Saturday 23 July 2016

| वेद रहस्य (पूर्वार्ध) ||

 The Secret of the Veda ||-1
वेदों के गुह्यार्षक होनेकी परंपरा___
भारत में यह परंपरा प्राचीनतम कालसे चली आ रही है कि वेदके ऋषि, कवि-द्रष्टा, उपर्युक्त प्रकार के? थे, वे एक महान् आध्यात्मिक और गुह्य ज्ञानसे युक्त थे, जिसतक साधारण मानय-प्राणियोंकी गति नहीं होती; उन्होंने इस ज्ञानको और अपनी शक्तिको एक गुप्त दीक्षाके द्वारा अपने वंशजों तथा चुने हुए शिष्योंतक पहुँचाया था ।
यह मान लेना निरी कपोल-कल्पना होगा कि भारतमें चली आ रही यह उपर्युक्त परंपरा सर्वथा निराधार है, एवं एक अन्ध-विश्वास है जो एकदम या धीरे-धीरे एकशून्यमेंसे, बिना कुछ भी आघारके, बन गया है । इस परंपराका कुछ-न-कुछ आधार अवश्य होना चाहिये, यह चाहे कितना थोड़ा क्यों न हो या वह गाथाद्वारा तथा शताब्दियोंके उपचय द्वारा चाहे कितना बढ़ा-चढ़ा क्यों न दिया गया हो ।
और यदि वह ठीक है तो इन कविद्रष्टाओंने अवश्य ही वेदमें अपने गुह्य ज्ञानकी, अपनी रहस्यमय विद्याकी कुछ-न-कुछ बातें व्यक्त की होंगी और वेदमंत्रोंमें ऐसी कुछ वस्तु अवश्य विद्यमान होगी; चाहे वह गुह्य भाषाके द्वारा या प्रसीकोंके कौशलके पीछे कितनी सुगुप्त क्यों न रखी हुई हो और यदि वह वहाँ विद्यमान है तो वह कुछ हदतक उपलभ्य भी होनी चाहिये ।
यह ठीक है कि बहुत पुरानी भाषा और लुप्तप्राय शब्दोंके कारण (यास्कने चार सौ से ऊपर ऐसे शब्द गिनाये हैं जिनके अर्थ उसे ज्ञात नहीं थे ) तथा एक कठिन और अप्रचलित भाषाशैलीके कारण वेदका अभिप्राय अंधकारमें पड़ गया हैं, वैदिक प्रतीकोंके अथोंके (जिनका कोष उन्हींके पास रहता था ) खोये जानेसे ये आनेवाली संततियोंके लिये दुर्बोध हो गये ।
जब कि उपनिषदों के कालमें भी उस युगके आध्यात्मिक जिज्ञासुओंको वेदके गुप्त ज्ञानमें प्रवेश पानेके लिये दीक्षा तथा ध्यान (योगाभ्यास ) की शरण लेनी पड़ती थी तो बादके विद्वान् तो किंकर्तव्यविमूढ़ ही हो गये और उन्हें शरण लेनी पड़ी अटकलकी तथा वेदोंकी बौद्धिक व्याख्यापर ही अपना ध्यान केंद्रित करनेकी या इन्हें गाथाओं तथा ब्राह्यण-ग्रंथोंके कथानकों (जो स्वयं प्रायः प्रतीकात्मक तथा अस्पष्ट थे ) द्वारा समझने-समझानेकी ।
किंतु फिर भी वेदके उस रहस्यकों उपलब्ध करना ही एकमात्र उपाय है जिससे हम वेदके सच्चे अर्थ और सच्चे मूल्यको पा सकेंगे । हमें यास्क मुनि के दिये संकेत को गंभीरतापूर्वक ग्रहण करना चाहिये, वेदके अंदर क्या है इस विषयमें हमें ॠषिके इस वर्णनको की ये “द्रष्टा का ज्ञान हैं, कवि-द्रष्टा के वचन हैं” स्वीकार करना चाहिये और इस प्राचीन धर्म-ग्रंथके अर्थोंमे प्रवेश पानेके लिये हम जो कोई भी सूत्र प्राप्त कर सकें उसे खोजकर पकड़ना चाहिये ।
यदि हम ऐसा न करेंगे तो वेद सदाके लिये मुहरबंद पुस्तक ही बने रहेंगे; व्याकरण-विशारद, व्युत्पत्ति-शास्त्री या विद्वानोंकी अटकलें हमारे लिये इन मुहरबंद कमरोंको कभी. खोल नहीं सकेंगी ।
क्योंकि यह एक तथ्य है कि वेद विषयक यह परंपरा कि प्राचीन वेदकी ॠचाओंमें एक गुह्य अर्थ और एक रहस्यमय ज्ञान निहित हैं इतनी पुरानी है जितने कि स्वयं वेद । वैदिक ऋषियोंका यह विश्वास था कि उनके मंत्र चेतनाके उच्चतर गुप्त स्तरोंसे अंत:प्रेरित हुए आये हैं और वे इस गुह्य ज्ञानको रखते हैं ।
वेदके वचन उनके सच्चे अर्थोमें केवल उसीके द्वारा जाने जा सकते हैं जो स्वयं ऋषि या रहस्यवेत्ता (योगी ) हो, अन्योंके प्रति मंत्र अपने गुण ज्ञानको नहीं खोलते । वामदेव ॠषि अपने चतुर्थ मंडलके. एक मंत्र. ( 4.3.16 ) में .अपने-आपका इस रूपमें वर्णन करता है कि मैं अंतःप्रकाशसे युक्त विप्र अपने विचार (मतिभिः ) तथा शब्दों (उक्यै: ) के द्वारा पथप्रदर्शक ( नीथानि) और गुह्य वचनोंको ( निण्या वचांसि ) व्यक्त कर रहा हूँ, ये द्रष्टज्ञानके शब्द (काव्यानि) हैं जों द्रष्टा या ऋषिके लिये अपने आंतर अर्थको बोलने वाले ( कवये निवचना ) हैं ।
ॠषि दीर्धतमा ॠचाओंके,वेदमंत्रोंके, विषयमें कहता है कि ‘ॠचो अक्षरे परमे व्योमन् अस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदु:‘ अर्थात् ऋचाएँ रहती हैं उस परम आकाशमें जो अविनाश्य व अपरिवर्तनीय है जिसमें सबके सब देव स्थित हैं और फिर कहता है;कि ‘यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति अर्थात् ‘वह जो उसको (उस आकाशको ) नहीं जानता वह ऋषासे क्या करेगा ?’ (ऋग्वेद 1 : 164. 39 ) ।
वह ऋषि आगे चार स्तरोंका उल्लेख करता है जहाँसे वाणी निकलती है,जिनमेंसे तीन तो गुहामें छिपे हुए हैं और चौथा स्तर मानवीय है, और वहींसे मनुष्योंके साधारण शब्द आते हैं, परंतु वेदके शब्द और विचार उन उच्चतर तीन स्तरोंसे संबंध रखते हैं ( 1. 164. 45) । इसी तरह, अन्यत्र वेद (मंडल 10 सूक्त 71 ) में वेदवाणीको परम ( प्रथमम् ), वाणीका उच्चतम, शिखर ( वाचो अग्रम् ), श्रेष्ठ तथा परम निर्दोष ( अरिप्रम् ) वर्णित किया गया है ।
यह (वेदवाणी ) कुछ ऐसी वस्तु है जो गुहा में छिपी हुई है और वहाँसे निकलती है और अभिव्यक्त होती है ( प्रथम मंत्र ) । यह सत्यद्रष्टामें, ऋषियोंमें, प्रविष्ट हुई है और इसे उनकी वाणीकी पद्धति (पदचिह्नों ) का अनुसरण करनेके द्वारा प्राप्त किया जाता है (तीसरा मंत्र ) । परंतु सब कोई इसके गुह्म अर्थमें प्रवेश नहीं पा सकते ।
वे लोग जो आंतरिक अभिप्राय नहीं जानते ऐसे हैं जो देखते हुए भी नहीं देखते, सुनते हुऐ भी नहीं सुनते; कोई विरला ही होता ह जिसे चाहती हुई वाणी अपने-आपको उसके संमुख प्रकट कर देती है, जैसे कि सुन्दर वस्त्र पहने हुई पत्नी अपने शरीर को पति के सामने खोलकर रख देती है ( चौथा मंत्र ) ।
अन्य लोग जो ‘वाणी’के-वेद-रूपी गौ के–दूध को स्थिरतया पीनेमें अमर्थ होते हैं, उसके साथ यों फिरते है मानो वह गौ दूध देनेवाली है ही नहीं उनके लिये वाणी ऐसे वृक्षके समान है जो फलरहित और पुष्परहित है ( पांचवां मंत्र ) । वेदका यह सब कथन कितना स्पष्ट और यथार्थ है ।
इससे संदेहकी कुछ भी गूंजायशके बिना यह परिणाम .निकलता है कि उस समय भी जब ॠग्येद लिखा जा रहा था ॠचाओकें विषयमें यह माना जाता था कि उनका कुछ गुप्त अर्थ है जो सबके लिये खुला नही है । सचमुच पवित्र वेद-मंत्रोंके अंदर एक इस और आष्यात्मिक ज्ञान थी और ऐसा माना जाता था कि उस ज्ञानके द्वारा ही मनुष्य सत्यको जान सकता है और एक उच्चतर अवस्था में चढ़ सकता है ।
यह विश्वास कोई पीछेकी बनी परंपरा नहीं था किंतु इस विश्वासको सभवत: सभी ऋषि और प्रत्यक्षत: दीर्धतमा तथा वामदेव जैसे श्रेष्ठतम ऋषियोंमेंसे कुछ तो अवश्य रखते थे ।
तो यह परंपरा पहले से विद्यमान थी और फिर वह. वैदिक कालके पश्चात् भी चलती गयी । एवं हम देखते हैं कि यास्क मुमि अपने निरुक्तमें वेदकी व्याख्याके अनेक संप्रदायोंका उल्लेख करते हैं ।
एक याझिक अर्थात्कर्मकांडीय व्याख्याका संप्रदाय था, एक ऐतिहासिक था जिसे गाथात्मक व्याख्याका संप्रदाय कहना चाहिये, एक वैयाकरणों तथा व्युत्तिशास्त्रियों, नैरुक्तों एवं नैयायिकोंद्वारा व्याख्याका संप्रदाय और एक आध्यात्मिक व्याख्याका । यास्क स्वयं धोषित करता है कि ज्ञान त्रिविध है,
अतएव सब वेदमंत्रोंके अर्थ भी त्रिविध होते हैं, एक अधियज्ञ या कर्मकांडीय ज्ञान, दूसरा अधिदैवत अर्थात् देवतासंबंधी ज्ञान और अतमें आध्यात्मिक ज्ञान; परंतु .इनमें से अंतिम अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञानका प्रतिपादक अर्थ ही वेदका सच्चा अर्थ है और जब वह प्राप्त हो जाता है तो शेष अर्थ झड़ जाते या कट जाते हैं ।
यह आध्यात्मिक अर्थ ही त्राण करनेवाला है, शेष सब बाह्य और गौण हैं । वह आगे कहता हैं कि ॠषियोंने सत्यको वस्तुओंके सत्य धर्मको आंतर दृष्टिद्वारा प्रत्यक्ष देखा था’, कि पीछेसे वह ज्ञान तथा वेदका आंतरिक अर्थ प्रायः लुप्त होते गये और जो थोड़ेसे ऋषि उन्हें तब भी जानते थे उन्हें इसकी रक्षा शिष्योंको दीक्षित करते जानेद्वारा करनी पड़ी और अंतमें वेदार्थको जाननेके लिये बाह्य और अंतमें वेदार्थको जाननेके लिये बाह्य और बौद्धिक उपायोंको जैसे निरुक्त तथा अन्य वेदांगोंको, उपयोगमें लाना पड़ा ।
परंतु तो भी, वह कहता है, ‘वेदका सच्चा अर्थ ध्यान-योग और तपस्याके द्वारा ही प्रेत्यक्षत: जाना जा सकता है‘ और जो लोग इन साधनोंको उपयोगमें ला सकते हैं उन्हें वेदज्ञानके लिये किन्हीं भी बाह्य सहायताओंकी आवश्यकता नहीं | सो यास्कका यह कथन भी पर्याप्त स्पष्ट और निश्चयात्मक है |
यह परंपरा कि वेदमें एक गुह्य तत्त्व है और वह भारतीय सभ्यता, भारतीय घर्म, दर्शन तथा संस्कृतिका मूल स्रोत है ऐतिहासिक तथ्यसे अधिक संगत है न कि यूरोपियनोंका इस परंपरागत विचारका उपहास करने वाला मत ।
उन्नसविं शताब्दीके यूरोपियन पंडित जो भौतिकताप्रधान तर्कवादके इसके लेखक थे भारतवातिके इतिहासके विषयमें यह मानते थे कि यह एक प्रारंभिक जंगली या अर्द्ध-जंगली अवस्थामेंसे, एक अपरिपक्य सामाजिक जीवन और धर्ममेंसे और अंधविश्वासोंके समुदायमेंसे हुआ विकास है, जो बुद्धि और तर्ककी, कला, दर्शन तथा भौतिक विज्ञानकी, एक अधिक स्पष्ट और सयुक्तिक तथा अघिक तथ्यपरायण बुद्धिकी उन्नति द्वारा विकसित बाह्य सभ्य संस्थाओं, रीति-रिवाजों और आदतोंका परिणाम है ।
सो वेद-विषयक यह परंपरागत प्राचीन विचार उनके इस चित्रमें ठीक नहीं बैठ सकता था, उसे तो वे प्राचीन अंधविश्वासपूर्ण विचारोंका एक भाग और आदि जंगली लोगोंकी एक सहज भूल ही मानते थे । परंतु अब हम भारतजातिके विकासके विषयमें अधिक ठीक-ठीक विचार बना सकते हैं ।
यह कहना चाहिये कि प्राचीन आधतर सभ्यताएँ अपने अंदर भावी विकासके तत्त्वोंको रखे हुए थीं पर उनके आदिम सानी लोग वैज्ञानिक और दार्शनिक या ऊँची बौद्धिक तर्कणा-सक्तिवाले लोग नहीं थे किन्तु रस्यवादी थे, बल्कि रहस्य-पुरुष, गुह्यवादी, धार्मिक जिज्ञासु थे ।
वे जिज्ञासु थे वस्तुओंके पीछे छिपे हुए सत्य के, न कि बाह्य ज्ञानके । वैज्ञानिक और दर्शिनिक पीछे से आये; उनके पूर्ववर्ती तो रहस्यवादी थे और प्रायः पाइथागोरस तथा प्लेटो जैसे दार्शनिक भी कुछ सीमातक या तो रहस्यवादी थे या उनके बहुतसे विचार रहस्यवादियोंसे लिये गये थे ।
भारतमें दार्शनिकता रहस्यवादीयोंकि जिज्ञासामेंसे ही उदित हुई और भारतीय दर्शनोंने उनके (रहस्यवादियोंके ) आध्यात्मिक ध्येयोंको कायम रखा तथा विकसित किया और उनकी पद्धतियोंमेंसें कुछ को आगामी भारतीय आध्यात्मिक शिक्षणमें तथा योगमें भी पहुँचाया । वैदिक परंपरा, यह तथ्य कि वेदमें एक रहस्यवादी तत्त्व है, इस ऐतिहासिक सत्यके साथ पूरी तरह ठीक बैठती है और भारतीय संस्कृतिके इतिहासमें अपना स्थान प्राप्त करतीं है ।
तो वेदविषयक यह परंपरा कि वेद भारतीय सभ्यताके मूल आधार हैं न कि केवल एक जंगली याज्ञिक पूजा-विधि, केवल परंपरासे कुछ अधिक वस्तु है, यह इतिहासका एक वास्तविक तथ्य है ।
वेदों के दोहरे और प्रतीकत्मक अर्थ____
परंतु यदि कहीं वेदमंत्रोंमें उच्च आध्यात्मिक ज्ञानके कुछ अंश या उच्च विचारोंसे पूर्ण कुछ वाक्य पाये भी जाएँ तो यह कल्पना की जा सकती है कि वे तो शायद वेदका केवल एक स्वल्पसा भाग है, जब कि शेष सब याज्ञिक पूजाविधि ही है, देवताओंके प्रति की गयी प्रार्थना या प्रशंसाके मंत्र हैं जो देयताओंको यज्ञ करनेवालोंपर ऐसे भौतिक वरदानोंकी वर्षा करनेको प्रेरित करनेके लिये बोले जाते थे जैसे कि बहुत-सी गौएँ, घोड़े, लड़ाकू वीर, पुत्र अन्न, सब प्रकारकी संपत्ति, रक्षा, युद्धमें विजय, या फिर आकाशसे वर्षाको ले आनेके लिये, सूर्यको बादलोंमेसे या रात्रिके पंजेसे छुड़ा लानेके लिये, सात नदियोंके खुलकर प्रवाहित होनेके लिये, दस्युओंसे (या द्रविड़ोंसे ) अपनें पशुओंके छुड़ा लानेके लिये तथा अन्य ऐसे ही वरदानोंके लिये बोले जाते थे जो उपरितलपर इस याज्ञिक पूजाके उद्दिष्ट विषय प्रतीत होते हैं ।
तब इसके अनुसार तो वेद के ऋषि ऐसे लोग होने चाहिये जो कुछ आध्यात्मिक या रहस्यमय ज्ञानवाले होंगे किन्तु वैसे उस युग के अनुकूल सभी साधारण प्रचलित विचारोंके वशीभूत होंगे । तो इन दोनों ही तत्त्वोंको ऋषियोंने अपने वैदिक सत्यों में धुला-मिलाकर रखा होगा और ऐसा मान लेने से कम-से-कम अंशत: इसका भी कुछ कारण समझ में आ जायगा कि वेदमें इतनी अस्पष्टता, बल्कि इतनी विचित्र और कभी-कभी तो हास्यजनक अस्तव्यस्तता क्यों है, जैसी कि परंपरागत भाष्योंके अनुसार वेदमें हमें दिखाई देती है ।
परंतु यदि, इसके प्रतिकूल, वेदोंमें उच्च विचारोंका एक बहुत बड़ा समुदाय स्पष्ट दृष्टिगोचर होता हो, यदि मंत्रोंका बहुत बड़ा भाग या समूचे-के-समूचे सूक्त केवल उनके रहस्यमय स्वरूप तथा अर्थोंकों ही प्रकट करनेवाले हों, और अंतत: यदि वेदमें आये कर्मकाण्डी तथा बाह्य ब्यौरे निरंतर ऐसे प्रतीकोंका रूप धारण करते पाये जाते हों जैसे कि रहस्यवादियोंद्वारा सदा प्रयुक्त किये जाते हैं और यदि स्वयं सूक्तोंके अंदर ही वैदिक शैलीके ऐसी ही होनेके अनेक स्पष्ट संकेत बल्कि कुछ सुस्पष्ट वचनतक मिलते हों,तब सब कुछ बदल जाता है ।
तब हम अपने सामने एक ऐसी महान् धर्मपुस्तक पाते हैं जिसके दोहरे अर्थ हैं–एक गुह्य अर्थ और दूसरा लौकिक अर्थ, स्वयं प्रतीकोंका भी वहाँ अपना अर्थ है ओ उन्हें गुह्य अर्थोंका एक भाग,गुह्य शिक्षा तथा ज्ञानका एक तत्त्व बना देता है ।
संपूर्ण ही ऋग्वेद, शायद थोड़ेसे सूक्तोंको अपवाद-रूपमें छोड़कर, अपने आंतरिक अर्थमें एक ऐसी ही महान् धर्मपुस्तक बन जाता है । साथ ही यह आवश्यक नहीं कि उसका बाह्य लौकिक अर्थ केवल पर्देका ही काम करे, क्योंकि ॠचाएँ उनके निर्माताओं द्वारा शक्तिके ऐसे वचन मानी गयी थीं जो न केवल आंतरिक वस्तुओंके लिये किंतु बाह्य वस्तुओंके लिये भी शक्तिशाली थे ।
शुद्धआध्यात्मिक धर्मग्रंथ तो केवल आध्यात्मिफ अर्थोंसे अपना वास्ता रखता, किंतु ये प्राचीन रहस्यवादी साथ ही वे भी थे जिन्हें ‘आकल्टिस्ट’ (गुप्तविधावित् ) कहना चाहिये, ये ऐसे थे जिनका विश्वास था कि आंतर साधनोंद्वारा आंतरिक ही नहीं किन्तु बाह्य परिणाम भी उत्पन्न किये जा सकते हैं, विचार और वाणीका ऐसा प्रयोग किया जा सकता है जिससे. इसके द्वारा प्रत्येक प्रकारकी-स्वयं वेदमें प्रचलित मुहावरे में कहें तो ‘मानुषी और दैवी‘ दोनों प्रकारकी-सिद्धि या सफलता प्राप्त की जा सकती है ।

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