Thursday 7 July 2016

श्रीजगन्नाथ_जी_प्रागट्य_कथा



राजा इंद्रद्युम्न पुरी के राजा थे । दैवयोग से इंद्रद्युम्न के मन में एक अज्ञात कामना प्रगट हुई, कि वह ऐसा मंदिर का निर्माण कराएं जैसा दुनिया में कहीं और न हो. इंद्रद्युम्न विचारने लगे कि आखिर उनके मंदिर में किस देवता की मूर्ति स्थापित करें...

एक रात इसी पर गंभीर चिंतन करते सो गए. नीद में राजा ने एक सपना देखा. सपने में उन्हें एक देव वाणी सुनाई पड़ी...

इंद्रद्युम्न ने सुना- राजा तुम पहले नए मंदिर का निर्माण आरंभ करो. मूर्ति विग्रह की चिंता छोड़ दो. उचित समय आने पर तुम्हें स्वयं राह दिखाई पड़ेगी. राजा नीद से जाग उठे. सुबह होते ही उन्होंने अपने मंत्रियों को सपने की बात बताई.

राजा पुरोहित के सुझाव पर शुभ मुहूर्त में पूर्वी समुद्र तट पर एक विशाल मंदिर के निर्माण का निश्चय हुआ. वैदिक-मंत्रोचार के साथ मंदिर निर्माण का श्रीगणेश हुआ...

राजा इंद्रद्युम्न के मंदिर बनवाने की सूचना शिल्पियों और कारीगरों को हुई. सभी इसमें योगदान देने पहुंचे. दिन रात मंदिर के निर्माण में जुट गए. कुछ ही वर्षों में मंदिर बनकर तैयार हुआ...

सागर तट पर एक विशाल मंदिर का निर्माण तो हो गया, परंतु मंदिर के भीतर भगवान की मूर्ति की समस्या थी. एक दिन मंदिर के गर्भगृह में बैठकर इसी चिंतन में बैठे राजा की आंखों से आंसू निकल आए...

राजा ने भगवान से विनती की- प्रभु आपके किस स्वरूप को इस मंदिर में स्थापित करूं इसकी चिंता से व्यग्र हूं. मार्ग दिखाइए. आपने स्वप्न में जो संकेत दिया था उसे पूरा होने का समय कब आएगा ? देव विग्रह विहीन मंदिर देख सभी मुझ पर हंसेंगे...

प्रजा समझेगी कि मैंने झूठ-मूठ में स्वप्न में आपके आदेश की बात कहकर इतना बड़ा श्रम कराया. हे प्रभु मार्ग दिखाइए...

राजा दुखी मन से अपने महल में चले गए. उस रात को राजा ने फिर एक सपना देखा. सपने में उसे देव वाणी सुनाई दी- राजन ! यहां निकट में ही भगवान श्री कृष्ण का विग्रह रूप है. तुम उन्हें खोजने का प्रयास करो, तुम्हें दर्शन मिलेंगे...

इन्द्रद्युम्न ने स्वप्न की बात पुनः पुरोहित और मंत्रियों को बताई. सभी यह निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रभु की कृपा सहज प्राप्त नहीं होगी. उसके लिए हमें निर्मल मन से परिश्रम आरंभ करना होगा...

भगवान के विग्रह का पता लगाने की जिम्मेदारी राजा इंद्रद्युम्न ने चार विद्वान पंडितों को सौंप दिया. प्रभु इच्छा से प्रेरित होकर चारों विद्वान चार दिशाओं में निकले...

उन चारों में एक विद्वान थे विद्यापति. वह चारों में सबसे कम उम्र के थे. प्रभु के विग्रह की खोज के दौरान उनके साथ बहुत से अलौकिक घटनाएं हुई. प्रभु का विग्रह किसे मिला ? यह प्रसंग आगे पढ़ें.
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पंडित विद्यापति पूर्व दिशा की ओर चले. कुछ आगे चलने के बाद विद्यापति उत्तर की ओर मुडे तो उन्हें एक जंगल दिखाई दिया. विद्यापति श्री कृष्ण के उपासक थे. उन्होंने श्री कृष्ण का स्मरण किया और राह दिखाने की प्रार्थना की...

भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उन्हें राह दिखने लगी. प्रभु का नाम लेते वह वन में चले जा रहे थे. जंगल के मध्य उन्हें एक पर्वत दिखाई दिया. पर्वत के वृक्षों से संगीत की ध्वनि सा सुरम्य गीत सुनाई पड़ रहा था...

विद्यापति संगीत के जान कार थे. उन्हें वहां मृदंग, बंसी और करताल की मिश्रित ध्वनि सुनाई दे रही थी. यह संगीत उन्हें दिव्य लगा. संगीत की लहरियों को खोजते विद्यापति आगे बढ़ चले...

पहाड़ के दूसरी ओर उन्हें एक सुंदर घाटी दिखी, जहां भील नृत्य कर रहे थे. विद्यापति उस दृश्य को देखकर मंत्र मुग्ध थे. सफर के कारण थके थे पर संगीत से थकान मिट गयी और उन्हें नींद आने लगी...

अचानक एक बाघ की गर्जना सुनकर विद्यापति घबरा उठे. बाघ उनकी और दौड़ता आ रहा था. बाघ को देखकर विद्यापति घबरा गए और बेहोश होकर वहीं गिर पडे...

बाघ विद्यापति पर आक्रमण करने ही वाला था कि, तभी एक स्त्री ने बाघ को पुकारा- बाघा..!!
उस आवाज को सुनकर बाघ मौन खडा हो गया. स्त्री ने उसे लौटने का आदेश दिया तो बाघ लौट पड़ा...

बाघ उस स्त्री के पैरों के पास ऐसे लोटने लगा जैसे कोई बिल्ली पुचकार सुनकर खेलने लगती है. युवती बाघ की पीठ को प्यार से थपथपाने लगी और बाघ स्नेह से लोटता रहा...

वह स्त्री वहां मौजूद स्त्रियों में सर्वाधिक सुंदर थी. वह भीलों के राजा विश्वावसु की इकलौती पुत्री ललिता थी. ललिता ने अपनी सेविकाओं को अचेत विद्यापति की देखभाल के लिए भेजा...

सेविकाओं ने झरने से जल लेकर विद्यापति पर छिड़का. कुछ देर बाद विद्यापति की चेतना लौटी. उन्हें जल पिलाया गया. विद्यापति यह सब देख कर कुछ आश्चर्य में थे...

ललिता विद्यापति के पास आई और पूछा- आप कौन हैं और भयानक जानवरों से भरे इस वन में आप कैसे पहुंचे. आपके आने का प्रयोजन बताइए ताकि मैं आपकी सहायता कर सकूं...

विद्यापति के मन से बाघ का भय पूरी तरह गया नहीं था. ललिता ने यह बात भांप ली और उन्हें सांत्वना देते हुए कहा- विप्रवर आप मेरे साथ चलें. जब आप स्वस्थ हों तब अपने लक्ष्य की ओर प्रस्थान करें.
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विद्यापति ललिता के पीछे-पीछे उनकी बस्ती की तरफ चल दिए. विद्यापति भीलों के पाजा विश्वावसु से मिले और उन्हें अपना परिचय दिया. विश्वावसु विद्यापति जैसे विद्वान से मिलकर बड़े प्रसन्नता हुए...

विश्वावसु के अनुरोध पर विद्यापति कुछ दिन वहां अतिथि बनकर रूके. वह भीलों को धर्म और ज्ञान का उपदेश देने लगे. उनके उपदेशों को विश्वावसु तथा ललिता बड़ी रूचि के साथ सुनते थे. ललिता के मन में विद्यापति के लिए अनुराग पैदा हो गया...

विद्यापति ने भी भांप लिया कि, ललिता जैसी सुंदरी को उनसे प्रेम हो गया है, किंतु विद्यापति एक बड़े कार्य के लिए निकले थे. अचानक एक दिन विद्यापति बीमार हो गए. ललिता ने उसकी सेवा सुश्रुषा की...

इससे विद्यापति के मन में भी ललिता के प्रति प्रेम भाव पैदा हो गया. विश्वावसु ने प्रस्ताव रखा की विद्यापति ललिता से विवाह कर ले. विद्यापति ने इसे स्वीकार कर लिया...

कुछ दिन दोनों के सुखमय बीते. ललिता से विवाह करके विद्यापति प्रसन्न तो था, पर जिस महत्व पूर्ण कार्य के लिए वह आए थे, वह अधूरा था. यही चिंता उन्हें बार बार सताती थी...

इस बीच विद्यापति को एक विशेष बात पता चली. विश्वावसु हर रोज सवेरे उठ कर कहीं चला जाता था. और सूर्योदय के बाद ही लौटता था. कितनी भी विकट स्थिति हो उसका यह नियम कभी नहीं टूटता था...

विश्वावसु के इस व्रत पर विद्यापति को आश्चर्य हुआ. उनके मन में इस रहस्य को जानने की इच्छा हुई. आखिर विश्वावसु जाता कहां है. एक दिन विद्यापति ने ललिता से इस सम्बन्ध में पूछा. ललिता यह सुनकर सहम गई...

आखिर वह क्या रहस्य था ? क्या वह रहस्य विद्यापति के कार्य में सहयोगी था या विद्यापति पत्नी के प्रेम में मार्ग भटक गए. यह प्रसंग आगे पढ़ें
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विद्यापति ने ललिता से उसके पिता द्वारा प्रतिदिन सुबह किसी अज्ञात स्थान पर जाने और सूर्योदय के पूर्व लौट आने का रहस्य पूछा. विश्ववासु का नियम किसी हाल में नहीं टूटता था, चाहे कितनी भी विकट परिस्थिति हो...

ललिता के सामने धर्म संकट आ गया. वह पति की बात को ठुकरा नहीं सकती थी, लेकिन पति जो पूछ रहा था वह उसके वंश की गोपनीय परंपरा से जुड़ी बात थी जिसे खोलना संभव नहीं था...

ललिता ने कहा- स्वामी ! यह हमारे कुल का रहस्य है जिसे किसी के सामने खोला नहीं जा सकता परंतु आप मेरे पति हैं और मैं आपको कुल का पुरुष मानते हुए जितना संभव है उतना बताती हूं...

यहां से कुछ दूरी पर एक गुफा है जिसके अन्दर हमारे कुल देवता हैं. उनकी पूजा हमारे सभी पूर्वज करते आए हैं. यह पूजा निर्बाध चलनी चाहिए. उसी पूजा के लिए पिता जी रोज सुबह नियमित रूप से जाते हैं...

विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह भी उनके कुल देवता के दर्शन करना चाहते हैं. ललिता बोली- यह संभव नहीं. हमारे कुल देवता के बारे में किसी को जानने की इच्छा है, यह सुनकर मेरे पिता क्रोधित हो जाएंगे...

विद्यापति की उत्सुक्ता बढ़ रही थी. वह तरह-तरह से ललिता के अपने प्रेम की शपथ देकर उसे मनाने लगे. आखिर कार ललिता ने कहा कि वह अपने पिता जी से विनती करेगी कि वह आपको देवता के दर्शन करा दें...

ललिता ने पिता से सारी बात कही. वह क्रोधित हो गए. ललिता ने जब यह कहा कि मैं आपकी अकेली संतान हूं. आपके बाद देवता के पूजा का दायित्व मेरा होगा. इसलिए मेरे पति का यह अधिकार बनता है क्योंकि आगे उसे ही पूजना होगा...

विश्वावसु इस तर्क के आगे झुक गए. वह बोले- गुफा के दर्शन किसी को तभी कराए जा सकते हैं, जब वह भगवान की पूजा का दायित्व अपने हाथ में ले ले. विद्यापति ने दायित्व स्वीकार किया तो विश्वावसु देवता के दर्शन कराने को राजी हुए...

दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांधकर विश्वावसु उनका दाहिना हाथ पकड़ कर गुफा की तरफ निकले. विद्यापति ने मुट्ठी में सरसों रख लिया था जिसे रास्ते में छोड़ते हुए गए...

गुफा के पास पहुंचकर विश्वावसु रुके और गुफा के पास पहुंच गए. विश्वावसु ने विद्यापति के आँखों की काली पट्टी खोल दी. उस गुफा में नीले रंग का प्रकाश चमक उठा. हाथों में मुरली लिए भगवान श्री कृष्ण का रूप विद्यापति को दिखाई दिया...

विद्यापति आनंद मग्न हो गए. उन्होंने भगवान के दर्शन किए. दर्शन के बाद तो जैसे विद्यापति जाना ही नहीं चाहते थे. पर विश्वावसु ने लौटने का आदेश दिया. फिर उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और दोनों लौट पड़े...

लौटने पर ललिता ने विद्यापति से पूछा. विद्यापति ने गुफा में दिखे अलौकिक दृश्य के बारे में पत्नी को बताना भी उसने उचित नहीं समझा. वह टाल गए. यह तो जानकारी हो चुकी थी कि विश्वावसु श्री कृष्ण की मूर्ति की पूजा करते हैं...

विद्यापति को आभास हो गया कि महाराज ने स्वप्न में जिस प्रभु विग्रह के बारे में देव वाणी सुनी थी, वह इसी मूर्ति के बारे में थी. विद्यापति विचार करने लगे कि किसी तरह इसी मूर्ति को लेकर राजधानी पहुंचना होगा...

वह एक तरफ तो गुफा से मूर्ति को लेकर जाने की सोच रहे थे, दूसरी तरफ भील राज और पत्नी के साथ विश्वासघात के विचार से उनका मन व्यथित हो रहा था. विद्यापति धर्म-अधर्म के बारे में सोचता रहे...

फिर विचार आया कि यदि विश्वावसु ने सचमुच उसपर विश्वास किया होता, तो आंखों पर पट्टी बांधकर गुफा तक नहीं ले जाता. इसलिए उसके साथ विश्वास घात का प्रश्न नहीं उठता. उसने गुफा से मूर्ति चुराने का मन बना लिया...

विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह अपने माता-पिता के दर्शन करने के लिए जाना चाहता है. वे उसे लेकर परेशान होंगे. ललिता भी साथ चलने को तैयार हुई तो विद्यापति ने यह कह कर समझा लिया कि वह शीघ्र ही लौटेगा तो उसे लेकर जाएगा...

ललिता मान गई. विश्वावसु ने उसके लिए घोड़े का प्रबंध किया. अब तक सरसों के दाने से पौधे निकल आए थे. उनको देखता विद्यापति गुफा तक पहुंच गया. उसने भगवान की स्तुति की और क्षमा प्रार्थना के बाद उनकी मूर्ति उठाकर झोले में रख ली...

शाम तक वह राजधानी पहुंच गया और सीधा राजा के पास गया. उसने दिव्य प्रतिमा राजा को सौंप दी और पूरी कहानी सुनायी. राजा ने बताया कि उसने कल एक सपना देखा कि सुबह सागर में एक कुन्दा बहकर आएगा...

उस कुंदे की नक्काशी करवाकर भगवान की मूर्ति बनवा लेना, जिसका अंश तुम्हें प्राप्त होने वाला है. वह भगवान श्री विष्णु का स्वरूप होगा. तुम जिस मूर्ति को लाए हो वह भी भगवान विष्णु का अंश है. दोनों आश्वस्त थे कि उनकी तलाश पूरी हो गई है...

राजा ने कहा कि जब भगवान द्वारा भेजी लकड़ी से हम इस प्रतिमा का वड़ा स्वरूप बनवा लेंगे तब तुम अपने ससुर से मिलकर उन्हें मूर्ति वापस कर देना. उनके कुल देवता का इतना बड़ा विग्रह एक भव्य मंदिर में स्थापित देखकर उन्हें खुशी ही होगी...

दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व राजा विद्यापति तथा मंत्रियों को लेकर सागर तट पर पहुंचा. स्वप्न के अनुसार एक बड़ा कुंदा पानी में बहकर आ रहा था. सभी उसे देखकर प्रसन्न हुए. दस नावों पर बैठकर राजा के सेवक उस कुंदे को खींचने पहुंचे...

मोटी-मोटी रस्सियों से कुंदे को बांधकर खींचा जाने लगा लेकिन कुंदा टस से मस नहीं हुआ. और लोग भेजे गए लेकिन सैकड़ों लोग और नावों का प्रयोग करके भी कुंदे को हिलाया तक नहीं जा सका...

राजा का मन उदास हो गया. सेनापति ने एक लंबी सेना कुंदे को खींचने के लिए भेज दी. सारे सागर में सैनिक ही सैनिक नजर आने लगे, लेकिन सभी मिल कर कुंदे को अपने स्थान से हिला तक न सके. सुबह से रात हो गई...

अचानक राजा ने काम रोकने का आदेश दिया. उसने विद्यापति को अकेले में ले जाकर कहा कि वह समस्या का कारण जान गया है. राजा के चेहरे पर संतोष के भाव थे. राजा ने विद्यापति को गोपनीय रूप से कहीं चलने की बात कही...

राजा इंद्रद्युम्न को भगवान की प्रेरणा से समझ में आने लगा कि आखिर प्रभु के विग्रह के लिए जो लकड़ी का कुंदा पानी में बह कर आया है वह हिल-डुल भी क्यों नहीं रहा...

राजा ने विद्यापति को बुलाया और कहा- तुम जिस दिव्य मूर्ति को अपने साथ लाए हो उसकी अब तक जो पूजा करता आया था उससे तुरंत भेंट करके क्षमा मांगनी होगी. बिना उसके स्पर्श किए यह कुंदा आगे नहीं बढ सकेगा...

राजा इंद्रद्युम्न और विद्यापति विश्वावसु से मिलने पहुंचे. राजा ने पर्वत की चोटी से जंगल को देखा तो उसकी सुंदरता को देखता ही रह गया. दोनों भीलों की बस्ती की ओर चुपचाप चलते रहे...

इधर विश्वावसु अपने नियमित दिनचर्या के हिसाब से गुफा में अपने कुल देवता की पूजा के लिए चले. वहां प्रभु की मूर्ति गायब देखी तो वह समझ गए कि उनके दामाद ने ही यह छल किया है...

विश्वावसु लौटे और ललिता को सारी बात सुना दी. विश्वावसु पीड़ा से भरा घर के आंगन में पछाड़ खाकर गिर गए. ललिता अपने पति द्वारा किए विश्वास घात से दुखी थी और स्वयं को इसका कारण मान रही थी. पिता-पुत्री दिन भर विलाप करते रहे...

उन दोनों ने अन्न का एक दाना भी न छुआ. अगली सुबह विश्वावसु उठे और सदा की तरह अपनी दिनचर्या का पालन करते हुए गुफा की तरफ बढ़ निकले. वह जानते थे कि प्रभु का विग्रह वहां नहीं है फिर भी उनके पैर गुफा की ओर खींचे चले जाते थे...

विश्वावसु के पीछे ललिता और रिश्तेदार भी चले. विश्वावसु गुफा के भीतर पहुंचे. जहां भगवान की मूर्ति होती थी उस चट्टान के पास खड़े होकर हाथ जोड़ कर खडे रहे. फिर उस ऊंची चट्टान पर गिर गए और बिलख–बिलख कर रोने लगे. उनके पीछे प्रजा भी रो रही थी...

एक भील युवक भागता हुआ गुफा के पास आया और बताया कि उसने महाराज और उनके साथ विद्यापति को बस्ती की ओर से आते देखा है. यह सुन कर सब चौंक उठे. विश्वावसु राजा के स्वागत में गुफा से बाहर आए लेकिन उनकी आंखों में आंसू थे...

राजा इंद्रद्युमन विश्वावसु के पास आए और उन्हें अपने हृदय से लगा लिया. राजा बोले- भीलराज, तुम्हारे कुल देवता की प्रतिमा का चोर तुम्हारा दामाद नहीं मैं हूं. उसने तो अपने महाराज के आदेश का पालन किया. यह सुन कर सब चौंक उठे...

विश्वावसु ने राजा को आसन दिया. राजा ने उस विश्वावसु को शुरू से अंत तक पूरी बात बता कर कहा कि, आखिर क्यों यह सब करना पड़ा. फिर राजा ने उनसे अपने स्वप्न और फिर जगन्नाथ पुरी में सागर तट पर मंदिर निर्माण की बात कह सुनाई...

राजा ने विश्वावसु से प्रार्थना की- भील सरदार विश्वावसु, कई पीढ़ियों से आपके वंश के लोग भगवान की मूर्ति को पूजते आए हैं. भगवान के उस विग्रह के दर्शन सभी को मिले इसके लिए आपकी सहायता चाहिए...

ईश्वर द्वारा भेजे गए लकड़ी के कुंदे से बनी मूर्ति के भीतर हम इस दिव्य मूर्ति को सुरछित रखना चाहते हैं. अपने कुल की प्रतिमा को पुरी के मंदिर में स्थापित करने की अनुमति दो. उस कुंदे को तुम स्पर्श करोगे तभी वह हिलेगा...

विश्वावसु राजी हो गए. राजा सपरिवार विश्वावसु को लेकर सागर तट पर पहुंचे. विश्वावसु ने कुंदे को छुआ. छूते ही कुंदा अपने आप तैरता हुआ किनारे पर आ लगा. राजा के सेवकों ने उस कुंदे को राज महल में पहुंचा दिया...

अगले दिन मूर्तिकारों और शिल्पियों को राजा ने बुलाकर मंत्रणा की कि आखिर इस कुंदे से कौन सी देवमूर्ति बनाना शुभ दायक होगा. मूर्तिकारों ने कह दिया कि वे पत्थर की मूर्तियां बनाना तो जानते हैं, लेकिन लकड़ी की मूर्ति बनाने का उन्हें ज्ञान नहीं...

एक नए विघ्न के पैदा होने से राजा फिर चिंतित हो गए. उसी समय वहां एक बूढा आया. उसने राजा से कहा- इस मंदिर में आप भगवान श्री कृष्ण को उनके भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ विराज मान करें. इस दैवयोग का यही संकेत है...

राजा को उस बूढ़े व्यक्ति की बात से सांत्वना तो मिली लेकिन समस्या यह थी कि आखिर मूर्ति बने कैसे ? उस बूढ़े ने कहा कि मैं इस कला में कुशल हूं. मैं इस पवित्र कार्य को पूरा करूंगा और मूर्तियां बनाउंगा. पर मेरी एक शर्त है...

राजा प्रसन्न हो गए और उनकी शर्त पूछी. बूढ़े शिल्पी ने कहा- मैं भगवान की मूर्ति निर्माण का काम एकांत में करूंगा. मैं यह काम बंद कमरे में करुंगा. कार्य पूरा करने के बाद मैं स्वयं दरवाजा खोल कर बाहर आऊंगा. इस बीच कोई मुझे नहीं बुलाए...

राजा सहमत तो थे लेकिन उन्हें एक चिंता हुई और बोले- यदि कोई आपके पास नहीं आएगा तो ऐसी हालत में आपके खाने पीने की व्यवस्था कैसे होगी ? शिल्पी ने कहा- जब तक मेरा काम पूर्ण नहीं होता मैं कुछ खाता-पीता नहीं हूं...

राज मंदिर के एक विशाल कक्ष में उस बूढ़े शिल्पी ने स्वयं को 21 दिनों के लिए बंद कर लिया और काम शुरू कर दिया. भीतर से आवाजें आती थीं. महारानी गुंडीचा देवी दरवाजे से कान लगाकर अक्सर छेनी-हथौड़े के चलने की आवाजें सुना करती थीं...

महारानी रोज की तरह कमरे के दरवाजे से कान लगाए खड़ी थीं. 15 दिन बीते थे कि उन्हें कमरे से आवाज सुनायी पडनी बंद हो गई. जब मूर्ति कार के काम करने की कोई आवाज न मिली तो रानी चिंतित हो गईं...

उन्हें लगा कि वृद्ध आदमी है, खाता-पीता भी नहीं कहीं उसके साथ कुछ अनिष्ट न हो गया हो. व्याकुल होकर रानी ने दरवाजे को धक्का देकर खोला और भीतर झांककर देखा...

महारानी गुंडीचा देवी ने इस तरह मूर्ति कार को दिया हुआ वचन भंग कर दिया था. मूर्ति कार अभी मूर्तियां बना रहा था. परंतु रानी को देखते ही वह अदृश्य हो गए. मूर्ति निर्माण का कार्य अभी तक पूरा नहीं हुआ था. हाथ-पैर का निर्माण पूर्ण नहीं हुआ था...

वृद्ध शिल्प कार के रूप में स्वयं देवताओं के शिल्पी भगवान विश्वकर्मा आए थे. उनके अदृश्य होते ही मूर्तियां अधूरी ही रह गईं. इसी कारण आज भी यह मूर्तियां वैसी ही हैं. उन प्रतिमाओं को ही मंदिर में स्थापित कराया गया...

कहते हैं विश्वावसु संभवतः उस जरा बहेलिए का वंशज था जिसने अंजाने में भगवान कृष्ण की ह्त्या कर दी थी. विश्वावसु शायद कृष्ण के पवित्र अवशेषों की पूजा करता था. ये अवशेष मूर्तियों में छिपाकर रखे गए थे...

विद्यापति और ललिता के वंशज जिन्हें दैत्य्पति कहते हैं उनका परिवार ही यहां अब तक पूजा करता है...

जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की जय...

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