Monday, 4 July 2016

ऋग्वेद || भूमिका



”आर्य”१  पत्रिका में ”वेद रहस्य” में वेदसंबंधी जो नवीन मत प्रकाशित हो रहा है उसी मत के अनुसार यह अनुवाद है । उस मत के अनुसार वेद का यथार्थ अर्थ आध्यात्मिक है, किन्तु गुह्य और गोपनीय होने के कारण अनेक उपमाओं, सांकेतिक शब्दों, बाह्य यज्ञ-अनुष्ठानों के उपयुक्त वाक्यों द्वारा वह अर्थ आवृत है ।

आवरण साधारण मनुष्यों के लिये अभेध था, पर दीक्षित वैदिक लोगों के लिये झीना और सत्य का सर्वांङ  प्रकाशक वस्तु-मात्र था । उपमा इत्यादि के पीछे इस अर्थ को खोजना होगा ।

देवताओं के ”गुप्त नाम” तथा उनकी अपनी-अपनी क्रियाओं, ”गो”, ”अश्व”, ”सोमरस” इत्यादि सांकेतिक शब्दों के अर्थो, दैत्यों के कर्मो और गूढ़ अर्थो, वेद के रूपकों, गाथाओं (myths) इत्यादि का तात्पर्य जान लेने पर वेद का अर्थ मोटे तौर पर समझ में आ जाता है । निस्संदेह, उसके गूढ़ अर्थ की वास्तविक और सूक्ष्म उपलब्धि विशेष ज्ञान और साधना का फल है, बिना साधना के केवल वेदाध्ययन से वह नहीं होती ।

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१ सन् १९१४ से १९१९ तक प्रकाशित ”आर्य” पत्रिका में श्रीअरविन्द ने ”वेद-रहस्य” शीर्षक से जो लेखमाला लिखी थी यहां उसी की तरफ संकेत है ।

इस सकल वेदतत्त्व को अपने पाठकों के सम्मुख रखने की इच्छा है । अभी तो वेद की केवल मुख्य बात ही संक्षेप में बतायेंगे ।

यह है : जगत् ब्रम्हमय है, पर ब्रम्हतत्त्व मन के लिये अज्ञेय है ।

अगस्त्य  ऋषि ने कहा है : तद् अदभुतम् अर्थात् सबसे ऊपर और सबसे अतीत, कालातीत है वह । आज या कल कब कौन उसे जान सका है ? और सबकी चेतना में उसका संचार होता है, किंतु मन यदि नजदीक जाकर निरीक्षण करने की चेष्टा करता है तो तत् अदृश्य हो जाता है ।

केनोपनिषद् के रूपक का भी यही अर्थ है, इन्द्र ब्रम्ह् की ओर धावित होते हैं, निकट जाते ही ब्रम्ह अदृश्य हो जाता है । फिर भी तत् ”देव”-रूप में ज्ञेय है ।

”देव” भी ”अदभुत” हैं किंतु त्रिधातु के अंदर प्रकाशित अर्थात् देव सन्मय, चित्-शक्तिमय, आनंदमय हैं । आनंदतत्त्व में देव को प्राप्त किया जा सकता है । देव नाना रूपों में विविध नामों से जगत् में व्याप्त हैं और उसे धारण किये हुए हैं । नाम-रूप हैं वेद के सब देवता ।

वेद में कहा गया है कि दृश्य जगत् के ऊपर और नीचे दो समुद्र हैं । नीचे अप्रकेत ”हृध” व हृत्समुद्र है, अंग्रेजी में जिसे अवचेतन (subconscient) कहते हैं,-ऊपर सत्-समुद्र है जिसे अंग्रेजी में अतिचेतन (superconscient) कहते हैं । दोनों को ही गुहा या गुह्यतत्त्त कहा जाता है ।

ब्राम्हणस्पति अप्रकेत से वाक् द्वारा व्यक्त को प्रकट करते हैं, रुद्र प्राणतत्त्व में प्रविष्ट हो रुद्र-शक्ति द्वारा विकास करते हैं, जोर लगाकर ऊपर की ओर उठाते हैं, भीम ताड़ना द्वारा गंतव्य पथ पर चलाते हैं, विष्णु व्यापक शक्ति द्वारा धारण कर इस नित्यगति के सत्-समुद्र या जीवन की सप्त नदियों के गंतव्य स्थल की ओर ले जाते हैं । अन्य सभी देवता हैं इस गति के कार्यकर्ता, सहाय और साधन ।

सूर्य सत्य-ज्योति के देवता हैं, सविता-सृजन करते हैं, व्यक्त करते हैं, पूषा-पोषण करते हैं, ”सूर्य”- अनृत और अज्ञान की रात्रि में से सत्य और ज्ञानालोक को जन्म देते हैं । अग्नि चित्-शक्ति के ”तप:” हैं, जगत् का निर्माण करते हैं, जगत् की वस्तुओं में विद्यमान हैं ।

वह भूतत्त्व  में हैं अग्नि, प्राणतत्त्व  में कामना और भोगप्रेरणा, जो पाते हैं भक्षण करते हैं; मनस्तत्त्व  में हैं चिन्तनमयी प्रेरणा और इच्छाशक्ति और मन से परे के तत्त्व में ज्ञानमयी क्रियाशक्ति के अधीश्वर ।

कुछ चुने हुए सूक्त

प्रथम मण्डल-सूक्त १

मूल, अर्थ और व्याख्या

अग्निमीणे पुरोहितं यज्ञस्व देवम् ॠत्विजम | होतारं रत्नधातमम् ||१||

मैं अग्नि की उपासना करता हूं जो यज्ञ के देव, पुरोहित, ऋत्विक, होता एवं आनंद-ऐश्वर्य का विधान करने में श्रेष्ठ हैं ।

र्ड़णे-भजामि, प्रार्थये, कामये । उपासना करता हूं ।

पुरोहितम्-जो यज्ञ में पुर:, सामने स्थापित हैं; यजमान के प्रतिनिधि और यज्ञ के संपादक ।

ॠत्विजम्–जो ॠतु के अनुसार अर्थात् काल, देश, निमित्त के अनुसार यज्ञ का संपादन करे ।

होतारम्-जो देवता का आह्वान कर होम निष्पादन करे ।

रत्नधा-सायण ने रत्न का अर्थ रमणीय धन किया है । आनंदमय ऐश्वर्य कहना यथार्थ अर्थ होगा । धा का अर्थ है जो धारण करता है या विधान करता है अथवा जो दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है ।

अग्नि: पुर्वेभिॠषिभि: ईडयो  नृतनै: उत | स देवां एह  वक्षित ||२||

जो अग्नि-देव प्राचीन ऋषियों के उपास्य थे वह नवीन ऋषियों के भी (उत) उपास्य हैं । क्योंकि वह देवताओं को इस स्थान पर ले आते हैं ।

मंत्र के अंतिम चरण द्वारा अग्नि-देव के उपास्य होने का कारण निर्दिष्ट किया गया है । स शब्द उसी का आभास देता है ।

एह वक्षति-इह आवहति । अग्नि अपने रथ पर देवताओं को ले आते हैं ।

    अग्निना  रयिमन्न्ववत् पोष्म् एव दियेदिये | यशसं वीरवत्त्मम् ||३||

रयिम्-रत्न का जो अर्थ है वही रयि:, राध:, राय: इत्यादि का भी । फिर भी ”रत्न” शब्द में ”आनंद” अर्थ अधिक प्रस्फुटित है ।

अन्नत्-अन्श्रुयात् । प्राप्त हो या भोग करे |

पोषम् प्रभृति रवि के विशेषण हैं । पोषम् अर्थात् जो पुष्ट होता है, जो वृद्धि को प्राप्त होता है ।

यशसम्-सायण ने यश का अर्थ कभी तो कीर्ति किया है और कभी अन्न । असली अर्थ प्रतीत होता है सफलता, लक्ष्य-स्थान की प्राप्ति इत्यादि । दीप्ति अर्थ भी संगत है, किंतु यहां वह लागू नहीं होता ।

           अग्ने यं यज्ञम् अध्वरं विश्वत: परिभू:  असि | स इद् देवेषु   गच्छति ||४||

जिस अध्वर यज्ञ को चारों ओर से व्यापे हुए तुम प्रादुर्भूत होते हो वही यज्ञ  देवताओं तक पहुंचता है ।

अध्वरम्–‘ध्वृ’ धातु का अर्थ है हिंसा करना । सायण ने ‘अध्वर’ का अर्थ अहिंसित यज्ञ किया है । किंतु ‘अध्वर’ शब्द स्वयं यज्ञवाचक हो गया है । ”अहिंसित” शब्द का ऐसा अर्थ-परिवर्तन कभी संभव नहीं ।

”अध्वरन्” का अर्थ है पथ, अतः अध्वर का अर्थ ‘पथगामी’ अथवा ‘पथस्वरूप’ ही होगा । यज्ञ था देवधाम जाने का पथ और यज्ञ देवधाम के पथिक के रूप में सर्वत्र विख्यात है । यही है संगत अर्थ । ‘अध्वर’ शब्द भी ‘अध्वन्’ की तरह ‘अध्’ धातु से बना है । इसका प्रमाण यह है कि ‘अध्वा’ और ‘अध्वर’ दोनों ही आकाश के अर्थ में व्यवहृत थे ।

परिभू:–परितो जात: (चारों ओर प्रादुर्भूत) ।

देवेषु-सप्तमी के द्वारा लक्ष्यस्थान निर्दिष्ट है ।

इत्-एव (ही) ।

अग्निर्होता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: | देवो देवेभिरागमत् ||५||

यदअङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि | तवेत् सत्यमन्गिर:||६||

उप तवाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया   वयम् | नमो भरन्त एमसि ||७||

राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् | वर्धमानं स्वे दमे ||८||

स न: पितवे सुनवेऽग्ने सूपायनो भव | सचस्वा न: स्वस्तये ||९||

आध्यात्मिक अर्थ

जो देवता होकर हमारे यज्ञ के कर्मनियामक पुरोहित, कालज्ञ, ॠत्विक् और हवि और आह्यान को वहन करनेवाला होता बनते हैं तथा अशेष आनंद और ऐश्वर्य का विधान करते हैं, उन्हीं तपोदेव अग्नि की मैं उपासना करता हूं  |।१।।

प्राचीन ऋषियों की तरह आधुनिक साधकों के लिये भी ये तपोदेवता उपास्य हैं । वे ही देवताओं को इस मर्त्यलोक में ले आते हैं ।।२।।

तप:-अग्नि द्वारा ही मनुष्य दिव्य ऐश्वर्य प्राप्त करता है । वही ऐश्वर्य अग्नि-बल से दिन-दिन वर्द्धित, अग्निबल से विजयस्थल की ओर अग्रसर तथा अग्निबल से ही प्रचुर वीर-शक्तिसंपन्न होता है ।।३।।

हे तपः-अग्नि, जिस देवपथगामी यज्ञ के सब ओर तुम्हारी सत्ता अनुभूत होती है, वह आत्म-प्रयासरूपी यज्ञ ही देवताओं के निकट पहुंचकर सिद्ध होता है ।।४।।

जो तप-अग्नि होता, सत्यमय हैं, जिनकी कर्मशक्ति सत्यदृष्टि  में स्थापित है, नानाविध ज्योतिर्मय श्रौत ज्ञान में जो श्रेष्ठ हैं, वही देववृंद को साथ ले यज्ञ में उतर आवें ।।५।।

हे तप:-अग्नि, जो तुम्हें देता है तुम तो उसके श्रेय की सृष्टि करोगे ही, यही है तुम्हारी सत्य सत्ता का लक्षण ।।६।।

हे अग्नि, प्रतिदिन, अहर्निश हम बुद्धि के विचार द्वारा आत्मसमर्पण को उपहार-स्वरूप वहन करते हुए तुम्हारे निकट आते हैं ।।७।।

जो समस्त देवोन्मुख  प्रयास के नियामक, सत्य के दीप्तिमय रक्षक हैं, जो अपने धाम में सर्वदा वर्द्धित होते हैं, उन्हींके निकट हम आते हैं  ।।८।।

जिस तरह पिता का सामीप्य संतान के लिये सुलभ है उसी तरह तुम भी हमारे लिये सुलभ होओ । दृढ़सगी बन कल्पाणगति साधित करो ।।९।।
विकल्प अनुवाद

जो मेरे यज्ञ के पुरोहित और ॠत्विक् हैं, मेरे यज्ञ के होता हैं, प्रभूत आनन्द जिनका दान है उन तपोदेव अग्नि की मैं कामना करता हूं ।।१।।

तपोदेवता ही प्राचीन ॠिषयों के काम्य थे, वे ही हैं नवीनों के भी काम्य । वे ही इस पृथ्वी पर देववृन्द को वहन कर ले आते हैं ।।२।।

तपोदेव अग्नि द्वारा ही मानव उस वैभव का भोग करता है जिसकी प्रतिदिन वृद्धि होती है, जो यशस्वी है और वीर-शक्ति से परिपूर्ण है ।।३।।

हे अग्नि तपोदेव, जिस देवपथगामी यज्ञ को चारों ओर से तुम अपनी सत्ता से परिवेष्टित  करते हो, वही कर्म देवमण्डल में पहुंच लक्ष्य स्थान को प्राप्त करता है ||४||

तपोदेव अग्नि हमारे यज्ञ के होता, सत्य कविकर्मा, विचित्र, नाना स्तुतियों के स्रोता हैं । देवता दूसरे अन्य देवताओ को साथ ले हमारे समीप आते हैं ।।५।।

हे अंगिरा अग्नि, यज्ञदाता के लिये लुप्त जो परम आनन्द व कल्याण की सृष्टि करोगे वही है परम सत्य ।।६।।

अग्नि तपोदेवता, हम प्रतिदिन, अहोरात्र तुम्हारे पास चिन्तन में, मन में समर्पण भाव को वहन कर आते हैं ।।७।।

तुम देवयात्री राजास्वरूप सत्य के गोप्ता स्व-भवन में सदा वर्द्धित हो सुदीप्ति को प्रकाशित करो ।।८।।

पिता जैसे अपने पुत्र के लिये सहज गम्य होता है वैसे ही तुम भी सहज गम्य बनो । सदा हमारा कल्याण करो ।।९।।

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