Wednesday, 13 July 2016

परशुराम अवतार



प्राचीन काल की बात है। पृथ्वी पर हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार बढ़ गया था। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। गौ, ब्राह्मण और साधु असुरक्षित हो गए थे। ऐसे समय में भगवान स्वयं परशुराम के रुप में जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका के गर्भ से अवतरित हुए।
उन दिनों हैहयवंश का राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन था। वह बहुत ही अत्याचारी और क्रूर शासक था। एक बार वह जमदग्नि ऋषि  के आश्रम पर आया। उसने आश्रम के पेड़-पौधों को उजाड़ दिया। जाते समय  ऋषि का गाय भी लेकर चला गया। जब परशुराम जी को उसकी दुष्टता का समाचार मिला तब उन्होंने सहस्त्रबाहु अर्जुन को मार डाला। सहस्त्रबाहु के मर जाने पर उसके दस हजार लड़के डरकर भाग गये।
सहस्त्रबाहु अर्जुन के जो लड़के परशुरामजी से हारकर भाग गये थे, उन्हे अपने पिता के वध की याद निरन्तर बनी रहती थी। कहीं एक क्षण के लिए भी उन्हें चैन  नहीं मिलता था।
एक दिन की बात है। परशुराम अपने भाइयों के साथ आश्रम के बाहर गये हुए थे। अनुकूल अवसर पाकर सहस्त्रबाहु के लड़के वहां आ पहुचें। उस समय महर्षि जमदग्नि को अकेला पाकर उन पापियों नें उन्हें मार डाला। सती रेणुका सिर पीट पीटकर जोर-जोर से रोने लगी।
परशुराम जी ने दूर से ही माता का करुण- क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रता से आश्रम पर आए। वहां आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं। उस समय परशुराम जी को बहुत दु:ख हुआ। वे क्रोध और शोक के वेग से अत्यंत मोहित हो गये। उन्होंने पिता का शरीर तो भाइयो सौप दिया और स्वयं हाथ में फरसा लेकर क्षत्रियों का संहार करने का निश्चय किया।
भगवान ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गए है। इसलिए उन्होंने पिता के वध को निमित्त बनाकर 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया। भगवान ने इस प्रकार भृगुकुल में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी का भार बने राजाओं का बहुत बार वध किया।
तत्पश्चात  भगवान परशुराम ने अपने पिता को जीवित कर दिया। जीवित होकर वे सप्तर्षियों के मण्डल में सातवें ऋषि हो गए। अंत में भगवान यज्ञ में सारी पृथ्वी दान कर महेन्द्र पर्वत पर चले गये।

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