हिन्दू मत के अनुसार- अनादि काल मे जब परमात्मा ने सृष्टि कि रचना की तो उस समय सृष्टि में अथाह जल राशि थी। इस जल राशि के अन्दर भगवान विष्णु कि उत्पत्ति हुई और भगवान विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। सच चाहे जो भी हो पर शास्त्र कहते है कि ब्रह्मा और विष्णु में द्वंद पैदा हो गया।
विष्णु जी कहने लगे की मैं बड़ा हूँ और ब्रह्मा जी कहने लगे की मैं बड़ा हूँ। दोनों के द्वंद को देखकर, वह निराकार परमात्मा दोनों के मध्य ज्योति-स्तम्भ के रूप में प्रकट हुआ। परमात्मा का यह ज्योति-स्तम्भ रूप साधक को अगम लोक में पहुँचने पर दिखाई देता है। ब्रह्मा और विष्णु दोनों उस ज्योति-स्तम्भ को देख कर आश्चर्य चकित रह गये। उस ज्योति-स्तम्भ के अन्दर से ॐ-ॐ की ऐसी मधुर ध्वनी ब्रह्मा और विष्णु को सुनाई दी।
ॐकार स्वरूप मानते हुए, ब्रह्मा और विष्णु ने उस ज्योति-स्तम्भ की स्तुति की। उस ज्योति-स्तम्भ ने ब्रह्मा और विष्णु को आदेश दिया, की आप दोनों ही ॐकार की साधना करें एवं मुझे परमात्मा को जाने। ब्रह्मा और विष्णु ने ॐकार की साधना की एवं उस परमात्मा के दिव्य रूप के दर्शन प्राप्त किये। उस परमात्मा ने ब्रह्मा जी को आदेश दिया की आप सृष्टि की रचना करें और विष्णु जी आप ब्रह्मा जी द्वारा रचित सृष्टि का पालन करें।
सर्व प्रथम ब्रह्मा जी ने तमोगुणी सृष्टि कि रचना की जिसे अविद्या-पंचक अथवा पंचपर्वा-अविद्या भी कहते है किन्तु बाद में परमेश्वर कि कृपा से ब्रह्मा जी पुनः अनासक्त भाव से सृष्टि का चिन्तन करने लगे उस समय ब्रह्मा जी द्वारा स्थावर-संज्ञक वृक्ष आदि की सृष्टि की, जिसे मुख्य-सर्ग कहते है यह पहला सर्ग है
इसे देख कर तथा वह अपने लिऐ पुरूषार्थ का साधन नहीं है, यह जान कर ब्रह्मा जी ने दूसरा सर्ग प्रकट किया, जो दुख से भरा हुआ था उस का नाम है तिर्यक्स्रोता। पशु-पक्षी आदि तिर्यक्स्रोता कहलाते है। वायु की भाँति तिरछा चलने के कारण ये तिर्यक् या तिर्यक्स्रोता कहे गये है।
यह सर्ग भी पुरूषार्थ-साधन की शक्ति से रहित था। यह जान कर ब्रह्मा जी ने तीसरे सात्त्विक सर्ग की उत्पत्ति की जिसे उर्ध्वस्रोता कहते है। यह देव-सर्ग के नाम से विख्यात हुआ।
देव सर्ग सत्यवादी तथा अत्यन्त सुख दायक था किन्तु उसे भी पुरूषार्थ साधन की रूची एवं अधिकार से रहित मान कर ब्रह्मा जी ने परमेश्वर का चिन्तन आरम्भ किया परमेश्वर कि कृपा से रजोगुणी सृष्टि का आरम्भ हुआ जिसे अर्वाक्स्रोता कहा गया है इस सर्ग में मनुष्य का जन्म हुआ जोकि पुरूषार्थ साधन के उच्च अधिकारी हैं।
ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि प्रारम्भ में ब्रह्मा जी ने जिस सृष्टि कि रचना की वह अमैथुनी थी। अमैथुनी सृष्टि को देख कर ब्रह्मा जी परेशान हुए और ब्रह्मा जी ने परमेश्वर से प्रार्थना की, कि- हे परमेश्वर मैं जो भी सृष्टि पैदा करता हूँ, उसका विनाश नहीं होता, आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करे की मैं नाशवान सृष्टि पैदा कर सकूँ।
परमेश्वर ने ब्रह्मा जी को गायत्री मंत्र प्रदान किया और अनुष्ठान करने को कहा। सृष्टि में सर्वप्रथम ॐ अक्षर था। उसके पश्चात गायत्री मंत्र आया, इसलिऐ गायत्री मंत्र को महामंत्र या मंत्रराज अर्थात् मंत्रों का राजा कहा जाता है।
ब्रह्मा जी ने गायत्री मंत्र की साधना की और उस परमेश्वर की शक्ति को गायत्री अर्थात् सावित्री के रूप में प्राप्त किया। उसके पश्चात मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति प्रारम्भ हुई। समय-समय पर सावित्री ही अनेकों सिद्धों के सामने अलग-अलग रूप में प्रकट हुई।
जिस साधक ने जिस-जिस रूप में उस शक्ति को प्राप्त करने की इच्छा की उस-उस साधक को वह शक्ति उसी-उसी रूप में प्राप्त हुई। अपने ही समय के अनुसार सभी साधकों ने अपने समक्ष प्रकट हुई उस शक्ति का नामकरण कर दिया।
सर्वप्रथम उसे आदिशक्ति कहा जाता था। राजा दक्ष के यहाँ जन्म लेने पर वह सती कहलाई। सती भगवान शिव की अर्धागिनी बनी। जब सती ने अपने पति शिव के निरादर किये जाने पर अपने आप को हवन में समर्पित कर दिया।
यह शिव साक्षात पर-ब्रह्म परमेश्वर है। नाशवान सृष्टि की रचना से पूर्व ब्रह्मा जी ने उस परमेश्वर की स्तुति की, कि हे परमेश्वर मैं जो यह नाशवान सृष्टि पैदा करने जा रहा हूँ, इस नाते से मैं इस सृष्टि का पिता बन गया।
मैं पैदा तो कर सकता हूँ, पर विनाश नहीं। इसी प्रकार विष्णु जी भी इस सृष्टि का पालन करते हैं, तो वह भी इस का विनाश नहीं कर सकते। इसलिए मैं चाहता हूँ, कि आप मेरे पुत्र के रूप में जन्म ले और सृष्टि के विनाश का कार्यभार संभालें, क्योंकि हे परमेश्वर सही मायने में तो आप ही सब को पैदा करने वाले और विनाश करने वाले हैं। हम दोनों तो निमित्त मात्र है। इस प्रकार वह परमेश्वर ही रूद्र रूप बन कर पैदा हुऐ और उन्होंने सती से विवाह किया।
सती की मृत्यु का समाचार पाकर रूद्र क्रोधित हो उठे और राजा दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर दिया और सती के शरीर को अपने कन्धें पर डाल कर ब्रह्माण्ड में विचरने लगे। जब विष्णु जी ने देखा की रूद्र के इस कार्य से सृष्टि के सभी कार्य रूक रहें है, तो उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र के द्वारा उस सती के मृत शरीर के टुकडे-टुकडे कर दिये।
उस आदिशक्ति सती के कुल 51 टुकडे हुऐ और पृथ्वी पर आ गिरे। जहाँ-जहाँ वह 51 टुकडे गिरे थे, वहीं-वहीं आज सिद्ध पीठ बने हुऐ हैं। आज हिन्दुस्तान में जो 51 पीठ हैं। ये पीठ वहीं हैं, जहाँ पर सती के शरीर के हिस्से गिरे थे।
एक ही शरीर के हिस्से होने के उपरान्त भी स्थान और काल भेद से सभी के अलग-अलग नाम हैं एवं पूजा विधान अलग-अलग हैं। इसके पीछे जो मूल कारण है, वह यही है कि समय-समय पर जिस साधक ने जिस विधान से उस शरीर के उस हिस्से को आदिशक्ति का प्रतीक रूप मानते हुए साधना की और साधक की भावना के अनुसार ही जब वह शक्ति प्रकट हुई, तो साधक ने अपनी इच्छा अनुसार उसे एक नाम दे दिया।
आज अनेकों ही साधक व साधारण भक्त जन इन पीठों में भी भेद रखते है, कि कोई पीठ छोटा है और कोई बड़ा। किन्तु पीठ या स्थान या प्रतीक कभी छोटा-बड़ा नहीं होता। इसके मूल में एक ही रहस्य शक्ति छुपी हुई है और वह है, श्रद्धा और भावना की। जिस पीठ के ऊपर आपकी श्रद्धा और भावना प्रगाढ़ होगी, वहीं से आप को चमत्कारिक लाभ प्राप्त होते हैं।
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