Sunday, 14 August 2016

माता सुमित्रा


महाराजा दशरथ की कई रानियाँ थीं। महारानी कौसल्या पट्टमहिषी थीं। महारानी कैकेयी महाराजा को सर्वाधिक प्रिय थीं और शेष में श्री सुमित्रा जी ही प्रधान थीं। महाराज दशरथ प्रायः कैकेयी के महल में ही रहा करते थे। सुमित्रा जी महारानी कौसल्या के सन्न्किट रहना तथा उनकी सेवा करना अपना धर्म समझती थीं। पुत्रेष्टि –यज्ञ समाप्त होने पर अग्नि के द्वारा चरु का आधा भाग महाराज ने कौसल्या जी को दिया। शेष का आधा कैकेयी को प्राप्त हुआ चतुर्थाश जो शेष था, उसके दो भाग करके महाराज ने एक भाग कौसल्या तथा दूसरा कैकेयी के हाथों पर रखा दिया। दोनों रानियों ने उसे सुमित्रा जी को प्रदान किया। समय पर माता सुमित्रा ने दो पुत्रों तो जन्म दिया। कौसल्या जी के दिये भाग के प्रभाव से लक्ष्मण , श्रीराम के और कैकेयी जी द्वारा दिये गये भाग के प्रभाव से शत्रुध्न जी श्रीभरत जी के अनुगामी हुए। वैसे चारो कुमारो को रात्री में निद्रा माता सुमित्रा की गोद में आती थी। सबकी सुख सुविधा ,लालन-पोषण तथा क्रीड़ा का प्रबन्ध माता सुमित्रा ही करती थी। अनेक बार माता कौसल्या श्रीराम को अपने पास सुला लेतीं। रात्रि में जगने पर वे रोने लगते। माता रात्रि में ही सुमित्रा के भवन में पहुँच कर कहती – सुमित्रा! अपने राम को लो । इन्हें तुम्हारी गोद के बिना निद्रा ही नहीं आती। देखो, इन्होंने रो- रोकर आँखे लाल कर ली हैं। श्री राम सुमित्रा की गोद में जाते ही सो जाते।
पिता से वनवास की आज्ञा पाकर श्रीराम ने माता कौसल्या से तो आज्ञा ली, सुमित्रा के समीप वे स्वयं नहीं गये। वहाँ उन्होंने लक्ष्मण को भेज दिया। माता कौसल्या श्रीराम को रोककर कैकेयी का विरोध नही कर सकती थीं, कितुं सुमित्रा जी के सम्बन्ध में यह बात नहीं थी। माता सुमित्रा का ही वह आदर्श हृदय था कि प्राणाधिक पुत्र को उन्होंने कह दिया कि लक्ष्मण! तुम श्रीराम को दशरथ, सीता को मुझे तथा वन को अयोध्या जानकर सुख पूर्वक श्रीराम के साथ वन जाओ।
दूसरी बार माता सुमित्रा के गौरवमय हृदय का परिचय वहाँ मिलता है, जब लक्ष्मण रणभूमि में आहत होकर मूर्छित पड़े थे। यह समाचार जानकर माता सुमित्रा की दशा विचित्र हो गयी। उन्होंने कहा- लक्ष्मण! मेरा पुत्र ! श्री राम के लिये युद्ध में लड़ता हुआ गिरा। मैं धन्य हो गयी। लक्ष्मण ने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया। महर्षि वशिष्ठ ने ना रोका होता तो सुमित्रा जी ने अपने छोटे पुत्र शत्रुध्न को भी लंका जाने की आज्ञा दे दी थी-तात जाहु कपि संग और शत्रुघ्न भी जाने के लिये तैयार हो गये थे। इस सेवा की अग्नि में तप कर लक्ष्मण जब लौटे तभी उन्होंने उनको हृदय से लगाया। सुमित्रा जी- जैसा त्याग का अनुपम आदर्श और कहीं मिलना असम्भव हैं

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