Tuesday, 12 July 2016

नृसिंहावतार



हिरण्याक्ष के वध से उसका भाई हिरण्यकशिपु बहुत दु:खी हुआ। वह भगवान का घोर विरोधी बन गया। उसने अजेय बनने की भावना से कठोर तप किया। उसे देवता, मनुष्य या पशु आदि से ना मरने का वरदान मिला। वरदान पाकर वह अजेय हो गया।
हिरण्यकशिपु का शासन इतना कठोर था कि देव- दानव सभी उसके चरणों की वंदना करते रहते थे। भगवान की पूजा करने वालों को वह कठोर दण्ड देता था। उसके शासन से सब लोक और लोकपाल घबराने लगे। जब उन्हे कोई सहारा ना मिला तब वे भगवान की प्रार्थना करने लगे। देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर नारायण नें हिरण्यकशिपु के वध का आश्वासन दिया।
दैत्यराज का अत्याचार दिनों-दिन बढ़ता चला गया। यहां तक कि वो अपने ही पुत्र प्रहलाद को भगवान का नाम लेने के कारण तरह तरह का कष्ट देने लगा।
प्रहलाद बचपन से ही भगवान नारायण का परम भक्त था और असुर बालको को धर्म का उपदेश देता था। असुर-बालकों को उपदेश की बात सुनकर हिरण्यकशिपु बहुत क्रोधित हुआ। उसने प्रहलाद को दरबार में बुलाया। प्रहलाद बड़ी नम्रता से दैत्यराज के सामने खड़ा हो गया। उसे देखकर दैत्यराज ने डाँटते हुए कहा- 'मूर्ख! तू बड़ा उद्दंड हो गया है। तूने किसके बल पर मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?' इस पर प्रहलाद ने कहा- 'पिताजी! ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सब छोटे-बड़े, चर-अचर जीवों को भगवान ने ही अपने वश में कर रखा है। वह परमेश्वर ही अपनी शक्तियों द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप अपना यह भाव छोड़ अपने मन को सबके प्रति उदार बनाइए।'
प्रहलाद की बात को सुनकर हिरण्यकशिपु का शरीर क्रोध के मारे थर-थर काँपने लगा। उसने प्रहलाद से कहा- 'मंदबुद्धि! यदि तेरा भगवान हर जगह है तो बता इस खंभे में क्यों नहीं दिखता?' यह कहकर क्रोध से तमतमाया हुआ वह स्वयं तलवार लेकर सिंहासन से कूद पड़ा। उसने बड़े जोर से उस खंभे को एक घूँसा मारा। उसी समय उस खंभे के भीतर से नृसिंह भगवान प्रकट हुए। उनका आधा शरीर सिंह का और आधा मनुष्य के रूप में था। क्षणमात्र में ही नृसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु की जीवन-लीला समाप्त कर अपने प्रिय भक्त प्रहलाद की रक्षा की।

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