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‘द’ तु पयस्विनी देवी देवता वरुणस्तथा ।
बीजं ‘वं’ धौम्यं एवषिर्यर्न्त्रं वरुणयन्त्रकम्॥
विभूती च स्वधाद्रेर् द्वे विद्यन्तेऽपि फलं तथा ।
स्नेहः सरसता चेयं द्वयं देेवि यथाक्रमम्॥
अर्थात्– ‘द’ अक्षर की देवी-‘पयस्विनी’, देवता-‘वरुण’, बीज-‘वं’,ऋषि-‘धौम्य’,यन्त्र-‘वरुणयन्त्रम्’, विभूति-‘स्वधा एवं आद्रार्’ और प्रतिफल -‘स्नेह एवं सरसता’ है ।
पयस्विनी गौ माता को कहते हैं । स्वर्ग में निवास करने वाली कामधेनु को भी पयस्विनी कहा गया है । गायत्री साधना की सफलता के लिए साधक में ब्राह्मणत्व और गौ के सानिध्य में अत्यन्त घनिष्टता है । पंचामृत , पंचगव्य को अमृतोपम माना गया है । गोमय, गोमूत्र की उर्वरता और रोग निवारिणी शक्ति सवर् विदित है । भारतीय कृषिकर्म के लिए गौवंश के बिना काम ही नहीं चल सकता । पोषक आहार में गोरस अग्रणी है ।
गौ की संरचना में आदि से अन्त तक सात्विकता भरी पड़ी है । पयस्विनी का महत्त्व जब इस देश में समझा जाता था, तब यहाँ दूध की नदियाँ बहती थीं और मनुष्य शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से देवोपम जीवन यापन करते थे ।
गायत्री साधक के अन्तःकरण में कामधेनु का अवतरण होता है । उसकी कामनाएँ भावनाओं में बदल जाती है । फलतः साधक को संसार के सबसे बड़े कष्ट-असंतोष से सहज ही निवृत्ति मिल जाती है । कामनाएँ असीम हैं । एक के तृप्त होते-होते, दूसरी उससे भी बड़े आकार में उठ खड़ी होती है । संसार भर के समस्त साधन-सम्पदा मिल कर भी किसी एक मनुष्य की कामनाएँ पूर्ण नहीं कर सकती ।
पूर्ण तो सद्भावनाएँ होती हैं, जो अभीष्ट परिणाम न मिलने पर भी अपनी इच्छा और चेष्टा में उत्कृष्टता भरी रहने के कारण आनन्द, उल्लास से उमगती रहती हैं । चिन्तन के इसी स्तर को कल्प-वृक्ष कहते हैं । प्रकारान्तर से यही कामधेनु है ।
कामधेनु गायत्री माता द्वारा प्रेरित प्रदत्त वह प्रवृत्ति है जो अन्तरात्मा में उच्चस्तरीय अध्यात्म-आस्था के रूप मे प्रकट होती है । यह साधक को वैसा ही आनन्द देती हैं जैसा बच्चे को अपनी माता का पयपान करते समय मिलता है । इसी को आत्मानन्द, ब्रह्मानन्द, परमानन्द कहते हैं ।
पूर्णता की परम तृप्ति पाना ही जीवन लक्ष्य है । गायत्री का उच्चस्तरीय अनुग्रह इसी रूप में उपलब्ध होता हैं । यही तृप्ति वरदान कामधेनु की उपलब्धि है । गायत्री साधक उस दैवी अनुकम्पा का रसास्वादन करते और साधना की सफलता का अनुभव करते हैं ।
गायत्री वर्ग में पाँच ‘ग’ परक श्रेष्ठताओं को समावेश है । गायत्री,गंगा, गौ, गीता, गोविन्द । गंगा और गायत्री का जन्म दिन एक ही है । गौ सेवा के सम्मिश्रण से वह त्रिवेणी बन जाती है । गायत्री उपासना सफलता में गौ सम्पर्क हर दृष्टि से सहायक होता है ।
गायत्री को कामधेनु कहा गया है । कामधेनु और पयस्विनी पयार्यवाची हैं । कामधेनु की चर्चा करते हुए शास्त्रकारों ने उसे कल्पवृक्ष के समान मनोकामनाओं की पूर्ति करने की विशेषता से युक्त बताया है । कामनाएँ तो इतनी असीम है कि उनकी पूतिर् कर सकना भगवान तक के लिए संभव नहीं हो सकता । पर कामनाओं को परिष्कृत करके वह आन्नद प्राप्त किया जा सकता है, जिनकी कामनाओं की पूर्ति होने पर मिलने की कल्पना की जाती है ।
देवता आप्तकाम होते हैं । आप्तकाम उसे कहते हैं, जिसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जायें । पूर्ण एवं तृप्त वे उच्चस्तरीय कामनाएँ ही हो सकती हैं, जिन्हें सद्भावना कहते हैं । उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श पालन में किसी को कभी कुछ कठिनाई नहीं हो सकती । सद्भावनाओं को हर हालत में चरितार्थ किया जा सकता है । आप्तकाम को ही तुष्टि,तृप्ति एवं शान्ति का आनन्द मिलता है । कल्पवृक्ष स्वर्ग में है- देवता आप्तकाम होते हैं । कल्पवृक्ष कामनाओं की पूर्ति करता है ।
यह समस्त प्रतिपादन एक ही तथ्य को प्रकट करता है, कि देवत्व और आप्तकाम मनःस्थिति एक ही बात है । अतृप्ति की उद्विग्नता देवताओं के पास फटकने नहीं पाती । यह सब लिप्सा-लालसाओं की कामनाओं को सद्भावनाओं और शुभेच्छाओं में बदलने से ही संभव हो सकता है । कल्पवृक्ष और कामधेनु दोनों की विशेषता यही है कि वे कामनाओं की पूर्ति तत्काल कर देते हैं ।
गायत्री को कल्पवृक्ष भी कहते हैं, और कामधेनु भी, उसकी छाया में बैठने वाला, पयपान करने वाला आप्तकाम रहता है । कामनाओं के परिष्कृत और लालसाओं के समाप्त होने पर मनुष्य को असीम संतोष एवं अजस्त्र आनन्द की प्राप्ति होती है । कामधेनु की अनुकम्पा इसी रूप में होती है । कथा है कि गुरु वशिष्ठ के पास कामधेनु की पुत्री नन्दिनी गाय थी । उसने राजा विश्वामित्र को उपहार भी दिया और कुकृत्य का दण्ड भी ।
नन्दिनी के इन्हीं चमत्कारों से प्रभावित होकर विश्वामित्र ने राज्य छोड़कर तप करने का निश्चय किया था । यह नन्दिनी अथवा कामधेनु गायत्री ही है ।
कामधेनु का पयपान करने वाले देवता अजर-अमर रहते हैं । अजर अर्थात् जरा रहित-बुढ़ापे से दूर-चिरयौवन का आनन्द लेने वाले । शरीर क्रम में तो यह संभव नहीं । सृष्टिक्रम में हर शरीर को जन्म-मरण के चक्र में घूमना पड़ता है और समयनुसार वृद्घावस्था भी आती है । कामधेनु का पयपान करने से जिस स्वास्थ्य और सौन्दर्य की चर्चा की गई , वह शरीरिक नहीं मानसिक और आत्मिक है ।
गायत्री उपासना कामधेनु का कृपापात्र मानसिक दृष्टि से सदा युवा ही बना रहता है । उसकी आशाएँ, उमंगें कभी धूमिल नहीं पड़ने पाती । आंखों में चमक,चेहरे पर तेज, होठों पर मुसकान कभी घटती नहीं है । यही चिर यौवन है । इसी को अजर स्थिति कहते हैं । कामधेनु का- गायत्री का यह देवोपम स्वत प्रत्यक्ष वरदान है । कामधेनु का पयपान करने वाले अमर हो जाते हैं । गायत्री उपासक भी अमर होते हैं ।
शरीर धारण करने पर तो हर किसी को समयानुसार मरना ही पड़ेगा, पर आत्मा की वस्तुस्थिति का ज्ञान हो जाने पर अमरता का ही अनुभव होता है । शरीर बदलते रहने पर भी मरण जैसी विभीषिका आत्मज्ञानी के सामने खड़ी नहीं होती । उसके सत्कर्म,एंव आदर्श ऐसे अनुकरणीय होते हैं कि उनके कारण यश अमर ही बना रहता है । गायत्री को पयस्विनी इसी कारण कहा गया है और उसे धरती की कामधेनु कह कर पुकारा गया है ।
पयस्विनी के स्वरूप, आसन आदि का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है–
पयस्विनी के एक मुख चार हाथों में-पय कलश, पयपान से दिव्य क्षमता पोषण के लिए, कमल से सुसंस्कारिता और कमण्डलु से विराग का, आशीर्वाद मुद्रा से भक्त वत्सलता का बोध होता है । आसन-कमल-निविर्कारिता का प्रतीक है ।
‘द’ तु पयस्विनी देवी देवता वरुणस्तथा ।
बीजं ‘वं’ धौम्यं एवषिर्यर्न्त्रं वरुणयन्त्रकम्॥
विभूती च स्वधाद्रेर् द्वे विद्यन्तेऽपि फलं तथा ।
स्नेहः सरसता चेयं द्वयं देेवि यथाक्रमम्॥
अर्थात्– ‘द’ अक्षर की देवी-‘पयस्विनी’, देवता-‘वरुण’, बीज-‘वं’,ऋषि-‘धौम्य’,यन्त्र-‘वरुणयन्त्रम्’, विभूति-‘स्वधा एवं आद्रार्’ और प्रतिफल -‘स्नेह एवं सरसता’ है ।
पयस्विनी गौ माता को कहते हैं । स्वर्ग में निवास करने वाली कामधेनु को भी पयस्विनी कहा गया है । गायत्री साधना की सफलता के लिए साधक में ब्राह्मणत्व और गौ के सानिध्य में अत्यन्त घनिष्टता है । पंचामृत , पंचगव्य को अमृतोपम माना गया है । गोमय, गोमूत्र की उर्वरता और रोग निवारिणी शक्ति सवर् विदित है । भारतीय कृषिकर्म के लिए गौवंश के बिना काम ही नहीं चल सकता । पोषक आहार में गोरस अग्रणी है ।
गौ की संरचना में आदि से अन्त तक सात्विकता भरी पड़ी है । पयस्विनी का महत्त्व जब इस देश में समझा जाता था, तब यहाँ दूध की नदियाँ बहती थीं और मनुष्य शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से देवोपम जीवन यापन करते थे ।
गायत्री साधक के अन्तःकरण में कामधेनु का अवतरण होता है । उसकी कामनाएँ भावनाओं में बदल जाती है । फलतः साधक को संसार के सबसे बड़े कष्ट-असंतोष से सहज ही निवृत्ति मिल जाती है । कामनाएँ असीम हैं । एक के तृप्त होते-होते, दूसरी उससे भी बड़े आकार में उठ खड़ी होती है । संसार भर के समस्त साधन-सम्पदा मिल कर भी किसी एक मनुष्य की कामनाएँ पूर्ण नहीं कर सकती ।
पूर्ण तो सद्भावनाएँ होती हैं, जो अभीष्ट परिणाम न मिलने पर भी अपनी इच्छा और चेष्टा में उत्कृष्टता भरी रहने के कारण आनन्द, उल्लास से उमगती रहती हैं । चिन्तन के इसी स्तर को कल्प-वृक्ष कहते हैं । प्रकारान्तर से यही कामधेनु है ।
कामधेनु गायत्री माता द्वारा प्रेरित प्रदत्त वह प्रवृत्ति है जो अन्तरात्मा में उच्चस्तरीय अध्यात्म-आस्था के रूप मे प्रकट होती है । यह साधक को वैसा ही आनन्द देती हैं जैसा बच्चे को अपनी माता का पयपान करते समय मिलता है । इसी को आत्मानन्द, ब्रह्मानन्द, परमानन्द कहते हैं ।
पूर्णता की परम तृप्ति पाना ही जीवन लक्ष्य है । गायत्री का उच्चस्तरीय अनुग्रह इसी रूप में उपलब्ध होता हैं । यही तृप्ति वरदान कामधेनु की उपलब्धि है । गायत्री साधक उस दैवी अनुकम्पा का रसास्वादन करते और साधना की सफलता का अनुभव करते हैं ।
गायत्री वर्ग में पाँच ‘ग’ परक श्रेष्ठताओं को समावेश है । गायत्री,गंगा, गौ, गीता, गोविन्द । गंगा और गायत्री का जन्म दिन एक ही है । गौ सेवा के सम्मिश्रण से वह त्रिवेणी बन जाती है । गायत्री उपासना सफलता में गौ सम्पर्क हर दृष्टि से सहायक होता है ।
गायत्री को कामधेनु कहा गया है । कामधेनु और पयस्विनी पयार्यवाची हैं । कामधेनु की चर्चा करते हुए शास्त्रकारों ने उसे कल्पवृक्ष के समान मनोकामनाओं की पूर्ति करने की विशेषता से युक्त बताया है । कामनाएँ तो इतनी असीम है कि उनकी पूतिर् कर सकना भगवान तक के लिए संभव नहीं हो सकता । पर कामनाओं को परिष्कृत करके वह आन्नद प्राप्त किया जा सकता है, जिनकी कामनाओं की पूर्ति होने पर मिलने की कल्पना की जाती है ।
देवता आप्तकाम होते हैं । आप्तकाम उसे कहते हैं, जिसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जायें । पूर्ण एवं तृप्त वे उच्चस्तरीय कामनाएँ ही हो सकती हैं, जिन्हें सद्भावना कहते हैं । उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श पालन में किसी को कभी कुछ कठिनाई नहीं हो सकती । सद्भावनाओं को हर हालत में चरितार्थ किया जा सकता है । आप्तकाम को ही तुष्टि,तृप्ति एवं शान्ति का आनन्द मिलता है । कल्पवृक्ष स्वर्ग में है- देवता आप्तकाम होते हैं । कल्पवृक्ष कामनाओं की पूर्ति करता है ।
यह समस्त प्रतिपादन एक ही तथ्य को प्रकट करता है, कि देवत्व और आप्तकाम मनःस्थिति एक ही बात है । अतृप्ति की उद्विग्नता देवताओं के पास फटकने नहीं पाती । यह सब लिप्सा-लालसाओं की कामनाओं को सद्भावनाओं और शुभेच्छाओं में बदलने से ही संभव हो सकता है । कल्पवृक्ष और कामधेनु दोनों की विशेषता यही है कि वे कामनाओं की पूर्ति तत्काल कर देते हैं ।
गायत्री को कल्पवृक्ष भी कहते हैं, और कामधेनु भी, उसकी छाया में बैठने वाला, पयपान करने वाला आप्तकाम रहता है । कामनाओं के परिष्कृत और लालसाओं के समाप्त होने पर मनुष्य को असीम संतोष एवं अजस्त्र आनन्द की प्राप्ति होती है । कामधेनु की अनुकम्पा इसी रूप में होती है । कथा है कि गुरु वशिष्ठ के पास कामधेनु की पुत्री नन्दिनी गाय थी । उसने राजा विश्वामित्र को उपहार भी दिया और कुकृत्य का दण्ड भी ।
नन्दिनी के इन्हीं चमत्कारों से प्रभावित होकर विश्वामित्र ने राज्य छोड़कर तप करने का निश्चय किया था । यह नन्दिनी अथवा कामधेनु गायत्री ही है ।
कामधेनु का पयपान करने वाले देवता अजर-अमर रहते हैं । अजर अर्थात् जरा रहित-बुढ़ापे से दूर-चिरयौवन का आनन्द लेने वाले । शरीर क्रम में तो यह संभव नहीं । सृष्टिक्रम में हर शरीर को जन्म-मरण के चक्र में घूमना पड़ता है और समयनुसार वृद्घावस्था भी आती है । कामधेनु का पयपान करने से जिस स्वास्थ्य और सौन्दर्य की चर्चा की गई , वह शरीरिक नहीं मानसिक और आत्मिक है ।
गायत्री उपासना कामधेनु का कृपापात्र मानसिक दृष्टि से सदा युवा ही बना रहता है । उसकी आशाएँ, उमंगें कभी धूमिल नहीं पड़ने पाती । आंखों में चमक,चेहरे पर तेज, होठों पर मुसकान कभी घटती नहीं है । यही चिर यौवन है । इसी को अजर स्थिति कहते हैं । कामधेनु का- गायत्री का यह देवोपम स्वत प्रत्यक्ष वरदान है । कामधेनु का पयपान करने वाले अमर हो जाते हैं । गायत्री उपासक भी अमर होते हैं ।
शरीर धारण करने पर तो हर किसी को समयानुसार मरना ही पड़ेगा, पर आत्मा की वस्तुस्थिति का ज्ञान हो जाने पर अमरता का ही अनुभव होता है । शरीर बदलते रहने पर भी मरण जैसी विभीषिका आत्मज्ञानी के सामने खड़ी नहीं होती । उसके सत्कर्म,एंव आदर्श ऐसे अनुकरणीय होते हैं कि उनके कारण यश अमर ही बना रहता है । गायत्री को पयस्विनी इसी कारण कहा गया है और उसे धरती की कामधेनु कह कर पुकारा गया है ।
पयस्विनी के स्वरूप, आसन आदि का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है–
पयस्विनी के एक मुख चार हाथों में-पय कलश, पयपान से दिव्य क्षमता पोषण के लिए, कमल से सुसंस्कारिता और कमण्डलु से विराग का, आशीर्वाद मुद्रा से भक्त वत्सलता का बोध होता है । आसन-कमल-निविर्कारिता का प्रतीक है ।
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