Saturday 23 July 2016

|| वेद रहस्य (पूर्वार्ध) ||

 The Secret of the Veda ||
वेदके विषय में परंपरा____
वेद प्राचीन कोलमें ज्ञानकी एक पवित्र पुस्तकके रूपमें आवृत था, यह अंत:स्कुरित कविताका एक विशाल संग्रह माना जाता था, उन ॠषिंयों’की-द्रष्टाओं तथा संतोंकी-कृति माना जाता था जिन्होंने अपने मन द्वारा कुछ घड़फर बनानेकी जगह एक महान्, व्यापक, शाश्वत तथा अपौरुषेय सत्यको अपने आलोकित मनो के अंदर ग्रहण किया और उसे ‘मंत्र‘में मूर्त किया, जिन्होने ऐसे शक्तियुक्त मन्त्रोंको प्रकट किया जो किसी साधारण नहींकिन्तु दिव्य स्कुरण तथा दिव्य स्रोतसे आये थे|
इन ॠषियोंको जो नाम दिया गया था वह था ‘कवि‘, जिसका अर्थ यद्यपि पीछेसे कोई भी कविता करनेवाला हो गया, पर उस समयमें इसका अर्थ था ‘सत्यका द्रष्टा‘ ।
स्वयं वेद इन्हें कहता है ‘फवय: सत्यश्रुतः‘ २ अर्थात् ‘वे द्रष्टा जो दिव्य सत्यको श्रवण करनेवाले थे‘, और स्वयं वेदको ही ‘श्रुति‘ नाम से पुकारा गया था जिसका अर्थ साक्षात्कृत ( अंन्त:भूत ) धर्म-पुस्तक’ हो गया ।
उपनिषदों के ॠषियोंका भी वेद के विषय मे यही उच्च विचार था और वे अपने-आप जिन सत्यों को प्रतिपादित करती हैं उनकी प्रमाणिकता के लिये बार-बार वेद को ही साक्षी प्रस्तुत करती हैं और पीछे जाकर ये उपनिषदें भी ‘श्रुति’के रुपमे–‘इलहाम की धर्म-पुस्तक’के रूपमें आदृत होने लगीं और शास्त्रो में सम्मिलित कर ली गयीं ।
वेद विषयक यह परम्परा बाह्मण-ग्रंथों में भी बराबर रही है और याज्ञिक (कर्मकाण्डी ) टीकाकारों के द्वारा प्रत्येक बात की व्याख्या गाथात्मक तथा यज्ञक्रिया-परक कर दिये जानेपर भी तथा पण्डितोंद्वारा ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्डका विभेदक विभाजन (जिसमें मन्त्रमात्रको कर्मकाण्ड तथा उपनिषदोंको ज्ञानकाण्डमें ले लिया गया ) कर दिये जानेपर भी, इस परम्परा ने अपने-आपको कायम ही रखा |
कर्मकाण्ड-विभाग के अन्दर ज्ञान-विभाग के इस प्रकार डुबा दिये जानेको कठोर शब्दोंमें भर्त्सना एक उपनिषद्में तथा गीता में भी की गयी है, किन्तु ये दोनों ( उपनिषद् और गीता ) वेदको ज्ञान की पवित्र पुस्तक के रूप में ही देखती हैं । यही नहीं किन्तु श्रुतिको (जिसमें वेदके साथ उपनिषदें भी समाविष्ट है ) आध्यात्मिक ज्ञानके लिये परम प्रमाण तथा अभ्रान्त माना गाया है ।
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श्रीअरविन्द के ग्रन्थ ‘Hymns to the Mystic Fire’ (अग्नि-स्तुति) की भूमिका उन द्वारा रचित वैदिक साहित्य मे प्रवेश के लिए अत्यन्त होने से यहाँ ज्यों की-त्यों दी जा रही है | –अनुवादक
२ जैसे ॠग्वेद 5-57-8, 6-49-6
तो क्या वेदविषयक यह परंपरा केवल गप्प और हवाई कल्पना है, या बिल्कुल निराधार बल्कि मूर्खतापूर्ण बात है ?
अथवा क्या यह तथ्य है कि वेदके पीछेके कुछ मन्त्रोंमें उच्च विचारोंका जो एक केवल क्षुद्र-सा भाग है,उसीक कारण यह परंपरा चली ?
क्या उपनिषदोंके कर्ताओंने वैदिक ॠचाओंपर वह अर्थ मढ़ दिया है जो वहाँ असलमें कहीं नहीं है, क्या उन्होंने अपनी कल्पनाके द्वारा तथा मनमौजी व्याख्याके द्वारा उनमेंसे वह अर्थ निकाल लिया है ?,
आधुनिक पाश्चात्य विद्वान् आग्रह करते हैं कि यह ऐसी ही बात है और आधुनिक भारतीय मनको भी उन्होंने प्रभावित कर.लिया है । इस दृष्टिकोणके पक्षमें यह तथ्य भी है कि वेदके ऋषि न केवल द्रष्टा थे, किन्तु वे, गायक तथा यज्ञके पुरोहित भी थे, कि उनके गीत सार्वजनिक यज्ञोंमें गाये जानेके लिये लिखे गये थे और वे निरन्तर ही प्रश्वलित क्रिया-कलापकी ओर निर्देश करते हैं और इन यज्ञ-विधियोके बाह्य उद्देश्यों-उद्दिष्ट पदार्थों–जैसे धन, समृद्धि, शत्रुपर विजय आदिकी ही प्रार्थना करते प्रतीत होते हैं ।
वेद का महान् टीकाकार सायण हमारे सामने सदा ॠचाओंफा कर्मकाण्ड-सम्बंधी अर्थ ही प्रस्तुत करता है । जहाँ आवश्यक हो जाय वहीं और वह भी परीक्षणात्मक विचारके तौररपर वह एक गाथात्मक या ऐतिहासिक अर्थ भी उपस्थित करता है, पर कभी विरले ही अपनी टीकामें कोई उच्चतर अर्थ प्रदर्शित करता है, यद्यपि कभी-कभी वह किसी उच्चतर अभिप्रायकी झलक आ जाने देता है, या इस (उच्चतर अभिप्राय ) को केवल एक विकल्पके रूपमें, मानों किसी याज्ञिक गाथात्मक व्याख्याके हो सकनेकी संभावनासे निराश होकर, विवश-सा होकर; प्रकट करता है ।
पर फिर भी वह वेदकी आध्यात्मिक रूपसे परम प्रमाणिकता मानता है, इससे विमुख नहीं होता और, नाहीं, वह इस बातसे इन्कार करता है कि ऋचाओंमें एक उच्चतर सत्य निहित है ।
यह अन्तिम कार्य ( वेदकी आध्यात्मिक प्रमाणिकतासे इन्कार आदि ) हमारे युगके लिये छोड़ दिया गया था और यह पाश्चात्य विद्वानोंने किया तथा अपने मन्तव्य का प्रचार भी किया ।
पश्चिमी विद्वानोंका मत____
योरुषीय विद्वानोंने कर्मकाण्डीय परम्पराको तो सायणसे ले लिया, परन्तु अन्य बातोके लिये इसको (सायणको ) नीचे धकेल दिया । और वे अपने ढंगसे शब्दोंकी व्युत्पत्तिपरक व्याख्याको लेकर चलते गये, या अपने ही अनुमानात्मक अर्थोंके साथ‘ वैदिक मन्त्रोंकी व्याख्या करते गये और उन्हें एक यथा ही रूप प्रदान कर दिया, जो प्रायश: उच्छृंखल तथा कल्पनाप्रसूत था‘ ।
वेदमें उन्होंने जो कुछ खोजा वह था भारतका प्रारम्भिक इतिहास,इसका समाज, संस्थाएं, रीति-रिवाज तथा उस समयकी सभ्यताका चित्र । उन्होंने भाषाओंके विभेदपर आधारित एक मत, एक परिकल्पनाको घड़ा कि उत्तरके आर्योंके द्वारा द्राविड़ भारतपर आक्रमण किया गया था,जिसकी स्वयं भारतीयोंमें कोई स्मृति या परम्परा नहीं मिलती और जिसका भारतके किसी महाकाव्य या प्रमाणभूत साहित्यमें कहीं कुछ उल्लेख तक नहीं पाया जाता ।
उनके हिसाबसे वैदिक धर्म इसके. सिवाय और कुछ नहीं कि यह प्रकृतिके देयताओंकी पूजा है जो सौर गाथाओंसे भरी हुई तथा यज्ञोंसे पवित्रकी. गयी है, साथ ही यह एक याज्ञिक प्रार्थनाविधि है जो अपने विचारों तथा क्रियाओंमें पर्याप्त आरंभकालिक है और ये जंगली प्रार्थनाएं ही बहु- प्रशंसित, इतना महिमायुक्त बनाया हुआ तथा दिव्यत्वापादित वेद हैं ।
देवताओं का रूपपरिवर्तन और वेद
इसमें कोई सं:देह नहीं हो सकता कि आरंभमें, भौतिक: जगत की शक्तियोंकी पूजा होंती थी जैसे सूर्य, चन्द्रमा, घौ और पृथ्वी, वायु, वर्षा और आंधी आदिक, ? पवित्र नदियोंकी तथा अनेक ‘ देवोंकी जो प्रकृति क्रियाओंका अधिष्ठातृत्य करते हैं । ग्रीसमें, रोममें, भारतमें तथा अन्य पुरातन जातियोंमें प्राचीन पूजाका सामान्य स्वरूप यही था ।
परन्तु इन सभी देशोंमें इन देवताओंने एक उच्चतर आन्तरिक या आध्यात्मिक व्यापार. ग्रहण करना आरम्भ कर दिया था । पलास एथिनी ( Pallas Atheneप्रखंड ) जो आरंभमें जीस (Zeus) के सिरसे, आकाश-देवतासे, वेदके ‘धौ’से ज्यालामय रुपमे उद्भूत होनेवाला उषा-देवता रहा होगा, प्राचीन अभिजात ग्रीसमें एक उच्चतर व्यापारको करनेवाला देवता हो गया और रोमन लोगों द्वारा अपने मिनर्वा ( Minerva) के, विद्या और ज्ञानके देवताके साथ एक कर दिया गया था ।
इसी तरह सरस्वती, एक नदी-देवता, भारतमें ज्ञान, विद्या, कला और कौशलकी देवी हो जाती है । सभी ग्रीक देवता इस दिशामें परिवर्तन को प्राप्त हुए हैं–अपोलो (Apollo), सूर्य देवता, ‘कविता तथा भविष्यवाणीका देवता हो गया है, हिफस्टस (Hiphaestus), अग्नि-देवता, दिव्य कारीगर. श्रम का देवता हो गया है ।
पर भारतमें वह प्रक्रिया अधबीचमें रुक गयी और यहाँ वैदेक देवोंने अपने आन्तरिक या आध्यात्मिक व्यापारोंको तो विकसित किया, किन्तु अपने बाह्यस्वरूपको भी अघिक स्थिरताके साथ कायम रखा औरो उच्चतर प्रयोजनोंके लिये एक नही ही देवमालाको जन्म प्रदान किया ।
उन्हें उन पौराणिक देवताओंको प्राथमिकता देनी थी जिन्होंने अपने पहले साथियोंमेंसे विकसित होनेपर भी अघिक विस्तृत विश्व-व्यापारोंको धारण कर लिया था, अर्थात् विष्णु, रूद्र, बह्या ( जो वैदिक बृहस्पति या ब्रह्यणस्पतिसे विकसित हुआ ), शिव, लक्ष्मी और दुर्गा । इस प्रकार भारतममें देवताओंमें, परिवर्तन. कम पूर्ण रहा |
पहलेके देवता पौराणिक देवमालाके क्षुद्र देवता बन गये और इसका प्रमुख कारण था ऋग्वेदका बचे रहना, क्योंकि वेदमें देवताओंके आध्यात्मिक व्यापार तथा बाह्य व्यापार दोनों एक साथ विद्यमान थे और दोनों पर ही पूरा बल दिया गया था । ग्रीस और रोमके देवताओके प्रारंभिक स्वरूपोंको सुरक्षित रखने वाला इस तरहका (वेद जैसा ) कोई साहित्यिक लेखा था ही नहीं ।
रहस्यवादी
देवताओंमें इस परिवर्तन का कारण प्रत्यक्ष ही इन सब आदिकालीन जातियोंका सांस्कृतिक विकास था क्योंकि ये जातियां क्रमश: अधिकाधिक मानसिकतापन्न और भौतिक जीवनमें उत्तरोत्तर कमरत रहनेवाली होती गयीं ।
ज्यों-ज्यों इन्होंने सभ्यता मे प्रगति की और अपने धर्ममें तथा अपने देवताओंमें ऐसे सूक्ष्मतर एवं परिष्कृततर पहलुओंको देखनेकी आवश्यकता अनुभव की, तो उनके अधिक उच्चतया मानसिकता प्राप्त विचारों तथा रुचियोंको आश्रय दे सकें और उनके लिये एक सच्ची आध्यात्मिक सत्ता को या किसी दैवी मूर्त्ति को, उनके अवलम्बन और प्रमाणके रूपमें, उपलब्ध कर सकें त्यों-त्यों ये अधिकाधिक मानसिकतापन्न होती गयीं ।
परन्तु इस अन्तर्मुखी प्रवृत्तिको निर्धारित करनेमें और इसे ग्रहण करनेमें सबसे अधिक भाग लेनेका श्रेय रहस्यवादियोंको दिया जाना चाहिये, जिनका इन आदि सभ्यताओंपर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा था । निःसंदेह प्रायः सब जगह ही रहस्यमयताका एक युग रहा है जिसमें गंभीरतर ज्ञान, और आत्म-ज्ञान रखनेवाले लोगोंने अपने अभ्यास-साधन अर्थपूर्ण विधिविधान तथा प्रतीकोंको स्थापित किया था, एवं अपने अपेक्षाकृत आदिकालीन बाह्य धर्मोके अन्दर या उनके एक सिरेपर गुह्यविधाको रखा था ।
इस ( रहस्यवाद ) ने भिन्न-भिन्न देशोंमें भिन्न-भिन्न रूप धारण किया । ग्रीसमें ओेर्फिक तथा एलुसीनियन रहस्य थे, मिश्र और खाल्दियामें पुरोहित तथा उनकी गुह्यविधा और जादू थे, ईरानमें मागी तथा भारतमें ऋषि थे । ये रहस्यवादी आत्मज्ञान तथा गंभीरतर विश्वज्ञान पानेमें निमग्न रहे, इन्होंने खोज निकाला कि मनुष्योंमें एक. गंभीरतर आत्मा और आन्तरतर सत्ता है जो बाह्य भौतिक मनुष्यके उपरितलके पीछे छिपी है और उसे ही खोजना और जानना उसका सर्वोच्च कार्य है ।
‘तू अपने-आपको जान’ यह उनकी महान् शिक्षा थी, जैसे कि भारतमें स्वको, आत्माको जानना महान् आध्यात्मिक आवश्यकता, मनुष्यके लिये सर्वोच्च वस्तु हो गयी थी । उन्होंने विश्वके बाहरी रूपोंके पीछे एक सत्यको, एक सद्वस्तुको भी जाना था और इस सत्यको पा लेना, इसका अनुसरण करना तथा इसे सिद्ध करना उनकी महती अभीप्साका विषय था ।
उन्होंने प्रकृतिके रहस्यों तथा शक्तियोंको खोज निकाला था जो भौतिक जगत के रहस्य और शक्तियां नहीं थी परन्तु जिनके द्वारा भौतिक जगत् तथा भौतिक वस्तुओंपर गुप्त प्रभुत्व प्राप्त किया जा सकता था और इस गुह्य विधा तथा शक्तिको व्यवस्थित रूप देना भी इन रहस्य-वादियोंका एक प्रबल कार्य था, जिसमें वे व्यस्त रहते थे |
परन्तु यह सब केवल एक कठोर और प्रमादरहित- प्रशिक्षणद्वारा, नियंत्रण .और प्रकृति- शोधन द्वारा ही सुरक्षित रूपसे किया जा सकता था । साधारण मनुष्य इसे नहीं कर सका था ।
यदि मनुष्य. बिना कठोरतापूर्वक परखे गये और बिना प्रशिक्षण पाये हुए इन बातों में पड़ जाय तो यह उनके, लिये तथा अन्योंके लिये खतरनाक होता; क्योंकि इस शक्तियोंका दुरूपयोग किया जा सकता था, .इनके अर्थका अनर्थ किया जा सकता था, इन्हें सत्यसे मिथ्याकी ओर, कल्याणसे अकल्याणकार ओर मोड़ा जा सकता था ।
इसलिये एक कठोर गुप्तता बरती जाती थी, ज्ञान पर्देकी ओर गुरुसे शिष्यको पहुँचाया जाता था । प्रतीकोंका एक पर्दा रचा गया था जिसकी ओटमें थे रहस्यमय बातें आश्रय ग्रहण कर सकती थी, बोलनेके कुछ सूत्र भी बनाये गये थे जो दीक्षितोंद्वारा ही समझे जा सकते थे, जो अन्योंको या तो अविदित होते थे या उन द्वारा एक ऐसे बाह्य अर्थमें ही समझे जाते थे जिससे उनका असली अर्थ और रहस्य सावधानतापूर्वक छिपा रहता था सब जगहके रहस्यवादका सारांश यही था ।
क्रमशः____

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