Tuesday, 16 August 2016

ध्यान-योग


ध्यान तीन प्रकार का है- 1 स्थूल-ध्यान 2 ज्योतिर्ध्यान और 3 सूक्ष्म-ध्यान। स्थूल-ध्यान वह कहा जाता है जिसमें मूर्तिमान् अभीष्ट देवता का अथवा गुरू का चिन्तन किया जाय। जिस ध्यान में तेजोमय ब्रह्म वा प्रकृति की भावना की जाय उसको ज्योतिर्ध्यान कहते हैं और जिसमें बिन्दुमय ब्रह्म एवं कुल-कुण्डलिनी शक्ति का दर्शन लाभ हो उसको सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।
स्थूल ध्यान- स्थूल चीजो के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते है।
प्रथम-ध्यान-
साधक अपने नेत्र बन्द करके हृदय में ऐसा ध्यान करे कि एक अति उत्तम अमृत सागर बह रहा है। समुद्र के बीच एक रत्नमय द्वीप है, वह द्वीप रत्नमयी बालुका वाला होने से चारों और शोभा दे रहा है। इस रत्न द्वीप के चारों ओर कदम्ब के वृक्ष अपूर्व शोभा पा रहे है। नाना प्रकार के पुष्प चारों ओर खिले हुऐ हैं। इन सब पुष्पों की सुगन्ध में सब दिशाएँ सुगन्ध से व्याप्त हो रही हैं।
साधक मन में इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कानन के मध्य भाग में मनोहर कल्पवृक्ष विद्यमान है, उसकी चार शाखाएँ हैं, वे चारों शाखाएँ चतुर्वेदमयी हैं और वे शाखाएँ तत्काल उत्पन्न हुए पुष्पों और फलों से भरी हुई हैं। उन शाखाओं पर भ्रमर गुंजन करते हुए मँडरा रहे हैं और कोकिलाएँ उन पर बैठी कुहू-कुहू कर मन को मोह रही है।
फिर साधक इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कल्पवृक्ष के नीचे एक रत्न मण्डप परम शोभा पा रहा है। उस मंडप के बीच में मनोहर सिंहासन रखा हुआ है। उसी सिंहासन पर आपका इष्ट देव विराजमान हैं। इस प्रकार का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान की सिद्धि होती है।
द्वितीय-ध्यान-
हमारे हृदय के मध्य अनाहत नाम का चोथा चक्र विद्यमान है। इस के 12 पत्ते है, यह ॐकार का स्थान है। इस के 12पत्तों पर पूर्व दिशा से क्रमशः – चपलता, नाश, कपट, तर्क, पश्चाताअप, आशा-निराशा, चिन्ता, इच्छा, समता, दम्भ, विकल्प, विवेक और अहंकार विद्यमान रहते है।
अनाहत चक्र के मण्डप में ॐ बना हुआ है। साधक ऐसा चिन्तन करे कि इस स्थान पर सुमनोहर नाद-बिन्दूमय एक पीठ विराजमान है और उसी स्थल पर भगवान शिव विराजमान है, उनकी दो भुजाऐं है, तीन नेत्र है और वे शुक्ल वस्त्रों में सुशोभित है।
उनके शरीर पर शुभ्र चंदन लगा है, कण्ठ में श्वेत वर्ण के प्रसिद्ध पुष्पों कि माला है। उनके वामपार्श्व में रक्तवर्णा शक्ति शोभा दे रही है। इस प्रकार शिव का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान सिद्ध होता है।
तृतीय-ध्यान-
विश्वसारतंत्र में लिखा है कि – मस्तक में जो शुभ्र-वर्ण का कमल है, योगी प्रभात-काल में उस पदम् में गुरू का ध्यान करते है कि वह शांत, त्रिनेत्र, द्विभुज है और वह वर एवं अभय मुद्रा धारण किये हुये है। इस प्रकार यह ध्यान, गुरू का स्थूल ध्यान है।
कंकालमालिनी तन्त्र में लिखा है कि- साधक ऐसा ध्यान करे कि जिस सहस्त्र-दल कमल में प्रदीप्त अन्तरात्मा अधिष्ठित है, उसके ऊपर नाद-बिन्दु के मध्य में एक उज्ज्वल सिंहासन विद्यमान है, उसी सिंहासन पर अपने इष्ट देव विराज रहे हैं, वे वीरासन में बैठे है, उनका शरीर चाँदी के पर्वत के सदृश श्वेत है, वे नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं और शुभ्र माला, पुष्प और वस्त्र धारण कर रहे हैं, उनके हाथों में वर और अभय मुद्रा हैं, उनके वाम अंग में शक्ति विराजमान है।
इष्ट देव करुणा दृष्टि से चारों ओर देख रहे हैं, उनकी प्रियतमा शक्ति दाहिने हाथ से उनके मनोहर शरीर का स्पर्श कर रही हैं। शक्ति के वाम कर में रक्त-पद्म है और वे रक्तवर्ण के आभूषणों से विभूषित हैं, इस प्रकार ज्ञान-समायुक्त इष्ट का नाम-स्मरण पूर्वक ध्यान करे।
ज्योतिर्ध्यानः-
मूलाधार और लिंगमूल के मध्यगत स्थान में कुण्डलिनी सार्पाकार में विद्यमान हैं। इस स्थान में जीवात्मा दीप-शिखा के समान अवस्थित है। इस स्थान पर ज्योति रूप ब्रह्म का ध्यान करे।
एक ओर प्रकार का तेजो-ध्यान है कि भृकुटि के मध्य में और मन के ऊर्ध्व-भाग में जो ॐकार रूपी ज्योति विद्यमान है, उस ज्योति का ध्यान करें। इस ध्यान से योग-सिद्धि और आत्म-प्रत्यक्षता शक्ति उत्पन्न होती है। इसको तेजो-ध्यान या ज्योतिर्ध्यान कहते हैं।
सूक्ष्म ध्यानः-
पूर्व जन्म के पुण्य उदय होने पर साधक की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है। यह शक्ति जाग्रत होकर आत्मा के साथ मिलकर नेत्ररन्ध्र-मार्ग से निकलकर उर्ध्व-भागस्थ अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र की तरफ जाती है और जब यह राजमार्ग नामक स्थान से गुजरती है तो उस समय यह अति सूक्ष्म और चंचल होती है।
इस कारण ध्यान-योग में कुण्डलिनी को देखना कठिन होता है। साधक शाम्भवी-मुद्रा का अनुष्ठान करता हुआ, कुण्डलिनी का ध्यान करे, इस प्रकार के ध्यान को सूक्ष्म-ध्यान कहते हैं। इस दुर्लभ ध्यान-योग द्वारा- आत्मा का साक्षात्कार होता है और ध्यान सिद्धि की प्राप्ति होती है।
शाम्भवी-मुद्राः-
शाम्भवी मुद्रा का वर्णन आरम्भ करते हुए प्रथम उसका महत्व प्रकट किया है कि यह मुद्रा परम गोपनीय है। यह कुलवधु के समान है, और वेदादि के सर्व सुलभ होने के कारण इसे गणिका के समान बताकर शाम्भवी-मुद्रा की श्रेष्ठता ही व्यक्त की गई है। शरीर में जो मूलाधारादि षट्चक्र है उनमें से जो अभीष्ट हो, उस चक्र में लक्ष्य बनाकर अन्तःकरण की वृत्ति और विषयों वाली दृष्टि जो निमेष-उन्मेष से रहित हो ऐसी यह मुद्रा ॠग्वेदादि और योग-दर्शनादि में छिपी हैं। इससे शुभ की प्रत्यक्षता प्राप्त होती है, इसलिए इसका नाम शाम्भवी-मुद्रा हुआ।
ॐ त्वमसि आदि महाकाव्यों से जीवात्मा परमात्मा के अभेद रूप लक्ष्य में मन और प्राण का लय होने पर निश्चल दृष्टि खुली रह कर भी बाहर के विषयों को देख नहीं पाती, क्योंकि मन का लय होने पर इन्द्रियाँ अपने विषयों को ग्रहण नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्रह्म में लय को प्राप्त हुए मन और प्राण जब इस अवस्था में पहुँच जाते हैं, तब शाम्भवी-मुद्रा होती है।
भृकुटी के मध्य में दृष्टि को स्थिर करके एकाग्रचित्त हो कर परमात्मा रूपी ज्योति का दर्शन करे, अर्थात् साधक शाम्भवी-मुद्रा में अपनी आँखो को न तो बिल्कुल बन्द रखे और न ही पूर्ण रूप से खुली रखे, साधक कि आँखो की अवस्था ऐसी होनी चाहिये कि आँखें बन्द हो कर भी थोड़ी सी खुली रहे, जैसे कि अधिकतर व्यक्तियों की आँखें सोते वक्त भी खुली रहती है। इस तरह आँखो की अवस्था होनी चाहिये। ऐसी अवस्था में बैठ कर दोनों भौंहों के मध्य परमात्मा का ध्यान करे। इस को ही शाम्भवी-मुद्रा कहते हैं।
यह मुद्रा सब तन्त्रों में गोपनीय बतायी है। जो व्यक्ति इस शाम्भवी-मुद्रा को जानता है वह आदिनाथ है, वह स्वयं नारायण स्वरूप और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्वरूप है। जिनको यह शाम्भवी-मुद्रा आती है वे निःसन्देह मूर्तिमान् ब्रह्म स्वरूप है।
इस बात को योग-प्रवर्तक शिव जी ने तीन बार सत्य कहकर निरूपण किया है। इसी मुद्रा के अनुष्ठान से तेजो ध्यान सिद्ध होता है। इसी उद्देश्य से इसका वर्णन यहाँ किया गया है। इस शाम्भवी-मुद्रा, जैसा अन्य सरल योग सरल योग दूसरा नहीं है। इसे गुरूद्वारा प्राप्त करने की जरूरत है।
शाम्भवी- मुद्रा करके प्रथम आत्म-साक्षात्कार करे और फिर बिन्दुमय-ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ मन को बिन्दु में लगा दे। तत्पश्चात् मस्तक में विद्यमान ब्रह्म-लोकमय आकाश के मध्य में आत्मा को ले जावें और जीवात्मा में आकाश को लय करे तथा परमात्मा में जीवात्मा को लय करे, इससे साधक सदा आनन्दमय एवं समाधिस्थ हो जाता है।
शाम्भवी-मुद्रा का प्रयोग और आत्मा में दीप्तिमान-ज्योति का ध्यान करना चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह ज्योति, बिन्दु-ब्रह्म के रूप में दिखाई दे रही है। फिर ऐसा भी ध्यान करे कि हमारी आत्मा ही आकाश के मध्य में विद्यमान है। ऐसा भी ध्यान करे कि आत्मा आकाश में चारों ओर लिपटी है और वहाँ सर्वत्र आत्मा ही है और वह परमात्मा में लीन हो रही है।
ध्यानबिन्दू -उपनिषद् के प्रारम्भ में ही कहा है कि- यदि पर्वत के समान अनेक योजन विस्तीर्ण पाप भी हों तो भी वे ध्यान योग से नष्ट हो जाते हैं, अन्य किसी प्रकार से भी नष्ट नहीं होते।

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