‘तुः’ अक्षरस्य च देवी शाम्भवी देवता शिवः ।।
बीजं ‘शं’ अत्रिरेवर्षिः शाम्भवी यन्त्रमेव च ।।
भूती मुक्ताशिवे मुक्तिः फलं चानिष्टनाशनम्॥
अर्थात – ‘तुः’ अक्षर की देवी- ‘शाम्भवी’, देवता- ‘शिव’, बीज- ‘शं’, ऋषि- ‘अत्रि’, यंत्र- ‘शाम्भवीयन्त्रम्’, विभूति- ‘मुक्ता एवं शिवा’ तथा ‘प्रतिफल’- मुक्तिप्राप्ति तथा अनिष्ट- निवारण’ है ।।
त्रिपदा गायत्री का तीसरा प्रवाह शाम्भवी है ।। इसे उपयोगी परिवर्तन की शक्ति माना जाता है ।।
दूसरे शब्दों में यह काया कल्प की वह सामर्थ्य है जो जीर्णता को नवीनता में- मूर्छना को चेतना में- शिथिलता को सक्रियता में तथा मरण को जीवन में परिवर्तन करती है ।। पुनर्जीवन, नव निर्माण इसी को कहते हैं ।। गायत्री की शाम्भवी शक्ति वह है जो अशक्त को शक्तिवान और कुरूप को सौन्दयर्वान बनाने में निरन्तर संलग्न रहती है ।। प्रकारान्तर से इसे शिव- शक्ति भी कह सकते हैं ।।
शाम्भवी के दो आयुध हैं त्रिशूल व डमरू ।। त्रिशूल अर्थात तीन धार वाला वह शस्त्र जो मनुष्य की आधिभौतिक, आध्यात्मिक एवं आधि- दैविक विपत्तियों को विदीर्ण करने में पूरी तरह समर्थ है ।।
मनुष्य जीवन में अनेकानेक कष्ट, संकट उत्पन्न करने वाले तीन कारण हैं
(१) अज्ञान
(२) अभाव
(३) अशक्ति
इन तीनों का निवारण करने वाले (१) ज्ञान (२) पुरुषाथर् (३) संयम के तीन शस्त्र उठाने पड़ते हैं ।। इन तीनों का समन्वय त्रिशूल है ।। शांभवी की उपासना करने वाला त्रिशूल धारी बनता है ।। गायत्री साधना में यदि सच्ची लगन हो तो व्यक्तित्व में ऐसी प्रतिभा का विकास होता है जो पिछड़ी हुई मनःस्थिति एवं परिस्थिति से उलट कर समृद्ध एवं समुन्नत बना सके ।।
डमरू जागरण का उत्साह का- अग्रगमन का प्रतीक है ।। शांभवी के एक हाथ में डमरू होने का अर्थ है कि इस शक्ति- धारा के सम्पर्क में आने पर नव जागरण का- पुरुषार्थ, प्रयासों में उत्साह का, ऊँचा उठने, आगे बढ़ने का साहस उत्पन्न होता है ।।
शाम्भवी का वाहन वृषभ है ।। शिव को अपनी प्रकृति के अनुरूप सभी प्राणियों में यही भाया है ।। वृषभ बलिष्ठ भी होता है और परिश्रमी भी ।। सौम्य भी होता है और सहिष्णु भी ।। उसकी शक्ति सृजनात्मक प्रयोजनों में लगी रहती है ।। समर्थ होते हुए भी वह अपनी क्षमता को पूरी तरह सृजन प्रयोजनों में लगाये रहता है ।।
ध्वंस में उसकी शक्ति प्रायः नहीं ही प्रयुक्त होती ।। वृषभ श्रम, साहस, धैर्य, एवं सौजन्य का प्रतीक है ।। इस गुण की जहाँ जितनी मात्रा होगी वहाँ उतना ही अधिक स्नेह, सहयोग शाम्भवी का बरसेगा ।। इन सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए शाम्भवी की उपासना की जाती है ।।
शाम्भवी के मस्तिष्क के मध्य में तीसरा नेत्र है ।। तीसरा नेत्र अर्थात् शक्तियों के सन्दर्भ में उसे दूरदर्शन, परोक्ष दर्शन, भविष्य दर्शन आदि का केन्द्र संस्थान माना जाता है ।। यही तत्त्वदर्शियों की बिन्दु- साधना का लक्ष्य आज्ञाचक्र है ।। इसी के खुलने से अशुभों और अनिष्टों को परास्त किया जा सकता है ।।
भगवान शंकर ने इसी तृतीय नेत्र को खोलकर कामदेव को भस्म किया था ।। दमयंती ने इसी को खोल कर व्याध को भस्म किया था ।। यह आज्ञाचक्र में सन्निहित शाप क्षमता का परिचय है ।। दूसरी व्याख्या यह है कि तृतीय नेत्र- आज्ञा चक्र के जागरण से उस विवेक शीलता का विकास होता है जो कषाय- कल्मषों की हानियों को स्पष्ट रूप से दिखा सके ।।
सामान्य मनुष्य प्रत्यक्ष लाभ के लिए ही भविष्य को नष्ट करते रहते हैं, पर जागृत विवेक सदा दूरगामी परिणामों को ही देखता है और तदनुरूप वर्तमान की गतिविधियों का निर्धारण – करता है ।। इसी रीति- नीति के सहारे सामान्य मनुष्यों को असामान्य एवं महामानव बनने का अवसर मिलता है ।।
शाम्भवी की उपासना में तीसरा ज्ञान- चक्षु खुलता है और उसी से अर्जुन की तरह आत्म दर्शन – ब्रह्मदर्शन का लाभ मिलता है ।। वह सूझ पड़ता है, जो सामान्य लोगों की कल्पना एवं प्रकृति से सर्वथा बाहर होता है ।।
संक्षेप में शाम्भवी के स्वरूप, वाहन, आयुध आदि का तात्त्विक विवेचन इस तरह है
शाम्भवी के एक मुख, सिर पर गंगा एवं द्वितीया का चन्द्रमा जो सद्ज्ञान की धारा और विकासमान शान्त मस्तिष्क का प्रतीक है ।।
चार हाथों में त्रिशूल- तीन शत्रुओं (वासना, तृष्णा, अहंकार) को नष्ट करने का प्रतीक, डमरू- शिवत्व का उद्घोष, कमण्डलु- पात्रता विकास तथा आशीर्वाद मुद्रा- श्रेष्ठ पुरुषों- देवताओं से लेकर पिछड़े लोगों- प्रेत तक के लिए मार्गदर्शन का आश्वासन है ।।
No comments:
Post a Comment