Monday 11 July 2016

महर्षि वेद व्यास का जीवन

महर्षि वेद व्यास का बचपन ऐसा था



पिछले अंक में आपने पढ़ा कि महाभारत काल में धर्म की स्थापना के लिए जुटे ऋषि पाराशर एक हमले में घायल हो जाते हैं। उनका एक शुभचिंतक उन्हें बचा कर एक मछुआरों की बस्ती में ले जाता है, जहां उनका चोट ठीक होने में एक साल से भी ज्यादा समय लग जाता है। इस बीच मछुआरों के मुखिया की लड़की, मत्स्यगंधी उन पर मोहित हो जाती है और उन दोनों के रिश्ते से एक बालक का जन्म होता है, जिसका नाम रखा जाता है कृष्ण द्वैपायन, जिन्हें बाद में वेद व्यास के नाम से जाना गया।

अब आगे पढ़िए –

जिस वक्त कृष्ण द्वैपायन का जन्म हुआ, पाराशर ठीक होकर जा चुके थे। जब बच्चे को थोड़ी समझ आई और उसने बोलना शुरू किया तो अपनी माता से पूछा, ‘मेरे पिता कौन हैं?’

मां ने पिता के बारे में शानदार कहानी सुनाई और बताया कि उसके पिता कितने महान और अद्भुत इंसान हैं। जब से मत्स्यगंधी ने बच्चे को दूध पिलाना शुरू किया था, तभी से वह चाहती थी कि वह अपने पिता की बुद्धि और ज्ञान से प्रभावित हो, उस मछुआरे समाज से नहीं, जिसमें वह रहता है। वो मां से बार-बार पूछते, ‘पिताजी हमारे साथ क्यों नहीं रहते?’

और मां हर बार उसे समझाती कि उसके पिता महान कार्यों में लगे हैं और इसीलिए वे एक स्थान पर नहीं रुक सकते। देश में हर जगह उनकी पूछ है इसलिए उन्हें बहुत ज्यादा यात्रा करनी पड़ती है। ज्ञान के प्रसार के लिए उन्हें दुनिया भर में जाना पड़ता है इसलिए वह हमारे साथ नहीं रह सकते।

वो मां से बार-बार पूछते, ‘पिताजी हमारे साथ क्यों नहीं रहते?’ कृष्ण द्वैपायन बार-बार पूछते, ‘अगर वह हमारे साथ नहीं रह सकते तो क्यों नहीं हम उनके पास चले जाते?’

मां कहती,  ‘वह हमें अपने साथ नहीं ले जा सकते क्योंकि यात्रा में होने के कारण उन्हें अलग-अलग तरह की परिस्थितियों में रहना पड़ता है।’ पिता के प्रति जबरदस्त विस्मय के भाव के साथ बच्चा बड़ा हुआ क्योंकि उसने अपने पिता को कभी देखा नहीं था। अब वह अपने पिता से मिलना चाहता था। उसका एकमात्र लक्ष्य यही था।

मछुआरों के गांव में वह दूसरे बच्चों को बताता, ‘मेरे पिता इन तारों, चंद्रमा और सूर्य को जानते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं, जिसका ज्ञान उन्हें न हो।’ वो जो भी कहते, वह बहुत ज्यादा नहीं था क्योंकि पाराशर काफी हद तक इतने ही ज्ञानी थे।

जब द्वैपायन छह साल के हुए, तो पाराशर मछुआरों की बस्ती में फिर आए। बच्चे का तो जैसे सपना साकार हो गया। छह साल के बच्चे ने पलक नहीं झपकाई।

वह अपने पिता के साथ बैठना चाहता था क्योंकि उसके पिता सूर्य, चंद्र, तारों सबके बारे में जानते थे। वह हर उस चीज को जान लेना चाहता था जो उसके पिता जानते थे। उसने उनसे सवाल पर सवाल पूछे। पाराशर बच्चे की क्षमताओं को देखकर हैरान रह गए।पिता ने जो भी बोला, एक स्पंज की तरह उस बच्चे ने सब कुछ सोख लिया। सीखने और समझने की उसकी क्षमताएं जबरदस्त थीं।

पाराशर ने कहा, ‘तुम असाधारण बालक हो, लेकिन तुम अभी महज छह साल के हो। तुम मेरे साथ यात्रा नहीं कर सकोगे।’ द्वैपायन ने पूछा, ‘कृपया बताएं ऐसा क्या है जो मैं आज से दो साल बाद कर सकता हूं और आज नहीं।’ पाराशर ने बच्चे को देखा, लेकिन वह उसके सवाल का जवाब नहीं दे सके क्योंकि वह बौद्धिक रूप से वो सब काम करने में सक्षम था जो 30 साल के एक वयस्क के लिए भी मुश्किल होता है।

पाराशर बोले, ‘देखो, तुम मेरे पुत्र के तौर पर मेरे साथ देश भ्रमण नहीं कर सकते। केवल मेरे शिष्य ही मेरे साथ जा सकते हैं।’ द्वैपायन ने कहा, ‘तो मुझे अपना शिष्य बना लीजिए।’ पाराशर ने फिर कहा, ‘तुम अभी बच्चे हो। तुम्हारी उम्र महज छह साल है।

कृष्ण द्वैपायन ने जिन्हें बाद में वेद व्यास के नाम से जाना गया, विश्व में धर्म के प्रचार प्रसार का जिम्मा संभाल लिया। अपनी मां के साथ थोड़ा और समय बिताओ।’

द्वैपायन बोले, ‘नहीं, मैं चलना चाहता हूं। आप अभी मुझे अपना शिष्य बना लीजिए और मैं आपके साथ चलूंगा।’ पाराशर के सामने कोई चारा नहीं था। छह साल के बच्चे को उन्होंने ब्रह्मचर्य में प्रवेश कराया, उसे अपना शिष्य बनाया और फिर मुंडे हुए सिर और भिक्षा के कटोरे के साथ वह बच्चा अपने पिता या कहें कि गुरु के पीछे चल दिया।

उसने अपनी असाधारण बौद्धिक क्षमताओं का प्रदर्शन जारी रखा। जो बात उसे एक बार बता दी जाती, उसे दोबारा बताने की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। धीरे-धीरे द्वैपायन का ज्ञान इतना बढ़ गया कि जब पाराशर उन्हें कोई बात बताते, तो उस बात से जुड़ी दस बातें द्वैपायन पहले से ही जानते थे। पिता से चीजों को ग्रहण करने की उनकी क्षमता जबरदस्त हो गई क्योंकि वह अपने गुरु के प्रति एकाग्रचित्त थे।

कृष्ण द्वैपायन ब्रह्मचर्य के पहले दिन महज छः साल में मुंडे हुए सिर और लकड़ी की छाल से बने वस्त्र पहने यह छोटा सा बच्चा भिक्षा मांगने निकला। जब इस बच्चे ने अपनी मासूम पतली सी आवाज में बोला – ‘भिक्षाम देहि’, तो लोगों ने उसे भरपूर भोजन दे दिया। जब लोगों ने उसे अकेला गली-गली घूमकर अपने और अपने गुरु के लिए भोजन की भिक्षा मांगते हुए देखा, तो उन्होंने उसकी शक्ति को पहचान लिया। हर कोई उसे कुछ देना चाहता था, और उनके लिए लिए भोजन ही सबसे अच्छी चीज थी, जो वे उसे दे सकते थे।

उसे इतनी भिक्षा मिल जाती थी कि वह उसे लेकर चल भी नहीं पाता था। एक दिन भिक्षा लेकर जब वह आगे बढ़ा तो उसे ऐसे बच्चे मिले, जिन्होंने उस दिन ठीक से भोजन नहीं किया था। उसने अपना पूरा भोजन उन बच्चों को दे दिया और खाली कटोरा लेकर वापस लौट आया। उसके गुरु और पिता पाराशर ने उससे पूछा, ‘क्या हुआ? क्या आज तुमने भिक्षा नहीं मांगी या तुम्हें किसी ने दी नहीं?’

कृष्ण द्वैपायन ने कहा, ‘भिक्षा तो मुझे भरपूर मिल गई थी, लेकिन रास्ते में मुझे कुछ बच्चे मिले, जिन्होंने भरपेट भोजन नहीं किया था। मैंने अपना सारा भोजन उन्हें दे दिया। पाराशर ने बच्चे की ओर देखा और कहा, ‘ठीक किया।’ इसका मतलब यह हुआ कि उस दिन उन दोनों के खाने के लिए बिल्कुल भोजन नहीं बचा।

कई दिन तक ऐसा ही चलता रहा। बच्चे ने कुछ नहीं खाया। जब पाराशर ने देखा कि छह साल के उस बच्चे ने तीन-चार दिन से कुछ नहीं खाया है और फिर भी वह अपनी पढ़ाई और दूसरे काम लगातार कर रहा है, तो उन्हें उस बच्चे के अंदर जबर्दस्त संभावनाएं महसूस हुईं। उन्होंने बच्चे को अपना पूरा ज्ञान दे दिया। किसी और को जो ज्ञान देने में वह 100 साल लगाते, उस बच्चे को उन्होंने बहुत कम समय में वह पूरा ज्ञान दे दिया।

वेदों में अंतिम वेद – अथर्व वेद

एक और महान संत थे जिनका नाम था महाथरवन। चार वेदों में सबसे अंतिम है अथर्व वेद। दुनिया में अपने कामों को पूरा करने के लिए ऊर्जाओं को कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करने का विज्ञान अथर्व वेद के नाम से जाना जाता है।

इस विज्ञान को तंत्र – मंत्र विद्या भी कहा जाता है। वैदिक परंपराओं ने शुरुआत में इसे खारिज कर दिया था और इसे वेदों में शामिल नहीं किया गया था। ब्राह्मणों के एक बड़े समाज द्वारा अथर्व वेद को खारिज करने की वजह से तीन ही वेद थे। बाद में महाथरवन ने अथर्व वेद को वेदों में शामिल कराने और उतना ही महत्व दिलाने के लिए पहले पाराशर और फिर कृष्ण द्वैपायन के साथ मिलकर काम किया।

उनकी कोशिशों की वजह से ही अब वेदों की संख्या चार है। कुछ समय बाद पाराशर बूढ़े हो गए और उन्होंने धर्म के प्रचार-प्रसार और स्थापना के लिए यात्राएं करनी बंद कर दी, लेकिन कृष्ण द्वैपायन ने जिन्हें बाद में वेद व्यास के नाम से जाना गया, विश्व में धर्म के प्रचार प्रसार का जिम्मा संभाल लिया। उस समय उनकी आयु 16 साल थी। वह वास्तव में अतुलनीय थे।

समाज के इन चारों वर्णों के लिए धर्म की स्थापना की गई। धर्म यह तय करता था कि कोई शूद्र कैसे रहेगा, वैश्य कैसे रहेगा, क्षत्रिय को कैसे रहना चाहिए और ब्राह्मण को कैसे रहना चाहिए। हर किसी की जिम्मेदारी और उसके काम की प्रकृति के अनुसार एक खास धर्म की स्थापना की गई।

वेद जीवन के हर पहलू का मार्गदर्शन करते हैं

सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ माने जाने वाले वेद, महज धार्मिक किताबें नहीं है, बल्कि एक ऐसा लेखा-जोखा है जो मानव जीवन से जुड़े हर पहलू का मार्ग-दर्शन करता है। जाहिर है, मानव जीवन में इनकी बड़ी महत्ता है। वेदों की गिनती इस धरती के सबसे प्राचीन, फिर भी सबसे व्यापक धर्म ग्रंथों के रूप में की जाती है। वेद कोई किताब नहीं हैं और न ही इनकी विषय वस्तु मन गढ़ंत हैं।

वैदिक प्रणाली ने हमेशा मानवीय सोच को बेहतर बनाने और  उसका स्तर उठाने पर जोर दिया है, सिर्फ ज्ञान बढ़ाने पर नहीं।

ये कोई नैतिक धर्म संहिता भी नहीं हैं, जिसकी किसी ने रचना की हो। वेद बाहरी और आंतरिक दोनों तरह के खोजों की एक श्रृंखला है। अपनी संस्कृति में प्राचीन काल में इन्हें ज्ञान की किताब के तौर पर देखा जाता था।

वेदों में तमाम बातों के बारे में बताया गया है, मसलन खाया कैसे जाए, बैलगाड़ी कैसे बनाई जाए, ठोस ईंधन से चलने वाले हवाई जहाज की निर्माण प्रक्रिया क्या है, अपने पड़ोसी से कैसा व्यवहार रखें और अपनी परम प्रकृति को कैसे प्राप्त करें।

जाहिर है, वेद सिर्फ पढने योग्य किताबें ही नहीं हैं, बल्कि वे तो हमारे अस्तित्व के तमाम पहलुओं की एक रूप रेखा हैं।

वेद के मन्त्रों का विज्ञान

वेदों के विभिन्न पहलुओं का संबंध एक आकार को ध्वनि में बदलने से है। अगर आप किसी ध्वनि को किसी दोलनदर्शी (आवाज मापने का एक यंत्र) में भेजें, तो दोलनदर्शी से एक खास तरह की आकृति पैदा होगी, हालांकि यह आकृति उसमें भेजी गई ध्वनि के कंपन, आवृत्ति और आयाम पर निर्भर करती है।

आज यह पूरी तरह प्रमाणित तथ्य है कि हर ध्वनि के साथ एक आकृति भी जुड़ी होती है। इसी तरह से हर आकृति के साथ एक खास ध्वनि जुड़ी होती है। आकृति और ध्वनि के बीच के इस संबंध को हम मंत्र के नाम से जानते हैं। आकृति को यंत्र कहा जाता है और ध्वनि को मंत्र। यंत्र और मंत्र को एक साथ प्रयोग करने की तकनीक को तंत्र कहते हैं।

तमाम तरह के जीवों और ध्वनि के बीच के इस संबंध में महारत हासिल की गई। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद का ज्यादातर हिस्सा इसी संबंध के बारे में है। संबंध यानी जीवन को ध्वनि में परिवर्तित करना जिससे कुछ खास ध्वनियों का उच्चारण करके आप जीवन को अपने भीतर ही गुंजायमान कर सकें।

ध्वनि में महारत हासिल करके आप आकृति के ऊपर भी महारत हासिल कर लेते हैं। यही है मंत्रों का विज्ञान, जिसकी दुर्भाग्यवश गलत तरीके से विवेचना की गई है  अंदरूनी प्रक्रिया है।

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