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एक राजा अत्यंत जिज्ञासु थे। वे प्राय: अपने दरबार में आने वाले विद्वानों, संत-महात्माओं आदि से विविध प्रकार के प्रश्न पूछते और संतोषजनक उत्तर मिलने पर हृदय से उनका आभार मानते थे।
एक दिन दरबार में एक विद्वान का आगमन हुआ। राजा ने उनसे जीवन दर्शन पर चर्चा की। विद्वान महोदय ने बड़े ही तार्किक ढंग से राजा की जिज्ञासाओं का समाधान किया।
प्रसंगवश राजा ने पूछा - मैं जानना चाहता हूं कि हक की रोटी कैसी होती है? विद्वान ने राजा से कहा कि आपके नगर में एक वृद्धा रहती है।
उसके पास जाकर पूछो और उससे हक की रोटी मांगो। राजा उस वृद्धा के पास पहुंचे और बोले - माता, मुझे हक की रोटी चाहिए।
वृद्धा ने कहा - राजन, मेरे पास एक रोटी है, पर उसमें आधी हक की है और आधी बेहक की। राजा ने पूछा - आधी बेहक की कैसे?
वृद्धा बोली - एक दिन मैं चरखा कात रही थी। शाम का समय था। अंधेरा हो चला था। इतने में इधर से एक जुलूस निकला। उसमें मशालें जल रही थीं।
मैं उन मशालों की रोशनी में चरखा कातती रही और मैंने आधी पूनी कात ली। आधी पूनी पहले की थी। उस पूनी को बेचकर, आटा लाकर रोटी बनाई।
इसलिए आधी रोटी तो हक की है और आधी बेहक की। इस आधी पर उन जुलूसवालों का हक है। यह सुनकर राजा ने वृद्धा को श्रद्धापूर्वक नमन किया।
हमें मिलने वाले अन्न, वस्त्र, मकान आदि सभी की पूर्ति भले हमारे धन से होती है, किंतु उनके निर्माण में अन्यों का श्रम लगा होता है, जिसका उपकार हमें मानना चाहिए।
एक राजा अत्यंत जिज्ञासु थे। वे प्राय: अपने दरबार में आने वाले विद्वानों, संत-महात्माओं आदि से विविध प्रकार के प्रश्न पूछते और संतोषजनक उत्तर मिलने पर हृदय से उनका आभार मानते थे।
एक दिन दरबार में एक विद्वान का आगमन हुआ। राजा ने उनसे जीवन दर्शन पर चर्चा की। विद्वान महोदय ने बड़े ही तार्किक ढंग से राजा की जिज्ञासाओं का समाधान किया।
प्रसंगवश राजा ने पूछा - मैं जानना चाहता हूं कि हक की रोटी कैसी होती है? विद्वान ने राजा से कहा कि आपके नगर में एक वृद्धा रहती है।
उसके पास जाकर पूछो और उससे हक की रोटी मांगो। राजा उस वृद्धा के पास पहुंचे और बोले - माता, मुझे हक की रोटी चाहिए।
वृद्धा ने कहा - राजन, मेरे पास एक रोटी है, पर उसमें आधी हक की है और आधी बेहक की। राजा ने पूछा - आधी बेहक की कैसे?
वृद्धा बोली - एक दिन मैं चरखा कात रही थी। शाम का समय था। अंधेरा हो चला था। इतने में इधर से एक जुलूस निकला। उसमें मशालें जल रही थीं।
मैं उन मशालों की रोशनी में चरखा कातती रही और मैंने आधी पूनी कात ली। आधी पूनी पहले की थी। उस पूनी को बेचकर, आटा लाकर रोटी बनाई।
इसलिए आधी रोटी तो हक की है और आधी बेहक की। इस आधी पर उन जुलूसवालों का हक है। यह सुनकर राजा ने वृद्धा को श्रद्धापूर्वक नमन किया।
हमें मिलने वाले अन्न, वस्त्र, मकान आदि सभी की पूर्ति भले हमारे धन से होती है, किंतु उनके निर्माण में अन्यों का श्रम लगा होता है, जिसका उपकार हमें मानना चाहिए।
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