Wednesday 6 July 2016

भक्ति की अद्भुत पराकाष्ठा

भक्ति की अद्भुत पराकाष्ठा की मिसाल भगवान हनुमान
लंका मे रावण को परास्त करने के बाद श्रीराम माता सीता लक्ष्मण और हनुमान के साथ अयोध्या लौट चुके थे। प्रभु राम के आने की खुशी में पूरे अयोध्या में हर्षोल्लास का माहौल था। राजमहल में राज्याभिषेक की तैयारियां चल रही थी। राज्याभिषेक के बाद जब लोगों को उपहार बांटे जा रहे थे तभी माता सीता ने हनुमान जी से प्रसन्न होकर उन्हें हीरों का एक हार दिया और बाकी सेवकों को भी उन्होंने भेंट स्वरुप मोतियों से जड़े रत्न दिए। जब हनुमान जी ने हार को अपने हाथ में लिया तब उन्होंने प्रत्येक हीरे को माला से अलग कर दिया और उन्हें चबा-चबाकर जमीन पर फेंकने लगे। यह देख माता सीता को क्रोध आ गया और वे बोलीं-“ अरे हनुमान! ये आप क्या कर रहे हैं , आपने इतना मूल्यवान हार तोड़कर नष्ट कर दिया।” यह सुनकर अश्रुपूरित नेत्रों से हनुमान जी बोले- “माते! मैं तो केवल इन रत्नों को खोलकर यह देखना चाहता था कि इनमे मेरे आराध्य प्रभु श्रीराम और माँ सीता बसते हैं अथवा नहीं! आप दोनों के बिना इन पत्थरों का मेरे लिए क्या मोल? जिस वस्तु में मेरे आराध्य की छवि ना दिखाई दें वो वस्तु मेरें किसी काम की नहीं है। बाकी सेवक यह सारी घटना देख रहे थे, वे तुरंत ही हनुमान जी के पास आकर बोले- क्या आपके संपूर्ण शरीर में भी श्रीराम बसते है। इतना कहते ही हनुमान जी ने अपनी छाती चीर दी और सभी लोगों को उनके हृदय में भगवान राम और माता सीता की छवि दिखाई दी। भक्ति की इस पराकाष्ठा को देखकर भगवान राम ने हनुमान जी को गले से लगा लिया। संपूर्ण सभा भावविभोर हो उठी।
"भाग्यवान हनुमान सा जग में दूजा नाई'
राम सिया की युगल छवि, जाके अंतर माही।"

No comments:

Post a Comment