पुराने समय की बात है। देवताओं और राक्षसों में आपसी मतभेद के कारण शत्रुता बढ़ गयी। आये दिन दोनों पक्षों में युद्ध होता रहता था । एक दिन राक्षसो के आक्रमण से सभी देवता भयभीत हो गए और ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी के परामर्श के बाद वे जगद्गुरु की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे। देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान ने कहा- देवताओं आप सभी दानवराज बलि से प्रेमपूर्वक मिलों और समुद्र मंथन की तैयारी आरंभ कर दो। समुद्र मंथन के अंत में अमृत निकलेगा जिसे पीकर आप लोग अमर हो जाओगे। यह कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए।
इसके बाद देवताओं ने बलि की सहमति से वासुकी नाग को रस्सी और मन्दराचल को मथानी बनाकर समुद्र मंथन शुरु किया। परंतु जैसे ही समुद्र मंथन शुरु हुआ कि मन्दराचल ही समुद्र में डूबने लगा। सभी लोग परेशान हो गए। अंत में निराश होकर सभी ने भगवान का सहारा लिया। भगवान तो सब जानते ही थे। उन्होंने हंसकर कहा- सब कार्यों के प्रारम्भ में गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। बिना उनकी पूजा के कार्य सिद्ध नहीं होता। यह सुनकर सभी लोग गणेश जी की पूजा करने लगे। उधर गणेश जी की पूजा हो रही थी, इधर लीलाधारी भगवान ने कच्छप रूप धारण कर मन्दराचल को अपनी पीठ पर उठा लिया। तत्पश्चात समुद्र मंथन आरंभ हुआ।
भक्तों के परम हितैषी कच्छप भगवान को हम नमस्कार करते है।
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