Friday 22 July 2016

पूरुवंश का बालक


पूरुवंश के प्रवर्तक थे राजा दुष्यन्त। वे अपनी प्रजा का शासन बड़ी योग्यता के साथ करते थे। उनके राज्य में पाप तो कोई करता ही नहीं था। सभी धर्म के प्रेमी थे, इसलिये धर्म तथा अर्थ दोनों ही स्वतः प्राप्त थे। एक दिन महा बाहु राजा दुष्यन्त आखेटक के लिये अपनी सेना के साथ वन में गये। उसे पार करने पर उन्हें महर्षि कण्व का आश्रम दिखायी पड़ा। सबको आश्रम के द्वार पर ही रोकर दुष्यन्त अकेले ही आश्रम में गये। आश्रम को सूना देख कर उन्होंने ऊँचे स्वर से पुकारा- यहाँ कोन है? उनकी आवाज सुनकर लक्ष्मी जी के समान एक सुन्दर कन्या तपस्विनी के वेश में आश्रम से निकली। थोड़ी देर वार्त्तालाप करने के बाद राजा दुष्यन्त ने यह जान लिया की यह शकुन्तला नाम की राजकन्या है। राजा दुष्यन्त उसके अनुपम रुप को देख कर उस पर मोहित हो गये, राजा ने गान्धर्व-विधि से शकुन्तला का पाणि ग्रहण कर लिया। उन्होंने शकुन्तला को बार –बार यह विश्वास दिलाया कि वे शीघ्रातिशीघ्र उसे राजमहल में बुलवा लेंगे। इस प्रकार कहकर वे अपनी राजधानी वापस आ गये।
समय पर आश्रम में ही शकुन्तला के गर्भ से पुत्र उत्पन्न हुआ। इस शिशु के जन्म लेते ही आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी, देवगण दुन्दुभियाँ बजाने लगे तथा अप्सराएं मधुर स्वर मे गाती हुई नाचने लगीं। महर्षि कण्व ने विधिपूर्वक उसके जातकर्म आदि संस्कार किये। वह बालक देवकुमार-जैसा था। उस शिशु के दाँत सफेद- सफेद तथा बड़े नुकीले थे, कन्धे सिंह के जैसे थे, दोनों हाथों में चक्र का चिह्न था तथा सिर बड़ा था। नेत्र मनोहर, पलकें लुभावनी थीं तथा मुखमण्डल पर अपूर्व तेज था। छः वर्ष की अवस्था होते-होते वह बालक अदभुत –से-अदभुत कार्य करने लगा। कभी तो वह वनके सिंह, बाघ आदि हिंसक पशुओं को पकड़ लाता तथा कुछ को पेड़ से बाँध देता था। कभी किसी के ऊपर चढ़कर दूसरे को डाँटता था तो कभी उनके साथ खेलता और दौड़ लगाता था। उनके बीच भी इस के लिये मिट्टी के खिलौने की तरह थे, उनको बगल में दबाये हुए घूमता- फिरता रहता था। जिन हिंसक पशुओं को देख कर बड़े-बड़ों को पसीना आ जाता था, उनको यह नन्हा-सा बालक भेड़-भकरी की तरह घुमाया-फिराया करता था। इतना ही नहीं, आश्रम में राक्षस-पिशाचों को भी पा जाने पर उन्हें बिना अस्त्र-शस्त्र के मुक्के से ही मार-मार कर भगा देता था। विशाल -से-विशाल दैत्य भी इस बालक के सामना न कर पाते थे।
एक दिन एक महाबलशाली दैत्य उस बालक के पास आया। वह अन्य दैत्यों की दुर्दशा को देख कर अत्यन्त क्रोध से भरा था। छोटा- सा बालक देख उसने अपने हाथों में धर दबोचना चाहा, किंतु इसके पहले ही उसकी नीयत समझकर उस बालक ने बड़ी फुर्ती के साथ उसे पकड़ लिया। अब क्या था, दोनों एक दूसरे को मार डालने की चेष्टा में लग गये। बालक ने अपनी बाँहों में उसे इतनी दृढ़ता पूर्वक जकड़ रखा था कि अपनी पूरी शत्ति लगा कर भी वह दैत्य निकल न पाया। अन्त में निकलने का कोई चारा न देख कर वह दैत्य जोर से चिल्ला कर उसे डराने-धमकाने लगा। किंतु जितना ही वह चिल्लाता था, उतना ही वह बालक उसे जोर से दबाता था। धीरे-धीरे भयंकर दबाव के कारण वह दैत्य मल-मूत्र करने लगा। दुष्यन्त कुमार ने बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के ही उसे खेल-ही-खेल में मार गिराया। इस अदभुत कार्य को देख कर सभी आश्रम वासी उसके बल की प्रशंसा करने लगे तथा उसका नाम सर्वदमन रख दिया; क्योकि वह सब जीवों का दमन कर देता था। आगे चलकर यही सर्वदमन भरत के नाम के नाम से प्रसिद्ध हुआ और इसी के नाम से इस भूखण्ड का नाम भारत हुआ

No comments:

Post a Comment