इतना मिल गया, इतना और मिल जाए फिर ऐसा मिलता ही रहें - ऐसे धन, जमीन, मकान, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदि की तरह बढ़ती हुई वृत्ति का नाम ‘लोभ’ है। जहां लड़ाई होती है, वहां समय, सम्पत्ति, शक्ति का नाश हो जाता है । तरह - तरह की चिंताएं और आपत्तियां आ जाती हैं। दो मित्रों में भी आपस में खटपट मच जाती है, मनोमालिन्य हो जाता है। कई तरह का मतभेद हो जाता है। मतभेद होने से वैरभाव हो जाता है। अभी हमारे पास जिन वस्तुओं का अभाव है, उन वस्तुओं के बिना भी हमारा काम चल रहा है, हम अच्छी तरह से जी रहे हैं । परंतु जब वे वस्तुएं हमें मिलने के बाद फिर बिछुड़ जाती हैं, तब उनके अभाव का बड़ा दु:ख होता है । तात्पर्य है कि पहले वस्तुओं का जो निरंतर अभाव था, वह इतना दु:खदायी नहीं था, जितना वस्तुओं का संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दु:खदायी है । ऐसे होने पर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओं का अभाव मानता है, उन वस्तुओं को वह लोभ के कारण पाने की चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाएं तो जिन वस्तुओं का अभी अभाव है, बीच में प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होने पर भी अंत में उनका अभाव ही रहेगा। अत: हमारी तो वहीं अवस्था रही, जो कि वस्तुओं के मिलने से पहले थी। बीच में लोभ के कारण उन वस्तुओं को पाने के लिए केवल परिश्रम - ही - परिश्रम पल्ले पड़ा, दु:ख ही दु:ख भोगना पड़ा। बीच में वस्तुओं के संयोग से जो थोड़ा सा सुख हुआ है, वह तो केवल लोभ के कारण ही हुआ है। अगर भीतर में लोभ - रूपी दोष न हो, तो वस्तुओं के संयोग से सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो, तो कुटुम्बियों से सुख हो ही नहीं सकता। लालच रूपी दोष न हो, तो संग्रह का सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसार का सुख किसी न किसी दोष से ही होता है। कोई भी दोष न होने पर संसार से सुख हो ही नहीं सकता। परंतु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेक - विचार को लुप्त कर देता है। यह नियम है कि मनुष्य की दृष्टि जबतक दूसरों के दोष की तरह रहती है, तब तक उसको अपना दोष नहीं दिखता, उल्टे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारे में यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्था में वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारे में भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो, तो भी दूसरों का दोष देखना - यह दोष तो है ही। अत: स्वयं से मोहरूपी दोष को त्याग कर उचित पथ पर अग्रसित हो।
Sunday, 14 August 2016
व्यर्थ है मोह का बंधन
इतना मिल गया, इतना और मिल जाए फिर ऐसा मिलता ही रहें - ऐसे धन, जमीन, मकान, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदि की तरह बढ़ती हुई वृत्ति का नाम ‘लोभ’ है। जहां लड़ाई होती है, वहां समय, सम्पत्ति, शक्ति का नाश हो जाता है । तरह - तरह की चिंताएं और आपत्तियां आ जाती हैं। दो मित्रों में भी आपस में खटपट मच जाती है, मनोमालिन्य हो जाता है। कई तरह का मतभेद हो जाता है। मतभेद होने से वैरभाव हो जाता है। अभी हमारे पास जिन वस्तुओं का अभाव है, उन वस्तुओं के बिना भी हमारा काम चल रहा है, हम अच्छी तरह से जी रहे हैं । परंतु जब वे वस्तुएं हमें मिलने के बाद फिर बिछुड़ जाती हैं, तब उनके अभाव का बड़ा दु:ख होता है । तात्पर्य है कि पहले वस्तुओं का जो निरंतर अभाव था, वह इतना दु:खदायी नहीं था, जितना वस्तुओं का संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दु:खदायी है । ऐसे होने पर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओं का अभाव मानता है, उन वस्तुओं को वह लोभ के कारण पाने की चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाएं तो जिन वस्तुओं का अभी अभाव है, बीच में प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होने पर भी अंत में उनका अभाव ही रहेगा। अत: हमारी तो वहीं अवस्था रही, जो कि वस्तुओं के मिलने से पहले थी। बीच में लोभ के कारण उन वस्तुओं को पाने के लिए केवल परिश्रम - ही - परिश्रम पल्ले पड़ा, दु:ख ही दु:ख भोगना पड़ा। बीच में वस्तुओं के संयोग से जो थोड़ा सा सुख हुआ है, वह तो केवल लोभ के कारण ही हुआ है। अगर भीतर में लोभ - रूपी दोष न हो, तो वस्तुओं के संयोग से सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो, तो कुटुम्बियों से सुख हो ही नहीं सकता। लालच रूपी दोष न हो, तो संग्रह का सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसार का सुख किसी न किसी दोष से ही होता है। कोई भी दोष न होने पर संसार से सुख हो ही नहीं सकता। परंतु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेक - विचार को लुप्त कर देता है। यह नियम है कि मनुष्य की दृष्टि जबतक दूसरों के दोष की तरह रहती है, तब तक उसको अपना दोष नहीं दिखता, उल्टे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारे में यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्था में वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारे में भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो, तो भी दूसरों का दोष देखना - यह दोष तो है ही। अत: स्वयं से मोहरूपी दोष को त्याग कर उचित पथ पर अग्रसित हो।
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