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भाषा विज्ञान के जन्म दाता आशुतोष भगवान शिव जब महर्षि पाणिनी के निःस्पृह स्वच्छ घोर तपस्या से प्रसन्न हुए तो ख़ुशी में ऐसा प्रलयंकारी ताण्डव नृत्य प्रस्तुत किये जो जगत के लिए बहुत ही शुभ हुआ। डमरू के घोर निनाद के रहस्यमय स्फुरण को भगवान शिव की असीम कृपा से महर्षि पाणिनी ने स्थूल रूप दिया-
“नृत्यावसाने नटराज राजः ननाद ढक्वाम नवपंच वारम।
उद्धर्तु कामाद सनकादि सिद्धै एतत्विमर्शे शिव सूत्र जालम।”
अर्थात नृत्य की समाप्ति पर भगवान शिव ने अपने डमरू को विशेष दिशा-नाद में चौदह (नौ+पञ्च वारम) बार चौदह प्रकार की आवाज में बजाया। उससे जो चौदह सूत्र बजते हुए निकले उन्हें ही “शिव सूत्र” के नाम से जाना जाता है। ये सूत्र निम्न प्रकार है-
(1)-अ ई उ ण (2)-ऋ ऌ क (3)-ए ओ ङ् (4)-ऐ औ च (5)-ह य व् र ट (6)- ल ण (7)- ञ् म ङ् ण न म (8)- झ भ य (9 )-घ ढ ध ष (10)- ज ब ग ड द स (11)- ख फ छ ठ थ च ट त व् (12)- क प य (13)- श ष स र (14)- ह ल
यदि इन्हें डमरू के बजने की कला में बजाया जाय तो बिलकुल स्पष्ट हो जाता है। यही से भाषा विज्ञान का मूर्त रूप प्रारम्भ होता है।
पाणिनि के अष्टाध्यायी का अध्ययन करने या सिद्धांत कौमुदी का अध्ययन करने से सारे सूत्र स्पष्ट हो जायेगें। अस्तु यह एक अति दुरूह विषय है।
तथा विशेष लगन, परिश्रम, मनन एवं रूचि से ही जाना जा सकता है। मैं सरल प्रसंग पर आता हूँ।
उपर्युक्त पाणिनीय सूत्रों की संख्या चौदह है। प्रत्येक सूत्र के अंत में जो वर्ण आया है। वह हलन्त है। अतः वह लुप्त हो गया है। वह केवल पढ़ने या छंद की पूर्ति के लिए लगाया गया है। वास्तव में वह लुप्त है। इन चौदहों सूत्रों के अंतिम चौदह अक्षर या वर्ण मिलकर पन्द्रहवां सूत्र स्वयं बन जाते है।
वास्तव में जब भगवान शिव ने डमरू बजाना बंद किया तो भी कुछ देर तक उसकी आवाज गूंजती रही। वाही अंतिम गूँज महर्षि की समझ में नहीं आया।और उसे व्याकरण शास्त्र की पूर्ती की दृष्टि से लोप की संज्ञा देते हुए (सूत्र हलन्त्यम- देखें अष्टाध्यायी) लुप्त कर दिया गया।
महर्षि पतंजलि ने भी सूत्रों की व्याख्या करते हुए विलुप्त होने की अवस्था को “अग्रे अजा भक्षिता”- अर्थात आगे का सूत्र बकरी खा गई, लिख कर छोड़ दिया है। देखें मेरे पहले लेख जहां इसका विशद विवरण पहले ही प्रस्तुत किया जा चुका है।
यह पंद्रहवाँ सूत्र स्वयं रहस्यमय पार ब्रह्म परमेश्वर शिव ही है। जिन्हें स्वयं शिव ही जान सकते है। और जो आगे पीछे ॐ कार के रूप में लग कर मन्त्र को पूरा करता है। इसीलिए मन्त्र को सदा ॐ के सम्पुट के साथ ही जपना चाहिए।
हम सूत्रों पर आते हैं। ये चौदह सूत्र आरोह-अवरोह क्रम जैसा कि डमरू बजता है, उसके अनुसार चौदहों भुवनो की स्थिति स्पष्ट करते हैं। ये चौदहों भुवन है
आरोही- अर्थात ऊपर के भुवन-भू, भुव, स्व, मह, तप, जन एवं सातवाँ सत्य लोक।
अवरोही- अर्थात निचे के भुवन- अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल एवं सातवाँ पाताल लोक।
“सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीप वनानि सप्त।
भूरादि कृत्वा भुवनानि सप्त सर्वैतानि मोक्षप्रदा भवन्तु।”
अर्थात सातो महासागर, सातो महान पर्वत (श्रेणियाँ), सप्तर्षि, सातो महाद्वीप, सातो महान (दंडकादि) अरण्य, आदि में हो जिसके वे सातो तथा अन्य सातो (अर्थात चौदहों) भुवन ये सब (स्मरण मात्र से) मोक्ष देने वाले होवें।
आप स्वयं देख सकते हैं कि सातवें सूत्र में केवल वे ही अक्षर या वर्ण आये है जो प्रत्येक वर्ग के अंत में आते हैं। जैसे क के अंत में ङ्, च के अंत में ञ्, ट के अंत में ण आदि। इस प्रकार यही पर ऊपर के सातो लोको का अंत होता है। तथा यही से निचले सातो लोको का प्रारम्भ होता है।
इन चौदहों के प्रारम्भ में अ, इ तथा उ तीनो मिलकर ॐ की रचना करते हैं। देखें मेरे पहले लेख जहां मैंने ॐ कार की सिद्धि दर्शाई है। और प्रत्येक सूत्र के अंत में इत संज्ञक होने वाले वर्ण पन्द्रहवें लुप्त सूत्र को दर्शाते है जो मात्र अनुभूति के सहारे जाना जा सकता है।
या इसे सीधे शब्दों में कह सकते है कि चौदहों सूत्रों के समझ जाने एवं आत्मसात हो जाने के बाद पन्द्रहवाँ सूत्र (जो स्वयं परमेश्वर हैं) स्वयं समझ में आ जाते हैं।
इसीलिए भगवान शिव के अंतिम चौदहवाँ अंतिम सूत्र “हल” है। इसमें से “ल” इत संज्ञक है। अतः उसका लोप हो जाएगा। और सिर्फ “ह” बच जाएगा। यही “ह” ही “हर” या शिव के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार इस शिव सूत्र की निष्पत्ति सिद्ध होती है।
यही कारण है कि मंत्रो का प्रारम्भ ॐ कार, व्याहृति और अंत में अपने इष्ट देव का नाम और पुनः सम्पुट में ॐ कार जोड़ देते है। तब जाकर मन्त्र जाप पूरा होता है।
जैसे –
ॐ ह्रौं जूँ सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यमबकम यजामहे सुगन्धिम्पुष्टि वर्द्धनम। उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात। ॐ स्वः भुवः भू: ॐ सः जूं ह्रौं ॐ।”
आप स्वयं देख सकते हैं कि मन्त्र के प्रारम्भ में सीधा एवं मन्त्र के अंत में उलटा अर्थात अवरोही क्रम में व्यवस्था की गई है। शुरुआत भी “ह्रौं” से और अंत भी “ह्रौं” से किया गया है।
सात सात के क्रम में ये मन्त्र या सूत्र पाँच स्थूल तत्व – क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर तथा दो सूक्ष्म तत्व- मन एवं आत्मा के रूप में निरंतर आरोह एवं अवरोह करते रहते हैं।
इसमें मंगल (भूमि), बुध (अग्नि), गुरु (जल-अमृत), शुक्र (पर्वत-खनिज या यंत्र आदि) तथा शनि (पवन) के प्रतिनिधि तथा चन्द्रमा मन एवं सूर्य आत्मा का द्योतक है (ऋग्वेद सूक्त)। यही कारण है कि एक चन्द्र कुंडली तथा दूसरी सूर्य कुंडली से जीवन के घटना चक्र को प्रदर्शित किया जाता है।
भचक्र के अबाध एवं निरंतर संचरण से ये ही कभी आरोही एवं कभी आरोही हो जाते हैं।
भाषा विज्ञान के जन्म दाता आशुतोष भगवान शिव जब महर्षि पाणिनी के निःस्पृह स्वच्छ घोर तपस्या से प्रसन्न हुए तो ख़ुशी में ऐसा प्रलयंकारी ताण्डव नृत्य प्रस्तुत किये जो जगत के लिए बहुत ही शुभ हुआ। डमरू के घोर निनाद के रहस्यमय स्फुरण को भगवान शिव की असीम कृपा से महर्षि पाणिनी ने स्थूल रूप दिया-
“नृत्यावसाने नटराज राजः ननाद ढक्वाम नवपंच वारम।
उद्धर्तु कामाद सनकादि सिद्धै एतत्विमर्शे शिव सूत्र जालम।”
अर्थात नृत्य की समाप्ति पर भगवान शिव ने अपने डमरू को विशेष दिशा-नाद में चौदह (नौ+पञ्च वारम) बार चौदह प्रकार की आवाज में बजाया। उससे जो चौदह सूत्र बजते हुए निकले उन्हें ही “शिव सूत्र” के नाम से जाना जाता है। ये सूत्र निम्न प्रकार है-
(1)-अ ई उ ण (2)-ऋ ऌ क (3)-ए ओ ङ् (4)-ऐ औ च (5)-ह य व् र ट (6)- ल ण (7)- ञ् म ङ् ण न म (8)- झ भ य (9 )-घ ढ ध ष (10)- ज ब ग ड द स (11)- ख फ छ ठ थ च ट त व् (12)- क प य (13)- श ष स र (14)- ह ल
यदि इन्हें डमरू के बजने की कला में बजाया जाय तो बिलकुल स्पष्ट हो जाता है। यही से भाषा विज्ञान का मूर्त रूप प्रारम्भ होता है।
पाणिनि के अष्टाध्यायी का अध्ययन करने या सिद्धांत कौमुदी का अध्ययन करने से सारे सूत्र स्पष्ट हो जायेगें। अस्तु यह एक अति दुरूह विषय है।
तथा विशेष लगन, परिश्रम, मनन एवं रूचि से ही जाना जा सकता है। मैं सरल प्रसंग पर आता हूँ।
उपर्युक्त पाणिनीय सूत्रों की संख्या चौदह है। प्रत्येक सूत्र के अंत में जो वर्ण आया है। वह हलन्त है। अतः वह लुप्त हो गया है। वह केवल पढ़ने या छंद की पूर्ति के लिए लगाया गया है। वास्तव में वह लुप्त है। इन चौदहों सूत्रों के अंतिम चौदह अक्षर या वर्ण मिलकर पन्द्रहवां सूत्र स्वयं बन जाते है।
वास्तव में जब भगवान शिव ने डमरू बजाना बंद किया तो भी कुछ देर तक उसकी आवाज गूंजती रही। वाही अंतिम गूँज महर्षि की समझ में नहीं आया।और उसे व्याकरण शास्त्र की पूर्ती की दृष्टि से लोप की संज्ञा देते हुए (सूत्र हलन्त्यम- देखें अष्टाध्यायी) लुप्त कर दिया गया।
महर्षि पतंजलि ने भी सूत्रों की व्याख्या करते हुए विलुप्त होने की अवस्था को “अग्रे अजा भक्षिता”- अर्थात आगे का सूत्र बकरी खा गई, लिख कर छोड़ दिया है। देखें मेरे पहले लेख जहां इसका विशद विवरण पहले ही प्रस्तुत किया जा चुका है।
यह पंद्रहवाँ सूत्र स्वयं रहस्यमय पार ब्रह्म परमेश्वर शिव ही है। जिन्हें स्वयं शिव ही जान सकते है। और जो आगे पीछे ॐ कार के रूप में लग कर मन्त्र को पूरा करता है। इसीलिए मन्त्र को सदा ॐ के सम्पुट के साथ ही जपना चाहिए।
हम सूत्रों पर आते हैं। ये चौदह सूत्र आरोह-अवरोह क्रम जैसा कि डमरू बजता है, उसके अनुसार चौदहों भुवनो की स्थिति स्पष्ट करते हैं। ये चौदहों भुवन है
आरोही- अर्थात ऊपर के भुवन-भू, भुव, स्व, मह, तप, जन एवं सातवाँ सत्य लोक।
अवरोही- अर्थात निचे के भुवन- अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल एवं सातवाँ पाताल लोक।
“सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीप वनानि सप्त।
भूरादि कृत्वा भुवनानि सप्त सर्वैतानि मोक्षप्रदा भवन्तु।”
अर्थात सातो महासागर, सातो महान पर्वत (श्रेणियाँ), सप्तर्षि, सातो महाद्वीप, सातो महान (दंडकादि) अरण्य, आदि में हो जिसके वे सातो तथा अन्य सातो (अर्थात चौदहों) भुवन ये सब (स्मरण मात्र से) मोक्ष देने वाले होवें।
आप स्वयं देख सकते हैं कि सातवें सूत्र में केवल वे ही अक्षर या वर्ण आये है जो प्रत्येक वर्ग के अंत में आते हैं। जैसे क के अंत में ङ्, च के अंत में ञ्, ट के अंत में ण आदि। इस प्रकार यही पर ऊपर के सातो लोको का अंत होता है। तथा यही से निचले सातो लोको का प्रारम्भ होता है।
इन चौदहों के प्रारम्भ में अ, इ तथा उ तीनो मिलकर ॐ की रचना करते हैं। देखें मेरे पहले लेख जहां मैंने ॐ कार की सिद्धि दर्शाई है। और प्रत्येक सूत्र के अंत में इत संज्ञक होने वाले वर्ण पन्द्रहवें लुप्त सूत्र को दर्शाते है जो मात्र अनुभूति के सहारे जाना जा सकता है।
या इसे सीधे शब्दों में कह सकते है कि चौदहों सूत्रों के समझ जाने एवं आत्मसात हो जाने के बाद पन्द्रहवाँ सूत्र (जो स्वयं परमेश्वर हैं) स्वयं समझ में आ जाते हैं।
इसीलिए भगवान शिव के अंतिम चौदहवाँ अंतिम सूत्र “हल” है। इसमें से “ल” इत संज्ञक है। अतः उसका लोप हो जाएगा। और सिर्फ “ह” बच जाएगा। यही “ह” ही “हर” या शिव के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार इस शिव सूत्र की निष्पत्ति सिद्ध होती है।
यही कारण है कि मंत्रो का प्रारम्भ ॐ कार, व्याहृति और अंत में अपने इष्ट देव का नाम और पुनः सम्पुट में ॐ कार जोड़ देते है। तब जाकर मन्त्र जाप पूरा होता है।
जैसे –
ॐ ह्रौं जूँ सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यमबकम यजामहे सुगन्धिम्पुष्टि वर्द्धनम। उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात। ॐ स्वः भुवः भू: ॐ सः जूं ह्रौं ॐ।”
आप स्वयं देख सकते हैं कि मन्त्र के प्रारम्भ में सीधा एवं मन्त्र के अंत में उलटा अर्थात अवरोही क्रम में व्यवस्था की गई है। शुरुआत भी “ह्रौं” से और अंत भी “ह्रौं” से किया गया है।
सात सात के क्रम में ये मन्त्र या सूत्र पाँच स्थूल तत्व – क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर तथा दो सूक्ष्म तत्व- मन एवं आत्मा के रूप में निरंतर आरोह एवं अवरोह करते रहते हैं।
इसमें मंगल (भूमि), बुध (अग्नि), गुरु (जल-अमृत), शुक्र (पर्वत-खनिज या यंत्र आदि) तथा शनि (पवन) के प्रतिनिधि तथा चन्द्रमा मन एवं सूर्य आत्मा का द्योतक है (ऋग्वेद सूक्त)। यही कारण है कि एक चन्द्र कुंडली तथा दूसरी सूर्य कुंडली से जीवन के घटना चक्र को प्रदर्शित किया जाता है।
भचक्र के अबाध एवं निरंतर संचरण से ये ही कभी आरोही एवं कभी आरोही हो जाते हैं।
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