Sunday, 14 August 2016

क्या मरना भी मुहूर्त में ही?


मुहूर्त विज्ञान उपक्रम मे इस बात का उदाहण मिलता है कि यदि मरने का मुहूर्त नहीं बनता था तो वे लोग अपना मरना भी स्थगित कर देते थे।
आर्य जाति के गौरवपूर्ण इतिहास ग्रंथ में वर्णन आता है कि महाभारत के संग्राम के समय जब नौ दिन में ही भीष्मजी द्वारा कौरव सेना का संचालन करते हुए पांडवों की आधी से अधिक सेना वीरगति को प्राप्त हो चुकी तो पांडवों ने मिलकर मन्त्रणा की कि जबतक भीष्मजी नहीं मरते तब तक पांडवों की विजय असम्भव है। श्रीकृष्ण भगवान ने प्रस्ताव किया कि भीष्म के मरने का उपाय महाराजा युधिष्ठिर भीष्म पितामह से पूछें। सदा की भांति रात में जब युधिष्ठिर भीष्म जी के चरण चांपने गए तो संकोचवश पूछ ना सके। भीष्मजी ने स्वयं उनको उन्मना देखकर कारण पूछा और आखिर युधिष्ठिर ने कड़ा हृदय करके कह ही दिया- पितामह आपके जीते जी हमारी विजय असम्भव है। यदि आप धर्म की जीत चाहते है तो शीघ्रातिशीघ्र निवार्ण प्राप्त कीजिए।
भीष्मजी बहुत हंसे और बोले कि अच्छा पुत्र, ज्योतिषियों को बुलाकर मुहूर्त दिखाइए मुझे मरने में कोई आपत्ति नहीं। पाण्डव सहदेव महाज्योतिर्विद थे, तत्काल मुहूर्त साधने बैठे, परंतु दक्षिणायन के कारण अभी अभी महींनो मुहूर्त नहीं बनता था। सहदेव जी ने सत्य बात प्रकट की, युधिष्ठिर उदास होकर युद्ध से उपरत होने की बात सोचने लगे।
अंत में नैतिक ब्रह्मचारी भीष्मजी ने कहा कि पुत्र, यद्यपि तुम्हारी जल्दी में बिना मुहूर्त प्राण त्यागने के लिए तैयार नहीं तथापि जिससे तुम्हारा काम बन जाए ऐसा उपाय बता देता हूं। कल रण स्थल में मेरे सामने शिखंडी को खड़ा कर देना, मै उसे भूतपूर्व स्त्री समझकर पीठ मोड़ लूंगा, तब तुम यथातथा मुझे गिरा देना, इस तरह तुम्हारा कार्य सिद्ध हो जाएगा।
यह कथा सभी जानते है कि उत्तरायण काल की प्रतीक्षा में भीष्म जी शरशैय्या पर बहुत समय तक पड़े रहे, और अनेक धर्मोपदेश देते रहे। जब गीताप्रोक्त प्राण त्याग का सुमुहूर्त आया तभी प्राण छोड़े।
इस प्रकार आर्य जाति में अनेक महापुरुष हुए हैं मरने के मुहूर्त के सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद गीता में स्पष्ट लिखा है।
अग्नि, ज्योति दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छ: मास इस मुहूर्त में जो ब्रह्मवेता परलोक को प्रयाण करते है, वे ब्रह्म को प्राप्त होते है। धूम रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन में छ: को प्राप्त होते हैं।

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