Monday 29 February 2016

श्रीदुर्गासप्तशती के आदिचरित्र का माहात्म्य


ऋषियों ने पूछा - सूतजी महाराज ! अब आप हमलोगों को यह बतलाने की कृपा करें कि किस स्तोत्र के पाठ करने से वेदों के पाठ करने का फल प्राप्त होता है और पाप विनष्ट होते हैं ।
सूतजी बोले - ऋषियों ! इस विषय में आप एक कथा सुनें । राजा विक्रमादित्य के राज्य में एक ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम था कामिनी । एक बार वह ब्राह्मण श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करने के लिए अन्यत्र गया हुआ था । इधर उसकी स्त्री कामिनी जो अपने नाम के अनुरूप कर्म करनेवाली थी, पति के न रहने पर निन्दित कर्म में प्रवृत्त हो गयी । फलत: उसे एक निन्द्य पुत्र उत्पन्न हुआ, जो व्याधकर्मानाम से प्रसिद्ध हुआ । वह भी अपने नाम के अनुरूप कर्म करनेवाला था, धूर्त था तथा वेद पाठ से रहित था । उस ब्राह्मण ने अपनी स्त्री एवं पुत्र के निन्दित कर्म और पापमय आचरण को देखकर उन दोनों को घर से निकाल दिया तथा स्वयं धर्म में तत्पर रहते हुए विंध्याचल पर्वतपर प्रतिदिन चण्डीपाठ करने लगा । जगदंबा के अनुग्रह से अंत में वह जीवान्मुक्त हो गया ।
इधर वे दोनों माता पुत्र पूर्वपरिचित निषाद के पास चले गये और वहीं निवास करने लगे । वहां भी वे दोनों अपने निन्दित आचरण को छोड़ न सके और इन्हीं बुरे कर्मों से धन संग्रह करने लगे । व्याधकर्मा चौर्य कर्म में प्रवृत्त हो गया । ऐसे ही भ्रमण करते हुए दैवयोग से एक दिन वह व्याधकर्मा देवी के मंदिर में पहुंचा । वहां एक श्रेष्ठ ब्राह्मण श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ कर रहे थे । दुर्गापाठ के आदिचरित्र (प्रथम चरित्र) के किंचित् पाठमात्र के श्रवण से उसकी दुष्टबुद्धि धर्ममय हो गयी । फलत: धर्मबुद्धिसंपन्न उस व्याधकर्मा ने उस श्रेष्ठ सारा धन उन्हें दे दिया । गुरु की आज्ञा से उसने देवी के मंत्र का जप किया । बीजमंत्र के प्रभाव से उसके शरीर से पापसमूह कृमि के रूप में निकल गये । तीन वर्ष तक इस प्रकार जप करते हुए वह निष्पाप श्रेष्ठ द्विज हो गया । इसी प्रकार मंत्र जप और आदिचरित्र का पाठ करते हुए उसे बारह वर्ष व्यतीत हो गये । तदनन्तर वह द्विज काशी में चला आया । मुनि एवं देवों से पूजित महादेवी अन्नपूर्णा का उसने रोचनादि उपचारों के द्वारा पूजन किया और उनकी इस प्रकार स्तुति -
नित्यानंदकरी पराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी
निर्धूताखिलपापपावनकरी काशीपुराधीश्वरी ।
नानलोककरी महाभयहारी विश्वंभरी सुंदरी
विद्यां देहि कृपावलंबनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।
इस स्तुति का एक सौ आठ बार जपकर ध्यान में नेत्रों को बंदकर वह वहीं सो गया । स्वप्न में उसके सम्मुख अन्नपूर्णा शिवा उपस्थित हुईं और उसे ऋग्वेद का ज्ञान प्रदान कर अन्तर्हिन हो गयीं । बाद में वह बुद्धिमान ब्राह्मण श्रेष्ठ विद्या प्राप्तकर राजा विक्रमादित्य के यज्ञ का आचार्य हुआ । यज्ञ के बाद योग धारणकर हिमालय चला गया ।
हे विप्रो ! मैंने आपलोगों को देवी के पुण्यमय आदिचरित्र के माहात्म्य को बतलाया, जिसके प्रभाव से उस व्याधकर्मा ने ब्राह्मीभाव प्राप्तकर परमोत्तम सिद्धि को प्राप्त कर लिया था

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