Friday 22 July 2016

गुरू प्रसाद श्रेष्ठतम है

। गुरू का सान्निध्य ही पवित्र काशीधाम है; वही अक्षयवट और तीर्थराज प्रयाग हैं। गुरूदेव ही भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान शंकर हैं और वही तारक ब्रह्म हैं। सदगुरू का चिंतन स्वयं आराध्य का ही चिंतन है।

अतएव मंगलकामना की चाह वाले साधक इसे अवश्य करें। गुरूमुख में ही ब्रह्मविद्या स्थित है। गुरूभक्ति से ही इसे प्राप्त किया जा सकता है। सदगुरू ही अज्ञानांधकार को हटाने वाले प्रकाशपुंज हैं। गुरूकृपा से ही माया की भ्राँति नष्ट हो जाती है। सदगुरू के प्रति सम्पूर्ण भाव भरा समर्पण सर्व भव रोगों की अचूक दवा है।

समस्याएँ लौकिक हों, अलौकिक हों, भौतिक हों, अभौतिक हों, आध्यात्मिक हों अथवा आधिदैविक हों; गुरूचरणों में इन सारी समस्याओं का सम्पूर्ण समाधान समाए हुए है। गुरू चरणों की कृपा से गुरूभक्त साधक को अपना साधना फल अनायास ही सुलभ हो जाता है।

गुरू नमन की भाव भरी साधना के सभी तत्व, सभी सत्य, सहसा, सहज सुलभ हो जाते हैं। नमन-साधना की यह प्रक्रिया अत्यन्त सरलऔर सुलभ होते हुए भी परम दुर्लभ हैं। इसमें दुर्लभता उस गुरूतत्व के बोध की है, जो गहन श्रद्धा से ही संभव है। यदि श्रद्धा से परिपूर्ण एवं परिवपक्व न हो तो सदगुरू को सामान्य मानव समझने की भूल होती ही रहती है।

श्रद्धा और समर्पण की सघनता से ही यह रहस्य समझ में आता है कि गुरूदेव मूर्तिमान भगवान हैं। गुरूचेतना का नमन ही ब्रह्मचेतना का नमन है। नमन उन श्री गुरू को जो अपने शिष्य के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर होने के साथ ही साथ स्वयं परब्रह्म परमपिता परमेश्वर भी हैं।

गुरू ब्रह्मा हैं, गुरू विष्णु हैं, गुरू महेश्वर देव हैं। गुरू ही साक्षात् परब्रह्म परमपिता परमात्मा हैं। उन्हीं गुरू को नमन है।

गुरूगीता – 32 के शब्दों में –
“गुरूः ब्रह्मा गुरूः विष्णु गुरूः देवो महेश्वरः।
गुरूः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।”

शुक्ररहस्योपनिषद्-1 के शब्दों में –
“नित्यानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति
द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगूरूं तं नमामि।”

श्रीरामचरितमानस- 1 /21-4, 1 / 2 / 1 के शब्दों में –
“बंदऊँ गुरू पद पदुम परागा...।”

श्रीगुरू चरण कमलों के रज की वंदना करता हूँ, जिनमें सुरूचि रूपी सुगंध और प्रेमरूपी रस की परिपूर्णता है। वह अमर-मूल संजीवनी जड़ी का सुंदर चूर्ण है, जो इस भवसागर के सम्पूर्ण रोगों को उनके कुटुम्ब परिवार सहित नष्ट करने वाली है।

वह रज पुण्यवान पुरुषरूपी श्री शिवजी के अंगों पर सुशोभित निर्मल विभूति है। वह सुन्दर, कल्याणकारी और मंगलमय परमानंद की जननी है। भक्त के मनरूपी सुन्दर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है।

श्री गुरू चरण-नखों की ज्योति, मणियों के समान प्रकाशवान है, जिनके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। यह प्रकाश अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करने वाला है। वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं।

उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र ज्योति खुल जाती है। और संसाररूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं। श्री गुरू-चरण-रज कोमल और सुन्दर नयनामृत अंजन हैं जो नत्रों के दोषों का नाश करने वाला है।

उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ ।

गुरू कोई व्यक्ति नहीं, “तत्व” है। सद्गुरु कोई एक व्यक्तित्व नहीं ‘अनेकानेक व्यक्तित्व’ है। जो प्रकट किया गया हो अथवा जो सामने लाया गया हो उसे व्यक्त कहा गया है जिसमें व्यक्त या प्रकट होने की क्रिया अथवा भाव हो उसे ही व्यक्ति कहा गया है। किसी भी जाति-समाज, वर्ग-समुदाय, धर्म-सम्प्रदाय में से कोई एक विशेष गुणी अस्तित्व को ही व्यक्ति कहा गया है। उस व्यक्ति के गुण को वयक्तित्व कहा गया है।

सर्वजन समुदाय, सर्वजन समूह, भीड़ अथवा जमाव को नहीं। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि वे विशेष गुण जिनके द्वारा किसी व्यक्ति की स्पष्ट और स्वतंत्र सत्ता सूचित होती है, वही व्यक्तित्व है। अतएव व्यक्तित्व गुरू है। गुण गुरू है। गुर गुरू है। गुर अर्थात कोई कला, कोई सीख अथवा कोई ज्ञान।

सजीव पदार्थ ही नहीं निर्जीव पदार्थ भी गुरू हो सकता है। महान धनुर्धर एकलव्य ने गुरू द्रोणचार्य की मूर्ति के माध्यम से धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था। दूसरे शब्दों में धनुर्विद्या सीखी थी। मात्र अभ्यास भी गुरू हो सकता है।

कोई पुश्त-दर-पुश्त चली आ रही पुस्तक-कॉपी, ताल-पत्र, वेद-पुराण, बाइबिल-कुरान, गुरू ग्रंथ साहेब, स्मृति, संहिता, शास्त्र, षड्दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन इत्यादि सभी साक्षात् गुरू हैं। यहाँ यह वाकया नितान्त प्रासंगिक है कि गुरू गोविंद सिंह ने अपने बाद गुरू-शिष्य परम्परा को समाप्त ही कर दिया। उन्हीं के शब्दों में –

“अभ्या भई अकाल की सोधि बनायो ग्रन्थ ।
सब सिक्खन को हुकुम है गुरू मानियो ग्रन्थ ।।”

गुरू गीता 14 “जो वेद-उपनिषद, पुराण-शास्त्र इत्यादि काव्य ग्रंथों का अध्ययन-अध्यापन, अनुशीलन-लेखन इत्यादि करते हैं वे भी वेद विहित स्वयं साक्षात् लोक-गुरू हो जाते हैं। जो राह चलते शिक्षा दे वह भी गुरू है।”

इस संबंध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं, जिनमें से एक यह है कि, किसी नगर से कुछ दूर स्थित एक गुरूकुल के एक आचार्य ने अपने शिष्यों को एक सीख दी कि व्यक्ति को कभी भी पथ भ्रष्ट नहीं होना चाहिए। सदा अपने मार्ग पर ही चलना चाहिए।

एक दिन एक शिष्य समीप स्थित नगर की ओर भिक्षाटन हेतु वन मार्ग से जा रहा था। सामने से बोझ ढोते हुए एक हाथी चला आ रहा था। उस हाथी पर सवार महावत ने सीख दी कि मार्ग से हट जाओ।

शिष्य के कान में आचार्य के शब्द गूँज रहे थे। शिष्य ने महावत के गुरूवाणी को अनसुना करते हुए मार्ग से नहीं हटा। हाथी ने अपनी सूँड से उस शिष्य को लपेटा, उठाया, पटका और चलते बना। शिष्य छटपटाते, लड़खड़ाते, कराहते वापस गुरूकुल पहुँचा। शिष्य ने शिकायत भरे भाव से आचार्य को इस घटना का पूरा ब्यौरा दिया।

आचार्य ने कहा कि व्यक्ति को किसी शब्द अथवा वाक्यांश को शब्दार्थ की कसौटी पर न कसते हुए भावार्थ की कसौटी में कसना चाहिए। सदा देश, काल और परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। तत्समय महावत भी गुरू था। उसने मार्ग से हटने हेतु सचेत किया। उसके इस संचेतना में गुरू तत्व विराजमान था।

तुमने मेरी दी हुई शिक्षा के मर्म को नहीं समझा और उस महावत की दी हुई सीख को भी नहीं समझा।
मार्ग पर किसी की बपौती नहीं होती। दूसरे शब्दों में मार्ग किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं। भारी वाहन को मार्ग देना चाहिए, हमारी संस्कृति देव संस्कृति है। लेव संस्कृति नहीं। देना सीखो, लेना नहीं। हाथी ने तुम्हें प्राणदान दिया है।

अच्छा हुआ कि उसने सूँड का उपयोग किया। पाँव का उपयोग करता तो कुचले जाते। उसके इस कर्म में भी गुरूत्व है। वह हाथी भी गुरू है। भविष्य में आजीवन उस हाथी की कृपा के लिए उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते रहना।

“अर्थ बिन सब निरर्थ है, अर्थ ही समर्थ है।
अर्थ ही अनर्थ है, बिन समझ सब व्यर्थ।”

गुरू गीता – 9,15,27,47 – जिस ज्ञान से देहधारी ब्रह्मस्वरूप प्राप्त करता है, वही गुरू है। इस त्रिभुवन में सुदुर्लभ गुरुतत्व के अतिरिक्त और किसी की सत्ता नहीं है।

गुरू तत्व को जाने बिना यज्ञ, व्रत, तप, जप, दान तथा तीर्थों आदि की सेवा निष्फल होता है। सद्गुरू से अधिक कोई तत्व नहीं, सद्गुरू से अधिक कोई तपस्या नहीं। सद्गुरू तत्व ज्ञान की अपेक्षा श्रेष्ठ कोई ज्ञान भी नहीं।

इस प्रकार निष्कर्ष यह है कि माता-पिता, भाई-बन्धु, सगे-संबंधी, विद्यालयीन शिक्षक, गुरू मंत्र अथवा दीक्षा देने वाले गुरू ही गुरू नहीं हैं। ये सभी और अन्य अनेकानेक भी गुरू हैं।

ये भी गुरू हैं और वे भी गुरू हैं। अतएव किसी भी ज्ञान-विज्ञान, विद्या, बुद्धि और विवेक तत्व को गुरू मानकर उसकी पूजा करना ही श्रेयस्कर है। यही गुरू वंदना है।

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