Tuesday, 12 July 2016

शिवाराधना से दैत्यगुरु शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या की प्राप्ति



एक बार दैत्यों के आचार्य शुक्र को अपने शिष्यों दानवों का पराभव देखकर बहुत दुख हुआ और उन्होंने तपस्यों बल से देवों को हराने की प्रतिज्ञा की तथा वे अर्बुद पर्वत पर तपस्या करने चले गए। वहां उन्होंने भूमि के भीतर एक सुरंग में प्रवेश कर ‘शुक्रेश्वर’ नामक शिव लिंग की स्थापना की और प्रतिदिन श्रद्धाभक्तिपूर्वक षोडशोपचार से भगवान शंकर की अर्चना करने लगे। अनाहार और अनन्यमनस्क होकर वे परम दारुण तप करने लगे । इस प्रकार तप करते- करते जब उनके एक सहस्त्र बीत गए, तब श्रीमहादेव ने उन्हें दर्शन देकर कहा- हे द्विजोत्तम! मैं तुम्हारी आराधना से परम संतुष्ट हूं, जो वर मांगना चाहो, मांगो शुक्राचार्य ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की-
यदि तुष्टो महादेव विद्यां देहि महेश्वर।
यया जीवंति संप्रासा मृत्युं संख्येऽपि जन्तव:।।
                         स्कंदपुरायण, प्रभासखंड, अर्बुदखंड
‘हे महेश्वर महादेव, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे वह विद्या दीजिए जिससे युद्ध में भी मरे हुए प्राणी जीवित हो जाएं’,
भगवान शंकर ने प्रसन्नपूर्वक मृत्यु पर विजय प्राप्त कराने वाली तथा मृत प्राणी को भी जीवित कर लेने की शक्ति वाली संजीवनी –विद्या वर के रूप में उन्हें प्रदान की और कहा कि तुम्हें और कुछ मांगना हो तो वह भी मांग लो। तब उन्होंने कहा कि ‘महाराज! कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को जो इन शुक्रेश्वर का भक्ति पूर्वक अर्चन करे, उसे अल्पमृत्यु का कभी भय न हो।’ महादेव जी ने तथास्तु कहकर कैलास की ओर प्रयाण किया । वर के प्रभाव से शुक्राचार्य युद्ध में मरे हुए असंख्य दैत्यों को फिर से जिला लेते थे, जिससे दैत्यों को पराजित करना देवों के लिए कठिन हो गया।
इस शुक्रतीर्थ में पितरों की श्राद्धदि क्रिया करने से पितृगण संतुष्ट होते हैं। यहां स्नान करने से एवं शुक्रेश्वर के अर्चन से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है और उसे अल्पमृत्यु का भय कभी नहीं होता, सुख मिलते हैं और वह अंत में शिवलोक को प्राप्त कर शिवगणों के साथ आनंद भोगता है ।

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