Wednesday 13 July 2016

जीवन दर्शन

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      एक कथावाचक पंडितजी थे। वे बड़ी ही भावपूर्ण कथा कहा करते थे। श्रोतागण रस लेकर उनकी कथा सुनते और उनके सदुपदेशों से अपना जीवन धन्य बनाते। पंडितजी की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। उनकी कथा में प्रतिदिन एक बहरा व्यक्ति भी आता था।

     वह नियम से रोज आता और पूरी कथा के दौरान उतनी ही तन्मयता से बैठा रहता, जैसे दूसरे लोग बैठते थे। एक दिन पंडितजी को पता लगा कि वह बहरा है और कथा का एक शब्द भी नहीं सुन पाता। उन्हें आश्चर्य हुआ कि फिर वह कथा में क्यों आता है।

     उन्होंने अगले दिन उस बहरे व्यक्ति के कान के नजदीक अपना मुंह ले जाकर जोर से पुकारकर पूछा - आपको तो कथा सुनाई नहीं पड़ती, फिर आप नित्य यहां क्यों आते हैं?

       वह बोला - यहां भगवान की कथा होती है। मैं उसे सुन पाऊं या नहीं, अन्यत्र बैठने से यहां पवित्र वातावरण में बैठने का लाभ तो मुझे होता ही है, किंतु उससे भी मुख्य बात तो यह है कि मेरा भी अनुकरण करने वाले कुछ लोग हैं।

       मेरे बच्चे और सेवक। मेरे घर के अन्य सदस्य मेरे आचरण से ही प्रेरणा प्राप्त करते हैं। मैं कथा में नियमपूर्वक इसी वजह से आता हूं कि इससे उनके चित में भागवत कथा के प्रति रुचि, श्रद्धा, महत्वबुद्धि तथा जिज्ञासा हो। साथ ही कथा के शब्दों से मेरे अंगों का स्पर्श होने के कारण मुझे भी पुण्य प्राप्त होता है।

      वस्तुत: सत्संग किसी भी स्वरूप, समय या अवस्था में किया जाए, लाभकारी ही होता है। अत: जहां भी और जैसे भी रहें, सत्संग अवश्य करें।

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