Tuesday 26 July 2016

महाकाली_

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‘हि’ देवी तु महाकाली महाकालश्च देवता ।।
बीजं ‘क्लीं’ कथितान्येवं दुवार्साश्चैव स ऋषिः॥
कालिका यन्त्रमेवं च भूती भगार् च वज्रणी ।।
अस्य प्रतिफलं शत्रुनाशः कल्मषनाशनम्॥
अर्थात् — ‘हि’ अक्षर की देवी — ‘महाकाली’, देवता- ‘महाकाल’, बीज — ‘क्लीं’, ऋषि- ‘दुर्वासा’, यन्त्र — ‘कालिकायंत्रम्’, विभूति — ‘भगार एवं वज्रणी’ तथा प्रतिफल- ‘कल्मषनाश एवं शत्रुनाश’ हैं ।।
गायत्री की एक धारा दुर्गा है ।। दुर्गा को ही काली कहते हैं ।। काली को महाकाल की सहधर्मिणी माना गया है ।। महाकाल अर्थात् सुविस्तृत समय सौरभ ।। काल की महत्ता स्वीकार करने वाले, उसकी उपयोगिता समझने वाले, उसका सदुपयोग करने वाले काली के उपासक कहे जाते हैं ।।
आलस्य में शरीर और प्रमाद में मन की क्षमता को नष्ट होने से बचा लिया जाय तो सामान्य स्तर का मनुष्य भी अभीष्ट उद्देश्यों में चरम सफलता प्राप्त कर सकता है ।। समय ही ईश्वर प्रदत्त वह सम्पदा है जिसका उपयोग करके मनुष्य जिस प्रकार की भी सफलता प्राप्त करना चाहे उसे प्राप्त कर सकता है ।।
ईश्वर सूक्ष्म है, उसका पुत्र जीव भी सूक्ष्म है ।। पिता से पुत्र को मनुष्य जन्म का महान् अनुदान तो मिला ही है, साथ ही समय रूपी ऐसा अदृश्य धन भी मिला है जिसे यदि आलस्य- प्रमाद में बर्बाद न किया जाय, किसी प्रयोजन विशेष के लिए नियोजित रखा जाय तो उसके बदले में सांसारिक एवं आध्यात्मिक सम्पदायें प्रचुर परिमाण में उपलब्ध की जा सकती है ।। इस तथ्य को गायत्री काली विग्रह में स्पष्ट किया गया है ।।
हर दिन व्यस्त योजना बनाकर चलना और उस प्रयास में प्राणपण से एकाग्र भाव से, जुटे रहना इष्ट प्राप्ति का सुनियोजित आधार है ।। इसी रीति- नीति में गहन श्रद्धा उत्पन्न कर लेना महाकाल की उपासना है ।। इसी अवलम्बन को अपनाने से महामानवों की भूमिका को सम्पादित कर सकना संभव हो सकता है ।।
काली के अन्यान्य नाम भी है ।। दुर्गा, चण्डी, अम्बा, शिवा, पार्वती, आदि उसी को कहते हैं ।। इसका एक रूप संघ शक्ति भी है ।। एकाकीपन सदा अपूर्ण ही रहता है, भले ही वह कितना ही समर्थ, सुयोग्य एवं सम्पन्न क्यों न हो ।। जिसे जितना सहयोग मिल जाता है वह उसी क्रम से आगे बढ़ता है ।। संगठन की महिमा अपार है ।।
व्यक्ति और समाज की सारी प्रगति, समृद्धि और शान्ति का आधार सामूहिकता एवं सहकारिता है ।। अब तक की मानवी उपलब्धियाँ सहकारी प्रकृति के कारण ही सम्भव हुई हैं ।। भविष्य में भी कुछ महत्त्वपूर्ण पाना हो तो उसे सम्मिलित उपायों से ही प्राप्त किया जा सकेगा ।।
दुर्गा अवतार की कथा है कि असुरों द्वारा संत्रस्त देवताओं का उद्धार करने के लिए प्रजापति ने उनका तेज एकत्रित किया था और उसे काली का रूप देकर प्रचण्ड शक्ति उत्पन्न की थी ।। उस चण्डी ने अपने पराक्रम से असुरों को निरस्त किया था और देवताओं को उनका उचित स्थान दिलाया था ।।
इस कथा में यही प्रतिपादन है कि सामूहिकता की शक्ति असीम है ।। इसका जिस भी प्रयोजन में उपयोग किया जाएगा, उसी में असाधारण सफलता मिलती चली जाएगी ।।
दुर्गा का वाहन सिंह है ।। वह पराक्रम का प्रतीक है ।। दुर्गा की गतिविधियों में संघर्ष की प्रधानता है ।। जीवन संग्राम में विजय प्राप्त करने के लिए हर किसी को आंतरिक दुर्बलताओं और स्वभावगत दुष्प्रवृत्तियों से निरंतर जूझना पड़ता है ।।
बाह्य जीवन में अवांछनीयताओं एवं अनीतियों के आक्रमण होते रहते हैं और अवरोध सामने खड़े रहते हैं ।। उनसे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है ।। शांति से रहना तो सभी चाहते हैं, पर आक्रमण और अवरोधों से बच निकलना कठिन है ।।
उससे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं ।। ऐसे साहस का, शौर्य- पराक्रम का उद्भव गायत्री महाशक्ति के अंतर्गत दुर्गा तत्त्व के उभरने पर संभव होता है ।। गायत्री उपासना से साधक के अंतराल में उसी स्तर की प्रखरता उभरती है ।। इसे दुर्गा का अनुग्रह साधक को उपलब्ध हुआ माना जाता है ।।
महाकाली के स्वरूप एवं आयुध आदि का संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार है –
काली का विकराल मुख- असुरता को भयभीत करने वाला है ।। चार हाथों में खड्ग और राक्षस का सिर- असुरता के विनाश हेतु, खप्पर (पात्र) धारण शक्ति का तथा अभयमुद्रा देव पक्ष के लिए आश्वासन है ।। शिव के मार्ग में आने पर रोष में भी पैर उठा रह जाना- शिवत्व की मर्यादा रखने का प्रतीक है ।।

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