Sunday 14 August 2016

भाग्यवती मालिन


मथुरा में एक सुखिया नाम की मालिन थी। वह व्रज में नित्य फल बेचने के लिये आया करती थी। भगवान श्रीकृष्ण मनोहर मूर्ति उसके मन मन्दिर में सदा बसी रहती थी और वह भावों के पुष्प चढ़ा कर अहर्निश उनकी पूजा करती थी। भगवान श्रीकृष्ण तो भक्त के हृदय को पहचानते हैं , मालिन को देखकर वे खेलने के बहाने वे इधर-उधर चले जाते थे। वह मन-ही-मन कहती-श्यामसुन्दर ! तुम इतने निष्ठुर क्यों हो जो तुम्हे चाहते हैं , उनसे तुम दूर भागते हो और जो तुम से वैर करते हैं , उन्हे तुम प्रसन्नता से अपने पास बुला लेते हो। तुम्हारी लीला अत्यन्त विचित्र है। उसे केवल तुम ही जान सकते हो ।
प्रेम का वास्तविक आनन्द तो वियोग में ही हैं। वेदना ही उसका फल है और ताह उसतक पहुँच ने का मार्ग हैं। इसलिये मालिन का मन सदैव श्रीकृष्ण के आस-पास चक्कर लगाया करता था। मनमोहन को देख कर वह अपने आप को भूल जाती थी। श्रीकृष्ण तो अपने चाहने वालो के पीछे-पीछे दौड़ने वाले हैं। केवल चाह सच्ची होनी चाहिये। वैसे मालिन साग-पात बेचकर मथुरा चली जाती, किंतु उसका मन गोकुल में ही रह जाता। प्रातः काल उठते ही फिर अपने मन की खोज में गोकुल आती और मनमोहन के साथ उसे खेलते देख कर आनन्दमग्न हो जाती। उसके हाथ स्यामसुन्दर के अरुणवर्ण पतली-पतली उँगलियों का स्पर्श करने के लिये सदा लालायित रहते।उसके मन की एकमात्र चाह थी कि मेरा शरीर श्यामसुन्दर के स्पर्श से पावन बन जाय।
एक दिन मालिन मोहन की सलोनी मूर्ति का ध्यान करती हुई व्रज की गलियों में फल ले लो , फल ले लो की आवाज लगा रही थी। उसकी तपस्या आज पूर्ण हो गयी थी। संसार के जीवों को कर्म-फल प्रदान करने वाले भगवान श्रीकृष्ण मालिन से फल खरीदने के लिये घर से निकल पड़े। वे अपने छोटे-छोटे करों में धान्य भरकर मालिन की ओर दौड़ पड़े। मालिन तो श्रीकृष्ण के अनुपम सौन्दर्य में खो गयी थी। अपनी चिरकाल की साधना पूरी होती हुई देखकर वह अपने-आपको भूल गयी। कन्हैयाके करों के स्पर्श-सुख के लिये उतावली मालिन ने उनसे गिरने से बचे धान्य को लेकर उनके हाथों को फलों से भर दिया। भगवान श्यामसुन्दर के लिये उसने अपना सर्वस्य समर्पण कर दिया। सम्पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले भगवान भी धान्य-कणों के बहाने अन्नत रत्नों से मालिन की टोकरी भर दी। मालिन का जीवन सफल हो गया। अब तो वह श्रीकृष्ण की नित्य किङ्करी हो चुकी थी। प्रभु ने उसे अपनाकर धन्य कर दिया। त्रिलोकी का अधिपति जिसका अपना हो गया, उसके लिये अब कुछ भी पाना शेष नहीं रहा।

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