड़ा सिद्ध पुरुष माना जा सकता है ।।
गायत्री का एक नाम ऋद्धि है दूसरा सिद्धि ।। प्रयत्न पूर्वक सत्प्रवृत्तियों को अपनाने वाले इन दोनों को उपलब्ध करते और हर दृष्टि से धन्य बनते हैं ।। सच्ची गायत्री उपासना का प्रतिफल भी ऋद्धियों और सिद्धियों के रूप में सामने आता है ।। गायत्री प्रत्यक्ष सिद्धि है ।। जिसके अन्तराल पर वह उतरती है उसे ऋद्धि- सिद्धियों से -विभूतियों और समृद्धियों से भरा−पूरा सफल जीवन बनाने का अवसर देती है ।।
संक्षेप में ऋद्धि एवं सिद्धि का तात्त्विक स्वरूप इस प्रकार है-
ऋद्धि के एक मुख, दो हाथ हैं ।। दायें में चँवर- विकारों का निवारण- प्रमुख ।। बायें में मोदक- भौतिक लाभ- गौण ।। खड़ी मुद्रा- स्वावलम्बी तत्परता की प्रतीक है ।।

सावित्री


‘स्य’ देवीं कथयन्त्येवं सावित्रीं देवतामथ ।।
सवितारं च बीजं ‘ज्ञं’ पुलस्त्यमृषिं पुनः॥
सावित्रीं यन्त्रमेतस्य कल्याणीष्टे विभूतिके ।।
साफल्यं ब्रह्मविद्यां च द्वयं प्रतिफलं तथा॥
अर्थात -‘स्य’ अक्षर की देवी- ‘सावित्री’, देवता — ‘ज्ञं’, ऋषि- ‘पुलस्त्य’, यन्त्र- ‘सावित्रीयन्त्रम्’, विभूति- ,’कल्याणी एवं इष्टा’ और प्रतिफल- ‘ब्रह्मविद्या एवं साफल्य’, हैं ।।
आदि शक्ति की दो धाराएँ हैं- (१) आत्मिकी (२) भौतिकी ।। आत्मिकी को गायत्री और भौतिकी को सावित्री कहते हैं ।। गायत्री एक मुखी है, उसे एकात्मवाद, अद्वैतवाद, आत्मवाद कह सकते हैं ।।
सावित्री पंचमुखी है ।। शरीर पाँच तत्त्वों से बना है ।। उनकी इन्द्रीयानुभूति पाँच तन्मात्राओं के सहारे शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श के रूप में होती है ।। चेतना का स्पन्दन पाँच प्राणों के सहारे चलता है ।। पाँच तत्त्व और पाँच प्राण मिलकर जिस जीव- सत्ता को चलाते हैं, उसकी अधिष्ठात्री सावित्री हैं ।। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ इसी जीवन चर्या का चक्र आगे घसीटती हैं ।।
सावित्री का स्वरूप वर्णन करते हुए बताया गया है-
सावित्री त्रिपदा ज्ञेया षटकुक्षिः पञ्चशीषर्का ।।
अग्निवणर्मुखा शुक्ला पुण्डरीकदलेक्षणा॥ (सूत संहिता- गायत्री विवरण)
”सावित्री तीन पाद, षटकुक्षि और पाँच मस्तक वाली है ।। वह अग्नि वर्ण की मुख वाली, शुभ्र और कमल नेत्रों वाली है ।”
दैविक, दैहिक और भौतिक इन तीनों क्षेत्रों में सावित्री का आधिपत्य होने के कारण उसे तीन पाद वाली कहा गया है ।।
कहते है कि वामन भगवान् ने तीन चरणों में राजा बलि के तीनों लोक वाले राज्य को नाप लिया था ।। सावित्री के तीन पाद भी तीनों लोकों तक लम्बे हैं ।। अर्थात उनके प्रभाव से तीनों लोकों में अपनी स्थिति सुख- शान्तिमय बनती है ।। तीन लोक आकाश, पाताल और पृथ्वी को भी कहते हैं ।। पर यहाँ दैविक, दैहिक, भौतिक अर्थात आध्यात्मिक, शारीरिक और सम्पत्ति- परक तीनों ही क्षेत्रों में सावित्री का प्रकाश पहुँचता है और उस महाशक्ति की उपासना से इन तीनों क्षेत्रों में आनन्द- उल्लास की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं ।।
षटकुक्षि का तात्पर्य षटचक्र जागरण से है ।। शरीर में छिपे हुए छहों शक्ति संस्थान सावित्री उपासना से जागृत हो जाते हैं ।। किसी मिल में छह इन्जन हों और वे ठण्डे पड़े रहें, तब तो सारी मिल बन्द पड़ी रहेगी, पर यदि वे एक- एक करके सभी चालू हो जायें तो मिल अपनी पूरी रफ्तार से चलने लगेगी और देखते- देखते उत्पादन का ढेर जमा हो जायगा ।।
षट्- चक्र मानव शक्ति में छिपे हुए अत्यन्त शक्तिशाली बायलर, इन्जन, जनरेटर हैं ।। उनके सक्रिय होने के पर मनुष्य साधारण जीव नहीं रह जाता, वरन उसकी गणना सिद्ध पुरुषों में होने लगती है ।। इस षट्- चक्र जागरण के विधि- विद्यान में भी सावित्री सान्निध्य को ही प्रधान आधार माना गया है, इसलिए उसे छह कुक्षि वाली- छह साधनाओं वाली- बताया गया है ।।
सावित्री के पाँच मस्तक, पाँच कोषों के नाम से प्रख्यात हैं ।। अन्नमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष- यह पाँच आवरण जीव के ऊपर हैं ।। इनमें से प्रत्येक को एक रतन भाण्डागार कहना चाहिये ।।
सूक्ष्म शरीर का सारा ढाँचा इन्हीं इन्हीं पाँच कोशों की सामग्री से बना है ।। विज्ञान की भाषा में इन्हें फिजिकल बॉडी, एस्ट्रल बॉडी, मेण्टल बॉडी, काँजल बॉडी और कास्मिक बॉडी कहते हैं ।। अध्यात्म की भाषा में इन्हें ही अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष कहा जाता है ।।
ये पाँच बहुमूल्य खजाने काय- सत्ता के अन्तराल में विद्यमान हैं ।। उनमें सिद्धियों के और विभूतियों के भंडार भरे पड़े हैं ।। काय कलेवर में विद्यमान इन्हीं को पाँच देवता कहा गया है ।। ये जब तक प्रसुप्त स्थिति में रहते हैं, तभी तक मनुष्य दीन- दुर्बल रहता है ।। जब ये जागृत होते हैं तो पाँचों देवता मनुष्य की विविध सहायता करते देखे जाते हैं ।।
दक्षिणमार्गी साधना में गायत्री को और वाममार्गी साधना में सावित्री को प्रमुख माना जाता है ।। सकाम साधनाएँ सावित्री परक होती हैं, उनमें प्रयोजनों के अनुरूप बीजमंत्र लगाये जाते हैं ।। गायत्री का प्रयोग आत्मोत्कर्ष के लिए होता है ।। उसमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को समुन्नत बनाने वाले भूर्भुवः स्वः के तीन बीजमंत्र पहले से ही लगे हुए हैं ।। ब्रह्म वर्चस् साधना में इन तीनों का सन्तुलित समन्वय है ।।
सावित्री के पाँच मुख वास्तव में उसके पाँच भाग हैं ।। १- ॐ, २- भुर्भूवः स्वः, ४- तत्सवितुर्वरेण्यं ,, ४- भर्गो देवस्य धीमहि, ५- धियो योनः प्रचोदयात् ।। यज्ञोपवीत के भी पाँच भाग हैं- तीन लड़े, चौथी मध्य ग्रन्थियाँ, पाँचवें ब्रह्मग्रन्थि ।। पाँच देवता प्रसिद्ध हैं- ॐ अर्थात गणेश, व्याहृति अर्थात् भवानी, गायत्री का प्रथम चरण- ब्रह्मा, द्वितीय चरण- विष्णु, तृतीय चरण- महेश, इस प्रकार यह पाँच देवता सावित्री के प्रमुख शक्ति पुञ्ज कहे जा सकते हैं ।।
सावित्री के पाँच मुख असंख्यों सूक्ष्म रहस्य और तत्त्व अपने भीतर छिपाये हुए हैं ।। उन्हें जानने के बाद मनुष्य को इतनी तृप्ति हो जाती है कि कुछ जानने लायक बात उसे सूझ नहीं पड़ती ।। महर्षि उद्दालक ने उस विद्या की प्रतिष्ठा की थी, जिसे जानकर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता, वह विद्या सावित्री विद्या ही है ।। चार वेद और पाँचवाँ यज्ञ, यह पाँचों ही सावित्री के पाँच मुख हैं जिनमें समस्त ज्ञान, विज्ञान और धर्म- कर्म ,, बीज रूप से केन्द्रीभूत हो रहें है ।।
पाँच तत्व, पाँच कोष, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, पाँच उपप्राण, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच यज्ञ, पाँच देव, पाँच योग, पाँच अग्नि, पाँच अंग, पाँच वर्ण , पाँच स्थिति, पाँच अवस्था, पाँच शूल, पाँच क्लेश आदि अनेक पंचक सावित्री के पाँच मुखों से संबंधित है ।।
इसको सिद्धि करने वाले पुरुषार्थी व्यक्ति ऋषि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, और देवर्षि कहलाते हैं ।। आत्मोन्नति की पाँच कक्षायें हैं, पाँच भूमिकायें हैं, उनमें से जो जिस कक्षा की भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है, वह उसी श्रेणी का ऋषि बन जाता है ।।
पंचमुखी सावित्री के ज्ञान पक्ष में जीवन विभिन्न क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाले पंचशीलों के परिपालन का संकेत है ।। सामान्य जीवन में श्रमशीलता, मितव्ययिता, सहकारिता और सज्जनता की गतिविधियाँ पंचशील कहलाती हैं ।। विभिन्न वर्गों के लिए- विभिन्न प्रयोजनों के लिए पंचशील पृथक−पृथक हैं, जिनके परिपालन से अभीष्ट क्षेत्र की स्थूलताओं के द्वार सहज ही खुलते चले जाते हैं ।। पंचशील भी पंचदेव हैं ।।
गायत्री की असंख्य दिव्य धाराओं में सबसे निकटवर्ती और अधिक समर्थ सावित्री है ।। दोनों इतनी सघन हैं कि दोनों को प्रायः एक ही माना जाता है ।। वस्तुतः दोनों को शरीर और आत्मा तरह भौतिकी और आत्मिकी माना जाना चाहिए और आवश्यकतानुसार अभीष्ट उद्देश्यों के लिए उनका अंचल पकड़ना चाहिए ।।
सावित्री महाशक्ति के स्वरूप, वाहन एवं आसन आदि का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस प्रकार है-
सावित्री के पाँच मुख- पंचकोशों, पंचतत्त्वों, पंचप्राणों के प्रतीक हैं ।। दस हाथ- दसों दिशाओं, दस इन्द्रिय शक्तियों के प्रतीक हैं ।। आयुध- शंख से जागरूकता, अंकुश से आत्मानुशासन, चाबुक से निरालस्यता, चक्र से प्रगतिशीलता, गदा से शक्ति, पात्र से धारण क्षमता का बोध होता है ।।
दो हाथों में कमल- सभ्यता और सुसंस्कारिता के प्रतीक है ।। दान मुद्रा से देवत्व का तथा आशीर्वाद मुद्रा से सद्भाव का बोध होता है ।। कमल आसन प्रफुल्लित विकासमान मनोभूमि का संकेत है 

सरस्वती

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सरस्वती तु ‘धी’ देवी च प्रजापतिः ।।
‘ऐं’ बीजं कश्यपश्चषिर्यर्न्त्रं चाऽपि सरस्वती॥
कथितान्यस्य भूती तु हषार् च प्रभवा पुनः ।।
कलात्मता स उल्लासो द्वयं प्रतिफलं मतम्॥
अर्थात् — ‘धी’ अक्षर की देवी — ‘सरस्वती’, देवता- ‘प्रजापति’, बीज — ‘ऐं’, ऋषि- ‘कश्यप’, यन्त्र — ‘सरस्वती यंत्रम्’, विभूति- ‘हर्षा एवं प्रभवा’, तथा प्रतिफल- ‘उल्लास एवं कलात्मकता’ हैं ।।
ज्ञान चेतना के दो पक्ष हैं ।। एक प्रज्ञा और दूसरा बुद्धि ।। प्रज्ञा आत्मिक समाधान एवं उत्कर्ष का पथ प्रशस्त करती है ।। बुद्धि को लोक व्यवहार एवं निर्वाह की गुत्थियाँ सुलझाने एवं उपलब्धियाँ पाने के लिए प्रयोग किया जाता है ।।
बुद्धि का स्वरूप मस्तिष्क है और प्रज्ञा का अन्तःकरण है ।। प्रज्ञा की अधिष्ठात्री गायत्री है और बुद्धि की संचारिणी सरस्वती ।। आवश्यकतानुसार दोनों में से जिसका आश्रय लिया जाता है, उसी का प्रतिफल प्राप्त होता है ।।
सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की देवी माना जाता है ।। उसमें विचारणा, भावना एवं संवेदना का त्रिविध समन्वय है ।। वीणा संगीत की, पुस्तक विचारणा की और मयूर वाहन कला की अभिव्यक्ति है ।।
लोक चर्चा में सरस्वती को शिक्षा की देवी माना गया है ।। शिक्षा संस्थाओं में वसंत पंचमी को सरस्वती का जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाया जाता है ।। पशु को मनुष्य बनाने का — अंधे को नेत्र मिलने का श्रेय शिक्षा को दिया जाता है ।। मनन से मनुष्य बनता है ।। मनन बुद्धि का विषय है ।।
भौतिक प्रगति का श्रेय बुद्धि- वर्चस् को दिया जाना और उसे सरस्वती का अनुग्रह माना जाना उचित भी है ।। इस उपलब्धि के बिना मनुष्य को नर- वानरों की तरह वनमानुष जैसा जीवन बिताना पड़ता है ।। शिक्षा की गरिमा- बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन- जन को समझाने के लिए सरस्वती पूजा की परम्परा है ।। इसे प्रकारान्तर से गायत्री महाशक्ति के अंतर्गत बुद्धि पक्ष की आराधना कहना चाहिए ।।
कहते हैं कि महाकवि कालिदास, वरदराजाचार्य, वोपदेव आदि मंद बुद्धि के लोग सरस्वती उपासना के सहारे उच्च कोटि के विद्वान् बने थे ।। इसका सामान्य तात्पर्य तो इतना ही है कि ये लोग अधिक मनोयोग एवं उत्साह के साथ अध्ययन में रुचिपूर्वक संलग्न हो गए और अनुत्साह की मनःस्थिति में प्रसुप्त पड़े रहने वाली मस्तिष्कीय क्षमता को सुविकसित कर सकने में सफल हुए होंगे ।।
इसका एक रहस्य यह भी हो सकता है कि कारणवश दुर्बलता की स्थिति में रह रहे बुद्धि- संस्थान को सजग- सक्षम बनाने के लिए वे उपाय- उपचार किए गए जिन्हें ‘सरस्वती आराधना’ कहा जाता है ।। उपासना की प्रक्रिया भाव- विज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है ।।
श्रद्धा और तन्मयता के समन्वय से की जाने वाली साधना- प्रक्रिया एक विशिष्ट शक्ति है ।। मनःशास्त्र के रहस्यों को जानने वाले स्वीकार करते हैं कि व्यायाम, अध्ययन, कला, अभ्यास की तरह साधना भी एक समर्थ प्रक्रिया है, जो चेतना क्षेत्र की अनेकानेक रहस्यमयी क्षमताओं को उभारने तथा बढ़ाने में पूर्णतया समर्थ है ।।
सरस्वती उपासना के संबंध में भी यही बात है ।। उसे शास्त्रीय विधि से किया जाय तो वह अन्य मानसिक उपचारों की तुलना में बौद्धिक क्षमता विकसित करने में कम नहीं, अधिक ही सफल होती है ।।
मंदबुद्धि लोगों के लिए गायत्री महाशक्ति का सरस्वती तत्त्व अधिक हितकर सिद्ध होता है ।। बौद्धिक क्षमता विकसित करने, चित्त की चंचलता एवं अस्वस्थता दूर करने के लिए सरस्वती साधना की विशेष उपयोगिता है ।।
मस्तिष्क- तंत्र से संबंधित अनिद्रा, सिर दर्द , तनाव, जुकाम जैसे रोगों में गायत्री के इस अंश- सरस्वती साधना का लाभ मिलता है ।। कल्पना शक्ति की कमी, समय पर उचित निर्णय न कर सकना, विस्मृति, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, अरुचि जैसे कारणों से भी मनुष्य मानसिक दृष्टि से अपंग, असमर्थ जैसा बना रहता है और मूर्ख कहलाता है ।। उस अभाव को दूर करने के लिए सरस्वती साधना एक उपयोगी आध्यात्मिक उपचार है ।।
शिक्षा के प्रति जन- जन के मन- मन में अधिक उत्साह भरने- लौकिक अध्ययन और आत्मिक स्वाध्याय की उपयोगिता अधिक गम्भीरता पूर्वक समझने के लिए भी सरस्वती पूजन की परम्परा है ।। बुद्धिमत्ता को बहुमूल्य सम्पदा समझा जाय और उसके लिए धन कमाने, बल बढ़ाने, साधन जुटाने, मोद मनाने से भी अधिक ध्यान दिया जाय ।। इस लोकोपयोगी प्रेरणा को गायत्री महाशक्ति के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण धारा सरस्वती की मानी गयी है और उससे लाभान्वित होने के लिए प्रोत्साहित किया गया है ।।
सरस्वती के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस तरह है-
सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं ।। मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा- भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है ।। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा- सात्त्विकता का बोध होता है ।। वाहन मयूर- सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है ।।

लक्ष्मी


‘म’ वणर्स्य च देवी तु महालक्ष्मीस्तथैव च ।।
कुबेरो देवता बीजं ‘श्रीं’ ऋषिश्चाश्वलायनः॥
यन्त्रं श्रीः श्रीमुखी भूती तारिणी कथितान्यपि ।।
सम्पन्नत्वं सदिच्छा च द्वयं प्रतिफलं मतम्॥
अर्थात – ‘म’ अक्षर की देवी — ‘महालक्ष्मी’, देवता- ‘कुबेर’, बीज — ‘श्रीं, ऋषि- ‘आश्वलायन, यन्त्र — ‘श्रीयन्त्रम्’, विभूति- ‘तारिणी एवं श्रीमुखी’ और फलश्रुति- ‘सदिच्छा एवं सम्पन्नता’ है ।।
गायत्री की एक धारा ‘श्री’ है ।। ‘श्री’ अर्थात लक्ष्मी- लक्ष्मी अर्थात् समृद्धि ।। गायत्री की कृपा से मिलने वाले वरदानों में एक लक्ष्मी भी है ।। जिस पर यह अनुग्रह उतरता है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता ।। स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के स्वभाव को भी ‘श्री’ कहा गया है ।। यह सद्गुण जहाँ होंगे, वहाँ दरिद्रता, कुरूपता टिक नहीं सकेगी ।।
पदार्थ को मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने और उसकी अभीष्ट मात्रा उपलब्ध करने की क्षमता को लक्ष्मी कहते हैं ।। यों प्रचलन में तो ‘लक्ष्मी’ शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का एक गुण है, जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है ।।
मात्रा में स्वल्प होते हुए भी उनका भरपूर लाभ सत्प्रयोजनों के लिए उठा लेना एक विशिष्ट कला है ।। वह जिसे आती है उसे लक्ष्मीवान , श्रीमान् कहते हैं ।। शेष अमीर लोगों को धनवान् भर कहा जाता है ।। गायत्री की एक किरण लक्ष्मी भी है ।। जो इसे प्राप्त करता है, उसे स्वल्प साधनों में भी अर्थ उपयोग की कला आने के कारण सदा सुसम्पन्नों जैसी प्रसन्नता बनी रहती है ।।
धन का अधिक मात्रा में संग्रह होने मात्र से किसी को सौभाग्यशाली नहीं कहा जा सकता ।। सद्बुद्धि के अभाव में वह नशे का काम करती है, जो मनुष्य को अहंकारी, उद्धत, विलासी और दुर्व्यसनी बना देता है ।। सामान्यतया धन पाकर लोग कृपण, विलासी, अपव्ययी और अहंकारी हो जाते हैं ।।
लक्ष्मी का एक वाहन उलूक माना गया है ।। उलूक अर्थात मूर्खता ।। कुसंस्कारी व्यक्तियों को अनावश्यक सम्पत्ति मूर्ख ही बनाती है ।। उनसे दुरुपयोग ही बन पड़ता है और उसके फल स्वरूप वह आहत ही होता है ।।
लक्ष्मी का अभिषेक दो हाथी करते हैं ।। वह कमल के आसन पर विराजमान है ।। कमल कोमलता का प्रतीक है ।।
कोमलता और सुंदरता सुव्यवस्था में ही सन्निहित रहती है ।। कला भी इसी सत्प्रवृत्ति को कहते हैं ।। लक्ष्मी का एक नाम कमल भी है ।। इसी को संक्षेप में कला कहते हैं ।।
वस्तुओं को, सम्पदाओं को सुनियोजित रीति से सदुदेश्य के लिए सदुपयोग करना, उसे परिश्रम एवं मनोयोग के साथ नीति और न्याय की मर्यादा में रहकर उपार्जित करना भी अर्थकला के अंतर्गत आता है ।। उपार्जन अभिवर्धन में कुशल होना श्री तत्त्व के अनुग्रह का पूर्वार्द्ध है ।। उत्तरार्द्ध वह है जिसमें एक पाई का भी अपव्यय नहीं किया जाता ।। एक- एक पैसे को सदुद्देश्य के लिए ही खर्च किया जाता है ।।
लक्ष्मी का जल- अभिषेक करने वाले दो गजराजों को परिश्रम और मनोयोग कहते हैं ।। उनका लक्ष्मी के साथ अविच्छिन्न संबंध है ।। यह युग्म जहाँ भी रहेगा, वहाँ वैभव की, श्रेय- सहयोग की कमी रहेगी ही नहीं ।। प्रतिभा के धनी पर सम्पन्नता और सफलता की वर्षा होती है और उन्हें उत्कर्ष के अवसर पग- पग पर उपलब्ध होते हैं ।।
गायत्री के तत्त्वदर्शन एवं साधन क्रम की एक धारा लक्ष्मी है ।। इसका शिक्षण यह है कि अपने में उस कुशलता की, क्षमता की अभिवृद्धि की जाय, तो कहीं भी रहो, लक्ष्मी के अनुग्रह और अनुदान की कमी नहीं रहेगी ।। उसके अतिरिक्त गायत्री उपासना की एक धारा ‘श्री’ साधना है ।।
उसके विद्यान अपनाने पर चेतना- केन्द्र में प्रसुप्त पड़ी हुई वे क्षमताएँ जागृत होती हैं, जिनके चुम्बकत्व से खिंचता हुआ धन- वैभव उपयुक्त मात्रा में सहज ही एकत्रित होता रहता है ।। एकत्रित होने पर बुद्धि की देवी सरस्वती उसे संचित नहीं रहने देती, वरन् परमार्थ प्रयोजनों में उसके सदुपयोग की प्रेरणा देती है ।।
लक्ष्मी प्रसन्नता की, उल्लास की, विनोद की देवी है ।। वह जहाँ रहेगी हँसने- हँसाने का वातावरण बना रहेगा ।। अस्वच्छता भी दरिद्रता है ।। सौन्दर्य, स्वच्छता एवं कलात्मक सज्जा का ही दूसरा नाम है ।। लक्ष्मी सौन्दर्य की देवी है ।। वह जहाँ रहेगी वहाँ स्वच्छता, प्रसन्नता, सुव्यवस्था, श्रमनिष्ठा एवं मितव्ययिता का वातावरण बना रहेगा ।।
गायत्री की लक्ष्मी धारा का अवगाहन करने वाले श्रीवान बनते हैं और उसका आनंद एकाकी न लेकर असंख्यों को लाभान्वित करते हैं ।।
लक्ष्मी के स्वरूप, वाहन आदि का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है-
लक्ष्मी के एक मुख, चार हाथ हैं ।। वे एक लक्ष्य और चार प्रकृतियों (दूरदर्शिता, दृढ़ संकल्प, श्रमशीलता एवं व्यवस्था शक्ति) के प्रतीक हैं ।। दो हाथों में कमल- सौन्दर्य और प्रामाणिकता के प्रतीक है ।। दान मुद्रा से उदारता तथा आशीर्वाद मुद्रा से अभय अनुग्रह का बोध होता है ।।
वाहन- उलूक, निर्भीकता एवं रात्रि में अँधेरे में भी देखने की क्षमता का प्रतीक है ।

महाकाली_

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‘हि’ देवी तु महाकाली महाकालश्च देवता ।।
बीजं ‘क्लीं’ कथितान्येवं दुवार्साश्चैव स ऋषिः॥
कालिका यन्त्रमेवं च भूती भगार् च वज्रणी ।।
अस्य प्रतिफलं शत्रुनाशः कल्मषनाशनम्॥
अर्थात् — ‘हि’ अक्षर की देवी — ‘महाकाली’, देवता- ‘महाकाल’, बीज — ‘क्लीं’, ऋषि- ‘दुर्वासा’, यन्त्र — ‘कालिकायंत्रम्’, विभूति — ‘भगार एवं वज्रणी’ तथा प्रतिफल- ‘कल्मषनाश एवं शत्रुनाश’ हैं ।।
गायत्री की एक धारा दुर्गा है ।। दुर्गा को ही काली कहते हैं ।। काली को महाकाल की सहधर्मिणी माना गया है ।। महाकाल अर्थात् सुविस्तृत समय सौरभ ।। काल की महत्ता स्वीकार करने वाले, उसकी उपयोगिता समझने वाले, उसका सदुपयोग करने वाले काली के उपासक कहे जाते हैं ।।
आलस्य में शरीर और प्रमाद में मन की क्षमता को नष्ट होने से बचा लिया जाय तो सामान्य स्तर का मनुष्य भी अभीष्ट उद्देश्यों में चरम सफलता प्राप्त कर सकता है ।। समय ही ईश्वर प्रदत्त वह सम्पदा है जिसका उपयोग करके मनुष्य जिस प्रकार की भी सफलता प्राप्त करना चाहे उसे प्राप्त कर सकता है ।।
ईश्वर सूक्ष्म है, उसका पुत्र जीव भी सूक्ष्म है ।। पिता से पुत्र को मनुष्य जन्म का महान् अनुदान तो मिला ही है, साथ ही समय रूपी ऐसा अदृश्य धन भी मिला है जिसे यदि आलस्य- प्रमाद में बर्बाद न किया जाय, किसी प्रयोजन विशेष के लिए नियोजित रखा जाय तो उसके बदले में सांसारिक एवं आध्यात्मिक सम्पदायें प्रचुर परिमाण में उपलब्ध की जा सकती है ।। इस तथ्य को गायत्री काली विग्रह में स्पष्ट किया गया है ।।
हर दिन व्यस्त योजना बनाकर चलना और उस प्रयास में प्राणपण से एकाग्र भाव से, जुटे रहना इष्ट प्राप्ति का सुनियोजित आधार है ।। इसी रीति- नीति में गहन श्रद्धा उत्पन्न कर लेना महाकाल की उपासना है ।। इसी अवलम्बन को अपनाने से महामानवों की भूमिका को सम्पादित कर सकना संभव हो सकता है ।।
काली के अन्यान्य नाम भी है ।। दुर्गा, चण्डी, अम्बा, शिवा, पार्वती, आदि उसी को कहते हैं ।। इसका एक रूप संघ शक्ति भी है ।। एकाकीपन सदा अपूर्ण ही रहता है, भले ही वह कितना ही समर्थ, सुयोग्य एवं सम्पन्न क्यों न हो ।। जिसे जितना सहयोग मिल जाता है वह उसी क्रम से आगे बढ़ता है ।। संगठन की महिमा अपार है ।।
व्यक्ति और समाज की सारी प्रगति, समृद्धि और शान्ति का आधार सामूहिकता एवं सहकारिता है ।। अब तक की मानवी उपलब्धियाँ सहकारी प्रकृति के कारण ही सम्भव हुई हैं ।। भविष्य में भी कुछ महत्त्वपूर्ण पाना हो तो उसे सम्मिलित उपायों से ही प्राप्त किया जा सकेगा ।।
दुर्गा अवतार की कथा है कि असुरों द्वारा संत्रस्त देवताओं का उद्धार करने के लिए प्रजापति ने उनका तेज एकत्रित किया था और उसे काली का रूप देकर प्रचण्ड शक्ति उत्पन्न की थी ।। उस चण्डी ने अपने पराक्रम से असुरों को निरस्त किया था और देवताओं को उनका उचित स्थान दिलाया था ।।
इस कथा में यही प्रतिपादन है कि सामूहिकता की शक्ति असीम है ।। इसका जिस भी प्रयोजन में उपयोग किया जाएगा, उसी में असाधारण सफलता मिलती चली जाएगी ।।
दुर्गा का वाहन सिंह है ।। वह पराक्रम का प्रतीक है ।। दुर्गा की गतिविधियों में संघर्ष की प्रधानता है ।। जीवन संग्राम में विजय प्राप्त करने के लिए हर किसी को आंतरिक दुर्बलताओं और स्वभावगत दुष्प्रवृत्तियों से निरंतर जूझना पड़ता है ।।
बाह्य जीवन में अवांछनीयताओं एवं अनीतियों के आक्रमण होते रहते हैं और अवरोध सामने खड़े रहते हैं ।। उनसे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है ।। शांति से रहना तो सभी चाहते हैं, पर आक्रमण और अवरोधों से बच निकलना कठिन है ।।
उससे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं ।। ऐसे साहस का, शौर्य- पराक्रम का उद्भव गायत्री महाशक्ति के अंतर्गत दुर्गा तत्त्व के उभरने पर संभव होता है ।। गायत्री उपासना से साधक के अंतराल में उसी स्तर की प्रखरता उभरती है ।। इसे दुर्गा का अनुग्रह साधक को उपलब्ध हुआ माना जाता है ।।
महाकाली के स्वरूप एवं आयुध आदि का संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार है –
काली का विकराल मुख- असुरता को भयभीत करने वाला है ।। चार हाथों में खड्ग और राक्षस का सिर- असुरता के विनाश हेतु, खप्पर (पात्र) धारण शक्ति का तथा अभयमुद्रा देव पक्ष के लिए आश्वासन है ।। शिव के मार्ग में आने पर रोष में भी पैर उठा रह जाना- शिवत्व की मर्यादा रखने का प्रतीक है ।।

कुण्डलिनी

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‘धि’ वणर्स्य च देवी तु प्रोक्ता कुण्डलिनी तथा ।।
देवता भैरवो बीजं ‘लं’ ऋषिः कण्व एव च॥
भैरवं यन्त्रमेतस्य धृतिः सा प्रतिभा तथा ।।
विभूती फलमोजस्वितोन्नतिः कथितानि च॥
अर्थात् — ‘धि’ अक्षर की देवी — ‘कुण्डलिनी’, देवता- ‘भैरव’, बीज- ‘लं’, ऋषि- ‘कण्व’, यन्त्र — ‘भैरवयन्त्रम्’, विभूति- ‘धृति एवं प्रतिभा’ और प्रतिफल — ‘ओजस्विता एवं उन्नति’ है ।।
गायत्री की एक शक्ति कुण्डलिनी है ।।
कुण्डलिनी वह भौतिक ऊर्जा है जो जीवात्मा के साथ लिपटकर अत्यंत घनिष्ठ हो गई है ।। इसे प्राण- विद्युत्, वॉयटल फोर्स- (जीवनी) प्राण ऊर्जा, योगाग्नि, सपेर्न्टाइन पावर आदि नामों से जाना जाता है ।। नस- नाड़ियों में एक चैतन्य विद्युत गतिशील रहती है ।। इसके दो सिरे हैं जिन्हें ध्रुव केन्द्र माना जाता है ।।
यह केन्द्र पृथ्वी के उत्तरी- दक्षिणी ध्रुवों की तरह हैं ।। उत्तरी ध्रुव है- मस्तिष्क का मध्य बिन्दु- ब्रह्मरंध्र ।। इसी स्थान पर सहस्रार चक्र है ।। इसका सीधा संबंध ब्रह्म चेतना से है ।। जिस प्रकार उत्तरी ध्रुव केन्द्र का चुम्बकत्व अपने लिए आवश्यक शक्तियों तथा पदार्थों को ब्रह्माण्ड के अंर्तग्रही भाण्डागार से उपलब्ध करता रहता है ।।
उसी प्रकार सहस्रार चक्र में वह सामर्थ्य है कि व्यापक ब्रह्म चेतना के भाण्डागार में संव्याप्त दिव्य शक्तियों में से अपने लिए आवश्यक क्षमताएँ अभीष्ट मात्रा में उपलब्ध कर सके ।। ब्रह्म- रंध्र में कुण्डलिनी का एक सिरा है जिसे ‘महासर्प’ कहते हैं ।। इसकी आकृति कुण्डलाकार है ।। शेषनाग, शिव, सर्प आदि इसी के नाम हैं ।। गायत्री उपासना से इस महासर्प की मूर्छना जागृत की जाती है और उसकी प्रचण्ड क्षमता के सहारे अध्यात्म क्षेत्र में असंख्य विभूतियों का लाभ उठाया जाता है ।।
कुण्डलिनी का दूसरा सिरा मूलाधार चक्र है ।। यह यह मल- मूत्र छिद्रों के मध्य एक छोटा शक्ति भँवर है, इसे दक्षिणी ध्रुव के समतुल्य कहा गया है ।। मानवी काया में पदार्थ ऊर्जा का उत्पादन और वितरण यहीं से होता है ।। प्रजनन की सामर्थ्य यहीं है ।। स्फूर्ति, उल्लास, और साहस जैसी विशिष्टताएँ यहीं से उद्भूत होती हैं ।। मानवी- काया में काम करने वाली अनेकों शक्तियों का उद्गम केन्द्र यही है ।। स्थूल शरीर में मस्तिष्क और हृदय को प्रधान अवयव माना गया है ।। सूक्ष्म शरीर का मस्तिष्क सहस्रार चक्र ‘महासर्प’ है और हृदय ‘मूलाधार चक्र’ ।।
मूलाधार को कुण्डलिनी का दक्षिणी ध्रुव माना गया है ।। दोनों ध्रुवों का मध्यवर्ती प्रवाह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है ।। फलतः मनुष्य अन्य प्राणियों की तरह पेट, प्रजनन, जैसे शरीर निर्वाह के तुच्छ काम ही कर पाता है ।।
कुण्डलिनी जागरण से दिव्य ऊर्जा जागृत होती है और मनुष्य की सामर्थ्य असामान्य बन जाती है ।। मूलाधार स्थित सपिर्णी अर्थात प्राण ऊर्जा और सहस्रार स्थित महासर्प- ब्रह्म चेतना के मध्य आदान- प्रदान का द्वार खुल जाना ही कुण्डलिनी जागरण है ।। भौतिक और आत्मिक क्षमताओं का मिलन- सम्पर्क वैसा ही चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करता है, जैसा बिजली के दोनों तार परस्पर मिलते ही शक्तिशाली प्रवाह उत्पन्न करते हैं ।।
मस्तिष्कीय सामर्थ्य को परिष्कृत बनाने का काम योग साधनाओं द्वारा किया जाता है ।। प्राण ऊर्जा में प्रचण्डता उत्पन्न करना और उसकी सामर्थ्य से भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों को बलवती बनाना तंत्र- विज्ञान है ।। कुण्डलिनी तंत्र विद्या की अधिष्ठात्री है ।। भूलोक का प्रतिनिधि मूलाधार है और ब्रह्मलोक का सहस्रार ।। दोनों का मध्यवर्ती आवागमन देवयान मार्ग से होता है ।। मेरुदण्ड ही देवयान- मार्ग है ।। इस लम्बे मार्ग में षटचक्र अवस्थित हैं ।। सातवां लक्ष्य बिन्दु सहस्रार है ।।
इन्हीं का सप्त लोक, सप्तसिंधु, सप्तगिरि, सप्तऋषि, सदापुरी, सप्ततीथर्, सप्तस्वर, सप्तद्वीप, सप्ताह, सप्त धातु आदि के रूप में विस्तार हुआ है ।। कुण्डलिनी के जागरण से देवयान मार्ग के यह सभी सप्त सोपान जागृत होते हैं और साधक की सत्ता दिव्य क्षमताओं से सुसम्पन्न हो भर जाती है ।।
मनुष्य में प्राण- ऊर्जा की प्रचण्ड शक्ति मूलाधार चक्र के केन्द्रबिन्दु में अवलम्बित है और वहीं से समस्त शरीर में परिभ्रमण करती हुई सामान्य जीवन के अनेकानेक प्रयोजन पूरे करती रहती है ।। इसकी असाधारण क्षमता का पता इससे लगता है कि यह केन्द्र जननेन्द्रिय के माध्यम से सक्रिय होकर एक नया मनुष्य उत्पन्न करने में समर्थ होता है ।।
मनुष्य में शौर्य, साहस, पराक्रम, उत्साह, उल्लास, स्फूर्ति, उमंग जैसी अनेक विशेषताएँ- क्षमताएँ यहीं से स्फुरित होती रहती है ।। कामोत्तेजना में इसी क्षमता की हलचलों का आभास मिलता है ।। प्रजनन प्रयोजनों में प्रायः उसका बड़ा भाग नष्ट होता रहता है ।।
सामान्य प्राण को महाप्राण में परिणित करके ब्रह्म रंध्र तक पहुँचा देना और वहाँ के प्रसुप्त शक्ति- भण्डार को जगाकर मनुष्य को देवोपम बना देना कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है ।। समुद्र- मंथन से १४ रतन निकले थे, कुण्डलिनी के शक्ति- सागर का मंथन भी दिव्य शक्ति की रत्न राशि का द्वार साधक के लिए खोलता है ।। यही अधोगति को ऊर्ध्व गति में परिणित करने की प्रक्रिया कुण्डलिनी जागरण है ।।
इस साधना में काम बीज को शक्ति बीज में परिवर्तित किया जाता है ।। काली का महाकाल से, शिव का शक्ति से, प्राण का महाप्राण से मिलन होने पर उनकी संयुक्त शक्ति से चमत्कारी परिणाम उत्पन्न होते हैं ।। इसी को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं ।। गायत्री के ही एक प्रवाह कुण्डलिनी जागरण को गायत्री की तंत्र पक्षीय उपलब्धि कहा गया है ।।
कुण्डलिनी- जागरण की प्रक्रिया गायत्री साधना के अंतर्गत ही सरल पड़ती है ।। हठयोग, प्राणयोग, तंत्रयोग आदि के माध्यम से भी उसे एक सीमा तक जागृत किया जाता है, किन्तु परिपूर्ण उपयोग शक्ति और जागरण गायत्री के माध्यम से ही हो सकता है ।। गायत्री की २४ शक्तियों में से एक कुण्डलिनी भी है ।।
गायत्री साधना की सौम्य प्रक्रिया अपना कर साधकों को कुण्डलिनी जागरण का लाभ अधिक निश्चिन्तता पूर्वक, बिना किसी प्रकार का जोखिम उठाए सरल रूप से मिल सकता है ।।
कुण्डलिनी के स्वरूप, आयुध एवं वाहन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस तरह है —
कुण्डलिनी के एक मुख है ।। चार हाथों में क्रमशः बाँसुरी- सुप्त को जाग्रत् करने वाली क्षमता का, सर्प- कुण्डलिनी में सामान्य दिखते हुए भी असामान्य शक्ति का, कमण्डलु- धारण करने की क्षमता का तथा आशिर्वाद मुद्रा- से लोकहित के लिए प्रतिबद्धता का बोध होता है ।। वाहन कूर्म- संयम और दीर्घ आयु का प्रतीक है 

भवानी

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‘नः’ वणर्स्य भवानी च देवी रुद्रश्च देवता ।
बीजं ‘हुं’ चैवमस्यषिर्ः स वैशम्पायनस्तथा॥
यन्त्रं दुगार् धु्रवामोघे भूती द्वे फलमस्य च ।
अजेयताऽथ संकल्पसिद्धिः प्रोक्तानि च क्रमात् ॥
अर्थात्-‘नः’ अक्षर की देवी -‘भवानी’ ,देवता-‘रुद्र’,बीज-‘हुं’ ,ऋषि-‘वैशम्पायन’,यन्त्र-‘दुगार्यन्त्रम् ‘विभूति-‘ध्रुवा एवं अमोघा’ और प्रतिफल-‘संकल्पसिद्धि एवं अजेयता’ हैं ।
गायत्री का एक नाम भवानी है । इस रूप में आद्य शक्ति की उपासना करने से उस भर्ग-तेज की अभिवृद्धि होती है, जो अवांछनीयताओं से लड़ने और परास्त करने के लिए आवश्यक है, इसे एक शक्ति-धारा भी कह सकते हैं ।
भवानी के पर्याय वाचक , दुर्गा, चण्डी,भैरवी, काली आदि नाम हैं । इनकी मुख मुद्रा एवं भाव चेष्टा में विकरालता है । संघर्ष में उनकी गति-विधियाँ नियोजित हैं । उनका वाहन सिंह है । सिंह पराक्रम का-आक्रमण का प्रतीक है । हाथों में ऐसे आयुध हैं जो शत्रु को विदीर्ण करने के ही काम आते हैं । लोक व्यवहार में भवानी तलवार को भी कहते हैं ।
उसका प्रयोजन भी अवांछनीयता का प्रतिरोध करना है । असुरों के शस्त्र उत्पीड़न के लिए प्रयुक्त होते हैं । उनके लिए भवानी शब्द का प्रयोग तभी होगा जब उनका उपयोग की अनीति के विरोध और नीति के समर्थन में किया जा रहा हो ।
धर्म का एक पक्ष सेवा, साधना, करुणा,सहायता, उदारता के रूप में प्रयुक्त होता है । यह विद्यायक-सृजनात्मक पक्ष है । दूसरा पक्ष अनीति का प्रतिरोध है, इसके बिना धमर् न तो पूर्ण होता है, न सुरक्षित रहता है । सज्जनता की रक्षा के लिए दुष्टता का प्रतिरोध भी अभीष्ट है । इस प्रतिरोधक शक्ति को ही भवानी कहते हैं ।
दुर्गा एवं चण्डी के रूप में उसी की लीलाओं का वणर्न किया जाता है । ‘देवी भागवत’ में विशिष्ट रूप से और अन्यान्य पुराणों, उपपुराणों में सामान्य रूप से इसी महाशक्ति की चर्चा हुई है और उसे असुर विदारिणी, संकट निवारिणी के रूप में चित्रित किया गया है । अवतारों के दो उद्देश्य हैं- एक धर्म की स्थापना, दूसरा अधर्म का विनाश । दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।
सृजन और ध्वंस की द्विविध प्रक्रियाओं का अवलम्बन लेने से ही सुव्यवस्था बन पाती है । भोजन जितना आवश्यक है, उतना ही मलविसर्जन भी । उत्पादन एवं संवधर्न के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों के साथ आक्रमणकारी तत्त्वों से बचाव का भी प्रबन्ध करना पड़ता है । राजसत्ता को प्रजापालन के अतिरिक्त उपद्रवों को रोकने के लिए सेना, पुलिस आदि के सुरक्षात्मक प्रयत्न भी करने पड़ते हैं । किसान को खेत और माली को बगीचे को उगाने, बढ़ाने के साथ-साथ रखवाले का भी प्रबन्ध करना होता है ।
अन्यथा उनका किया हुआ सारा परिश्रम, अवांछनीय तत्त्वों के हाथ में चला जायगा और वे उस अपहरण से अधिक प्रोत्साहित, परिपुष्ट होकर हानि पहुँचाने का दुस्साहस करेंगे । अस्तु, सज्जनता का परिपोषण जितना आवश्यक है, उतना ही दुष्टता का उन्मूलन भी अभीष्ट है । इनमें से किसी एक को लेकर चलने से सुव्यवस्था रह नहीं सकती ।
संघषर् का प्रथम चरण दुर्बुद्धि से जूझना है । निकृष्ट स्तर की दुभार्वनाएँ और कुविचारणाएँ अन्तराल में जड़े जमा कर व्यक्ति को पतन, पराभव के गर्त में धकेलती हैं । बुरी आदतों के वशीभूत होकर मनुष्य दुव्यर्सनों और दुष्कर्मों में प्रवृत्त होता है । फलतः नाना प्रकार के क्लेश सहता और कष्ट उठाता है । व्यक्तित्व में घुसे हुए कषाय-कल्मषों, कुसंस्कारों का उन्मूलन करने के लिए विभिन्न प्रकार की तप-तितिक्षाएँ अपनानी पड़ती हैं ।
लोक व्यवहार में यही दुष्प्रवृत्तियाँ आलस्य,प्रमाद,अस्वच्छता, अशिष्टता, अव्यवस्था, संकीर्ण स्वार्थ परता आदि रूपों में मनुष्य को उपेक्षित, तिरस्कृत बनाती हैं । इनकी मात्रा अधिक बढ़ जाने से व्यक्ति भ्रष्ट , दुष्ट आचरण करता है और पशु-पिशाच कहलाता हैं । वासना, तृष्णा और अहन्ता की बढ़ोत्तरी से भी मनुष्य असामाजिक , अवांछनीय , उच्छृंखल एवं आक्रामक बन जाता है ।
फलतः उसे घृणा एवं प्रताड़ना का दण्ड सहना पड़ता है । उस स्थिति से उबरने पर ही व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं सुविकसित होने का अवसर मिलता है । आत्म शोधन की साहसिकता भी भवानी है । आत्मविजय को सबसे बड़ी विजय कहा गया है ।
समाज में जहाँ सहकारिता, सज्जनता एवं रचनात्मक प्रयत्नों का क्रम चलता है, वहाँ दुष्टता, दुरभिसन्धियाँ भी कम नहीं हैं ।
अवांछनीयता, अनौतिकता, मूढ़ मान्यताओं का जाल बुरी तरह बिछा रहता है । उन्हीं के कारण अनेकानेक वैयक्तिक एवं सामाजिक समस्याएँ उठती एवं विकृतियाँ बढ़ती रहती है । इनसे लड़ने के लिए वैयक्ति एवं सामूहिक स्तर पर प्रचण्ड प्रयास होने ही चाहिए । इसी प्रयत्नशीलता को चण्डी कहते हैं । भवानी यही है ।
सृजन और संघर्ष के अन्योन्याश्रय तत्त्वो में से संघर्ष की आवश्यकता को सुझाने वाला और उसे अपनाने का प्रोत्साहन देने वाला स्वरूप भवानी है । सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री गायत्री का एक पक्ष संघषर्शील, शौर्य, साहस के लिए भी मागर्दशर्न करता है । इस शक्ति का गायत्री साधना से सहज संवधर्न होता है ।
भवानी के स्वरूप,आयुध एवं वाहन आदि का-संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस प्रकार है-
भवानी के एक मुख, आठ हाथ हैं । शंख से-देव पक्ष की सहायता का उद्घोष, गदा से शक्ति, पद्म से निविर्कारिता, बंधी मुट्ठी से संगठन, चक्र से गतिशीलता, तलवार से दोषनाश, पाश से आसुरी शक्ति को बाँधकर बाधित करने तथा आशीर्वाद मुद्रा से सज्जनों को आश्वस्त करने का भाव सन्निहित है । वाहन-सिंह-शौर्य का प्रतीक हैं ।

भुवनेश्वरी

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‘यो’ देवी भुवनेशी तु देवता च पुरन्दरः ।
बीजं ‘खं’ जमदग्निश्च स ऋषियर्न्त्रकं विभुः॥
गौरी विश्वोत्तमे भूती यश ऐश्वयर्मेव च ।
फलं च क्रमशः सवार्ण्येतान्युक्तानि ते मया॥
अर्थात – ‘यो’ अक्षर की देवी- ‘भुवनेश्वरी’, देवता- ‘पुरन्दर’, बीज- ‘खं’, ऋषि- ‘जमदग्नि’, यन्त्र विभूति यन्त्रम्, विभूति- ‘गौरी एवं विश्वोत्तमा’ और प्रतिफल – ‘सुयश एवं ऐश्वर्य’ हैं ।
भुवनेश्वरी अर्थात संसार भर के ऐश्वयर् की स्वामिनी । वैभव-पदार्थों के माध्यम से मिलने वाले सुख-साधनों को कहते हैं । ऐश्वर्य-ईश्वरीय गुण है- वह आंतरिक आनंद के रूप में उपलब्ध होता है । ऐश्वर्य की परिधि छोटी भी है और बड़ी भी । छोटा ऐश्वर्य छोटी-छोटी सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने पर उनके चरितार्थ होते समय सामयिक रूप से मिलता रहता है ।
यह स्वउपार्जित, सीमित आनंद देने वाला और सीमित समय तक रहने वाला ऐश्वर्य है । इसमें भी स्वल्प कालीन अनुभूति होती है और उसका रस कितना मधुर है यह अनुभव करने पर अधिक उपार्जन का उत्साह बढ़ता है ।
भुवनेश्वरी इससे ऊँची स्थिति है । उसमें सृष्टि भर का ऐश्वर्य अपने अधिकार में आया प्रतीत होता है । स्वामी रामतीर्थ अपने को ‘राम बादशाह’ कहते थे । उनको विश्व का अधिपति होने की अनुभूति होती थी, फलतः उस स्तर का आनंद लेते थे, जो समस्त विश्व के अधिपति होने वाले को मिल सकता है ।
छोटे-छोटे पद पाने वाले-सीमित पदार्थों के स्वामी बनने वाले, जब अहंता को तृप्त करते और गौरवान्वित होते हैं तो समस्त विश्व का अधिपति होने की अनुभूति कितनी उत्साहवर्धक होती होगी, इसकी कल्पना भर से मन आनंद विभोर हो जाता है । राजा छोटे से राज्य के मालिक होते हैं, वे अपने को कितना श्रेयाधिकारी, सम्मानास्पद एवं सौभाग्यवान् अनुभव करते हैं , इसे सभी जानते हैं । छोटे-बडे़ राजपद पाने की प्रतिस्पर्धा इसीलिए रहती है कि अधिपत्य का अपना गौरव और आनन्द हैं ।
यह वैभव का प्रसंग चल रहा है । यह मानवी एवं भौतिक है । ऐश्वर्य दैवी,आध्यात्मिक,भावनात्मक है । इसलिए उसके आनन्द की अनुभूति उसी अनुपात से अधिक होती है । भुवन भर की चेतनात्मक आनन्दानुभूति का आनन्द जिसमें भरा हो उसे भुवनेश्वरी कहते है । गायत्री की यह दिव्यधारा जिस पर अवतरित होती है, उसे निरन्तर यही लगता है कि उसे विश्व भर के ऐश्वर्य का अधिपति बनने का सौभाग्य मिल गया है ।
वैभव की तुलना में ऐश्वयर् का आनन्द असंख्य गुणा बड़ा है । ऐसी दशा में सांसारिक दृष्टि से सुसम्पन्न समझे जाने की तुलना में भुवनेश्वरी की भूमिका में पहुँचा हुआ साधक भी लगभग उसी स्तर की भाव संवेदनाओं से भरा रहता है, जैसा कि भुवनेश्वर भगवान् को स्वयं अनुभव होता होगा ।
भावना की दृष्टि से यह स्थिति परिपूणर् आत्मगौरव की अनुभूति है । वस्तु स्थिति की दृष्टि से इस स्तर का साधक ब्रह्मभूत होता है, ब्राह्मी स्थिति में रहता है । इसलिए उसकी व्यापकता और समर्थता भी प्रायः परब्रह्म के स्तर की बन जाती है । वह भुवन भर में बिखरे पड़े विभिन्न प्रकार के पदार्थों का नियन्त्रण कर सकता है । पदार्थों और परिस्थितियों के माध्यम से जो आनन्द मिलता है उसे अपने संकल्प बल से अभीष्ट परिमाण में आकषिर्त-उपलब्ध कर सकता है ।
भुवनेश्वरी मनः स्थिति में विश्वभर की अन्तः चेतना अपने दायित्व के अन्तगर्त मानती है । उसकी सुव्यवस्था का प्रयास करती है । शरीर और परिवार का स्वामित्व अनुभव करने वाले इन्हीं के लिए कुछ करते रहते हैं । विश्वभर को अपना ही परिकर मानने वाले का निरन्तर विश्वहित में ध्यान रहता है ।
परिवार सुख के लिए शरीर सुख की परवाह न करके प्रबल पुरुषार्थ किया जाता है । जिसे विश्व परिवार की अनुभूति होती है । वह जीवन-जगत् से आत्मीयता साधता है । उनकी पीड़ा और पतन को निवारण करने के लिए पूरा-पूरा प्रयास करता है । अपनी सभी सामर्थ्य को निजी सुविद्या के लिए उपयोग न करके व्यापक विश्व की सुख शान्ति के लिए, नियोजित रखता है ।
वैभव उपाजर्न के लिए भौतिक पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है । ऐश्वर्य की उपलब्धि भी आत्मिक पुरुषार्थ से ही संभव है । व्यापक ऐश्वयर् की अनुभूति तथा सामथ्यर् प्राप्त करने के लिए साधनात्मक पुरुषाथर् करने पड़ते है । गायत्री उपासना में इस स्तर की साधना जिस विधि-विद्यान के अन्तगर्त की जाती है उसे ‘भुवनेश्वरी’ कहते है ।
भुवनेश्वरी के स्वरूप, आयुध, आसन आदि का संक्षेप में-विवेचन इस तरह है–
भुवनेश्वरी के एक मुख, चार हाथ हैं । चार हाथों में गदा-शक्ति का एवं राजंदंड-व्यवस्था का प्रतीक है । माला-नियमितता एवं आशीर्वाद मुद्रा-प्रजापालन की भावना का प्रतीक है । आसन-शासनपीठ-सवोर्च्च सत्ता की प्रतीक है