‘भ’ वणर्स्य देवीं तु मता मन्दाकिनी वसुः ।।
देवता बीजं ‘उं’ चैव गौतमोऽसावृषिस्तथा॥
निमर्ला यन्त्रमेवं च निमर्ला विरजे पुनः ।।
भूती सन्ति फलं चैव निमार्ल्यं पापनाशनम्॥
अर्थात – ‘भ’ अक्षर की देवी- ‘मन्दाकिनी’, देवता- ‘वसु’, बीज- ‘उं’, ऋषि- ‘गौतम’, यन्त्र- निर्मालायन्त्रम, विभूति- निर्मला एवं विरजा’ और प्रतिफल- निर्मलता व पापनाश’ हैं ।।
दृश्यमान गंगा और अदृश्य गायत्री की समता मानी जाती है ।। गायत्री की एक शक्ति का नाम मन्दाकिनी भी है ।। गंगा पवित्रता प्रदान करती है, पापकर्मों से छुटकारा दिलाती है ।। गायत्री से अन्तःकरण पवित्र होता है, कषाय कल्मषों के संस्कारों से त्राण मिलता है ।। गंगा और गायत्री दोनों की ही जन्म- जयन्ती एक है- ज्येष्ठ शुक्ल दशमी ।। दोनों को एक ही तथ्य का स्थूल एवं सूक्ष्म प्रतीक माना जाता है ।।
गंगा का अवतरण भगीरथ के तप से संभव हुआ ।। गायत्री के अवतरण में यही प्रयत्न ब्रह्मा जी को करना पड़ा ।। मनुष्य जीवन में गायत्री की दिव्य धारा का अनुग्रह उतारने के लिए तपस्वी- जीवन बिताने की -तपश्चर्या सहित साधना करने की आवश्यकता पड़ती है ।। गायत्री के द्रष्टा ऋषि- विश्वामित्र हैं ।।
उन्होंने भी तपश्चर्या के माध्यम से इस गौरवास्पद पद को पाया था ।। विश्वामित्र ने गायत्री महाशक्ति का अपना उपार्जन राम- लक्ष्मण को हस्तान्तरित किया था- बला और अतिबला विद्याओं को सिखाया था ।। इसी से वे इतने महान् पुरुषार्थ करने में समर्थ हुए ।। बला और अतिबला गायत्री- सावित्री के ही नाम हैं ।।
गंगा शरीर को पवित्र करती है, गायत्री आत्मा को ।। गंगा मृतकों को तारती है, गायत्री जीवितों को, गंगा- स्नान से पाप धुलते हैं, गायत्री से पाप प्रवृत्ति ही निर्मूल होती है ।। गायत्री उपासना के लिए गंगातट की अधिक महत्ता बतलाई गई है ।। दोनों का समन्वय गंगा- यमुना के संगम की तरह अधिक प्रभावोत्पादक होता है ।।
सप्त ऋषियों ने गायत्री साधना द्वारा परम सिद्धि पाने के लिए उपयुक्त स्थान गंगा तट ही चुना था और वहीं दीर्घकालीन तपश्चर्या की थी ।। गायत्री के एक हाथ में जल भरा कमण्डलु है ।। यह अमृत जल- गंगा जल ही है ।। उच्चस्तरीय गायत्री साधना करने वाले प्रायः गंगा स्नान- गंगा जल पान- गंगातट का सान्निध्य, जैसे सुयोग तलाश करते हैं ।।
भक्त- गाथा में रैदास की कठौती में गंगा के उमगने की कथा आती है ।। अनुसूइया ने चित्रकूट के निकट तप करके मन्दाकिनी को धरती पर उतारा था ।। गायत्री उपासना से साधक का अन्तःकरण गंगोत्री- गोमुख जैसा बन जाता है और उसमें से प्रज्ञा की निर्झरिणी प्रवाहित होने लगती है ।।
गायत्री की अनेक धाराओं में एक मन्दाकिनी है ।। उसका अवगाहन छापों के प्रायश्चित एवं पवित्रता संवर्धन के लिए किया जाता है ।।
मन्दाकिनी के स्वरूप, वाहन आदि का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-
मन्दाकिनी के एक मुख, चार हाथ हैं, उनमें कमल से सौम्यता, जल पात्र से दिव्य रस, पुस्तक से ज्ञान प्रवाह तथा माला से सात्त्विक- पवित्रता का बोध होता है ।। वाहन- मगर को चीरकर चलने की असाधारण क्षमता का प्रतीक है ।।
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