Saturday 16 July 2016

उस बालक ने मां के लिए प्राण दे दिए

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सन् 1880 ई. में उड़ीसा में बड़ा भारी अकाल पड़ा था। अन्न के बिना लोग भूखों मर रहे थे। एक गरीब परिवार में एक पुरुष, उसकी पत्नी व दो बच्चे थे। जब घर में भोजन के लिए कुछ भी नहीं रह गया और कहीं मजदूरी भी नहीं मिली, तो पुरुष से अपनी पत्नी व बच्चे का भुख से तड़पना नहीं देखा गया।
वह उन्हें छोड़कर कहीं चला गया। बेचारी उस स्त्री ने घर के बर्तन और कपड़े बेचकर जितने दिन काम चल सकता था, चलाया। जब घर खाली हो गया, तो वह दोनों बच्चों को लेकर भीख मांगने निकली। भीख में जो कुछ मिलता था, उसे पहले बच्चों को खिलाकर तब वह बचा हुआ खाती और न बचता, तो पानी पीकर ही सो जाया करती थी।
थोड़े दिनों के बाद वह स्त्री बीमार हो गई। उसके दस वर्षीय बड़े लड़के को भीख मांगने जाना पड़ता था। किंतु वह बालक भीख में जो कुछ पाता था, उससे तीनों का पेट नहीं भरता था। माता ज्वर में बेसुध पड़ी रहती थी और छोटे बच्चे को संभालने वाला कोई न था। वह भूख के मारे इधर-उधर भटका करता और एक दिन वह मर गया। बड़ा लड़का जो भीख में पाता वह मां को खिला देता।
एक बार कई दिनों तक उसे अपने भोजन के लिए कुछ नहीं मिला। वह एक सज्जन पुरुष के घर पहुंचा, तो उन्होंने कहा- ‘‘मेरे पास थोड़े-सा भात है। तुम यहीं बैठकर खा लो।’’ लड़के ने बीमार मां का हवाला देते हुए उसके लिए दो मुट्ठी भात की मांग की।
उन सज्जन ने कहा- ‘‘भात इतना कम है कि तुम्हारा भी पेट नहीं भरेगा। इसलिए तुम्हीं खा लो। तब लड़का बोला- ‘‘मां जब अच्छी थी, तो मुझे खिलाकर स्वयं बिना खाए रह जाती थी। अब उसके बीमार होने पर मैं उसे बिना खिलाए कैसे खा सकता हूं?’’
लड़के की मातृभक्ति देखकर सज्जन बहुत प्रसन्न हुए और भात लेने घर में गए। किंतु लौटकर आने पर देखा कि वह लड़का भूमि पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हो चुका था। यह थी उस अनाम बालक की मातृभक्ति, जिसने मां को अन्न दिए बिना भोजन स्वीकार नहीं किया जबकि भूख के कारण उसके प्राण ही चले गए।
सार यह है कि जो मां हमारे लिए अपना खाना-पीना, सोना अर्थात् सभी सुख-सुविधाओं का त्याग कर देती है समय आने पर हमें भी उसके लिए हर प्रकार का बलिदान करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। ऐसी मातृभक्ति मात्र हमारा कर्तव्य ही नहीं बल्कि आत्मिक संतोष पाने का श्रेष्ठ माध्यम भी है।

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