Tuesday 26 July 2016

सावित्री


‘स्य’ देवीं कथयन्त्येवं सावित्रीं देवतामथ ।।
सवितारं च बीजं ‘ज्ञं’ पुलस्त्यमृषिं पुनः॥
सावित्रीं यन्त्रमेतस्य कल्याणीष्टे विभूतिके ।।
साफल्यं ब्रह्मविद्यां च द्वयं प्रतिफलं तथा॥
अर्थात -‘स्य’ अक्षर की देवी- ‘सावित्री’, देवता — ‘ज्ञं’, ऋषि- ‘पुलस्त्य’, यन्त्र- ‘सावित्रीयन्त्रम्’, विभूति- ,’कल्याणी एवं इष्टा’ और प्रतिफल- ‘ब्रह्मविद्या एवं साफल्य’, हैं ।।
आदि शक्ति की दो धाराएँ हैं- (१) आत्मिकी (२) भौतिकी ।। आत्मिकी को गायत्री और भौतिकी को सावित्री कहते हैं ।। गायत्री एक मुखी है, उसे एकात्मवाद, अद्वैतवाद, आत्मवाद कह सकते हैं ।।
सावित्री पंचमुखी है ।। शरीर पाँच तत्त्वों से बना है ।। उनकी इन्द्रीयानुभूति पाँच तन्मात्राओं के सहारे शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श के रूप में होती है ।। चेतना का स्पन्दन पाँच प्राणों के सहारे चलता है ।। पाँच तत्त्व और पाँच प्राण मिलकर जिस जीव- सत्ता को चलाते हैं, उसकी अधिष्ठात्री सावित्री हैं ।। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ इसी जीवन चर्या का चक्र आगे घसीटती हैं ।।
सावित्री का स्वरूप वर्णन करते हुए बताया गया है-
सावित्री त्रिपदा ज्ञेया षटकुक्षिः पञ्चशीषर्का ।।
अग्निवणर्मुखा शुक्ला पुण्डरीकदलेक्षणा॥ (सूत संहिता- गायत्री विवरण)
”सावित्री तीन पाद, षटकुक्षि और पाँच मस्तक वाली है ।। वह अग्नि वर्ण की मुख वाली, शुभ्र और कमल नेत्रों वाली है ।”
दैविक, दैहिक और भौतिक इन तीनों क्षेत्रों में सावित्री का आधिपत्य होने के कारण उसे तीन पाद वाली कहा गया है ।।
कहते है कि वामन भगवान् ने तीन चरणों में राजा बलि के तीनों लोक वाले राज्य को नाप लिया था ।। सावित्री के तीन पाद भी तीनों लोकों तक लम्बे हैं ।। अर्थात उनके प्रभाव से तीनों लोकों में अपनी स्थिति सुख- शान्तिमय बनती है ।। तीन लोक आकाश, पाताल और पृथ्वी को भी कहते हैं ।। पर यहाँ दैविक, दैहिक, भौतिक अर्थात आध्यात्मिक, शारीरिक और सम्पत्ति- परक तीनों ही क्षेत्रों में सावित्री का प्रकाश पहुँचता है और उस महाशक्ति की उपासना से इन तीनों क्षेत्रों में आनन्द- उल्लास की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं ।।
षटकुक्षि का तात्पर्य षटचक्र जागरण से है ।। शरीर में छिपे हुए छहों शक्ति संस्थान सावित्री उपासना से जागृत हो जाते हैं ।। किसी मिल में छह इन्जन हों और वे ठण्डे पड़े रहें, तब तो सारी मिल बन्द पड़ी रहेगी, पर यदि वे एक- एक करके सभी चालू हो जायें तो मिल अपनी पूरी रफ्तार से चलने लगेगी और देखते- देखते उत्पादन का ढेर जमा हो जायगा ।।
षट्- चक्र मानव शक्ति में छिपे हुए अत्यन्त शक्तिशाली बायलर, इन्जन, जनरेटर हैं ।। उनके सक्रिय होने के पर मनुष्य साधारण जीव नहीं रह जाता, वरन उसकी गणना सिद्ध पुरुषों में होने लगती है ।। इस षट्- चक्र जागरण के विधि- विद्यान में भी सावित्री सान्निध्य को ही प्रधान आधार माना गया है, इसलिए उसे छह कुक्षि वाली- छह साधनाओं वाली- बताया गया है ।।
सावित्री के पाँच मस्तक, पाँच कोषों के नाम से प्रख्यात हैं ।। अन्नमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष- यह पाँच आवरण जीव के ऊपर हैं ।। इनमें से प्रत्येक को एक रतन भाण्डागार कहना चाहिये ।।
सूक्ष्म शरीर का सारा ढाँचा इन्हीं इन्हीं पाँच कोशों की सामग्री से बना है ।। विज्ञान की भाषा में इन्हें फिजिकल बॉडी, एस्ट्रल बॉडी, मेण्टल बॉडी, काँजल बॉडी और कास्मिक बॉडी कहते हैं ।। अध्यात्म की भाषा में इन्हें ही अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष कहा जाता है ।।
ये पाँच बहुमूल्य खजाने काय- सत्ता के अन्तराल में विद्यमान हैं ।। उनमें सिद्धियों के और विभूतियों के भंडार भरे पड़े हैं ।। काय कलेवर में विद्यमान इन्हीं को पाँच देवता कहा गया है ।। ये जब तक प्रसुप्त स्थिति में रहते हैं, तभी तक मनुष्य दीन- दुर्बल रहता है ।। जब ये जागृत होते हैं तो पाँचों देवता मनुष्य की विविध सहायता करते देखे जाते हैं ।।
दक्षिणमार्गी साधना में गायत्री को और वाममार्गी साधना में सावित्री को प्रमुख माना जाता है ।। सकाम साधनाएँ सावित्री परक होती हैं, उनमें प्रयोजनों के अनुरूप बीजमंत्र लगाये जाते हैं ।। गायत्री का प्रयोग आत्मोत्कर्ष के लिए होता है ।। उसमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को समुन्नत बनाने वाले भूर्भुवः स्वः के तीन बीजमंत्र पहले से ही लगे हुए हैं ।। ब्रह्म वर्चस् साधना में इन तीनों का सन्तुलित समन्वय है ।।
सावित्री के पाँच मुख वास्तव में उसके पाँच भाग हैं ।। १- ॐ, २- भुर्भूवः स्वः, ४- तत्सवितुर्वरेण्यं ,, ४- भर्गो देवस्य धीमहि, ५- धियो योनः प्रचोदयात् ।। यज्ञोपवीत के भी पाँच भाग हैं- तीन लड़े, चौथी मध्य ग्रन्थियाँ, पाँचवें ब्रह्मग्रन्थि ।। पाँच देवता प्रसिद्ध हैं- ॐ अर्थात गणेश, व्याहृति अर्थात् भवानी, गायत्री का प्रथम चरण- ब्रह्मा, द्वितीय चरण- विष्णु, तृतीय चरण- महेश, इस प्रकार यह पाँच देवता सावित्री के प्रमुख शक्ति पुञ्ज कहे जा सकते हैं ।।
सावित्री के पाँच मुख असंख्यों सूक्ष्म रहस्य और तत्त्व अपने भीतर छिपाये हुए हैं ।। उन्हें जानने के बाद मनुष्य को इतनी तृप्ति हो जाती है कि कुछ जानने लायक बात उसे सूझ नहीं पड़ती ।। महर्षि उद्दालक ने उस विद्या की प्रतिष्ठा की थी, जिसे जानकर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता, वह विद्या सावित्री विद्या ही है ।। चार वेद और पाँचवाँ यज्ञ, यह पाँचों ही सावित्री के पाँच मुख हैं जिनमें समस्त ज्ञान, विज्ञान और धर्म- कर्म ,, बीज रूप से केन्द्रीभूत हो रहें है ।।
पाँच तत्व, पाँच कोष, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, पाँच उपप्राण, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच यज्ञ, पाँच देव, पाँच योग, पाँच अग्नि, पाँच अंग, पाँच वर्ण , पाँच स्थिति, पाँच अवस्था, पाँच शूल, पाँच क्लेश आदि अनेक पंचक सावित्री के पाँच मुखों से संबंधित है ।।
इसको सिद्धि करने वाले पुरुषार्थी व्यक्ति ऋषि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, और देवर्षि कहलाते हैं ।। आत्मोन्नति की पाँच कक्षायें हैं, पाँच भूमिकायें हैं, उनमें से जो जिस कक्षा की भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है, वह उसी श्रेणी का ऋषि बन जाता है ।।
पंचमुखी सावित्री के ज्ञान पक्ष में जीवन विभिन्न क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाले पंचशीलों के परिपालन का संकेत है ।। सामान्य जीवन में श्रमशीलता, मितव्ययिता, सहकारिता और सज्जनता की गतिविधियाँ पंचशील कहलाती हैं ।। विभिन्न वर्गों के लिए- विभिन्न प्रयोजनों के लिए पंचशील पृथक−पृथक हैं, जिनके परिपालन से अभीष्ट क्षेत्र की स्थूलताओं के द्वार सहज ही खुलते चले जाते हैं ।। पंचशील भी पंचदेव हैं ।।
गायत्री की असंख्य दिव्य धाराओं में सबसे निकटवर्ती और अधिक समर्थ सावित्री है ।। दोनों इतनी सघन हैं कि दोनों को प्रायः एक ही माना जाता है ।। वस्तुतः दोनों को शरीर और आत्मा तरह भौतिकी और आत्मिकी माना जाना चाहिए और आवश्यकतानुसार अभीष्ट उद्देश्यों के लिए उनका अंचल पकड़ना चाहिए ।।
सावित्री महाशक्ति के स्वरूप, वाहन एवं आसन आदि का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस प्रकार है-
सावित्री के पाँच मुख- पंचकोशों, पंचतत्त्वों, पंचप्राणों के प्रतीक हैं ।। दस हाथ- दसों दिशाओं, दस इन्द्रिय शक्तियों के प्रतीक हैं ।। आयुध- शंख से जागरूकता, अंकुश से आत्मानुशासन, चाबुक से निरालस्यता, चक्र से प्रगतिशीलता, गदा से शक्ति, पात्र से धारण क्षमता का बोध होता है ।।
दो हाथों में कमल- सभ्यता और सुसंस्कारिता के प्रतीक है ।। दान मुद्रा से देवत्व का तथा आशीर्वाद मुद्रा से सद्भाव का बोध होता है ।। कमल आसन प्रफुल्लित विकासमान मनोभूमि का संकेत है 

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