Sunday, 14 August 2016

वाणी की उत्पत्ति — एक चिन्तन


बसन्तोत्सव पर एक चिन्तन —
भौतिक विज्ञान ( Physics ) के जनक कहे जाने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन ने भौतिकी के तीन मूलभूत नियम ( fundamental laws of Physics ) प्रतिपादित किये थे जिनमें एक नियम यह था कि कोई पड़ी हुई वस्तु तब तक वहीं और वैसे ही पड़ी रहेगी जब तक कोई बाहरी बल उसे वहाँ से हटाने या संचालित करने के लिए न लगाया जाए । इसे विज्ञान की भाषा में ‘जड़त्व का नियम’ ( Law of Inertia ) कहते हैं ।

सृष्टि की उत्पत्ति से पहले ब्रह्माण्ड में एक अव्यक्त नाद ‘ॐ’ व्याप्त था जिसे शास्त्र अनहद नाद कहते हैं । चूँकि जैसा ब्रह्माण्ड में है, वैसा ही मानव-शरीर में, इसलिए यह अनहद नाद मानव काया में आज भी निनादित हो रहा है । जैसे Ultra-sound या Super-sonic ध्वनियों को इन स्थूल कानों से सुना नहीं जा सकता है, वैसे ही इस अनहद ध्वनि को हमारे ये कान या कोई उपकरण सुन नहीं पाते, यह हमारी इन स्थूल इन्द्रियों ( इनमें उपकरण भी शामिल हैं ) से परे है ।
इसी अव्यक्त ध्वनि से ही समस्त व्यक्त ध्वनियाँ उत्पन्न हुई हैं । प्रभु की स्वभावभूता प्रकृति के सौजन्य से इस त्रिगुणात्मिका सृष्टि का सूत्रपात हुआ है और वही इसे व्यक्त रूप में ब्रह्म ( निमित्त कारण ) की परमेच्छा से ब्रह्म ( उपादान कारण ) में ही संचालित कर रही है ।
प्रकृति ने ही सृष्टि हेतु वायु की उत्पत्ति की जिसने इस अनहद ध्वनि में विक्षोभ के द्वारा समस्त ध्वनियों की उत्पत्ति की है । इस प्रकार ॐ से इन्द्रियग्राह्य ध्वनियों की उत्पत्ति हुई ।

अगर वायु-जनित विक्षोभ ( exertion ) नहीं होता यानी न्यूटन की भाषा में समझें, यदि वायु का बाहरी बल आरोपित नहीं होता तो निराकार अनहद से इन्द्रिय-ग्राह्य साकार ध्वनियों की उत्पत्ति ही न हुई होती । अनहद नाद अपने स्वरूप में बिना किसी विक्षोभ के यथास्थिति ही अवस्थित रहता ।
[ वैसे अनहद सर्वदा ही अपनी ध्रुव स्थिति में है, उसमें उत्पन्न विक्षोभ वैसे ही प्रतीत्य है जैसे ब्रह्म में त्रिगुण-सृष्टि । सभी संसारी ध्वनियाँ अनहद में वैसे ही आभासी हैं जैसे ब्रह्म में जगत् — ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ! इन्द्रिय-ग्राह्य ध्वनियों में वे सभी प्रकार की ध्वनियाँ शामिल हैं जो कानों द्वारा सुनी जाती हैं और जो यन्त्रों की सहायता से इन्द्रिय-ग्राह्य हो जाती हैं ।]

विज्ञान यह भी कहता है कि ध्वनि निर्वात ( Vacuum या Absence of Air ) में गमन नहीं कर सकती है । इसका तात्पर्य है कि अगर वायु नहीं होती तो वाणी उत्पन्न ही नहीं होती । संसार के प्रयोजन हेतु प्रकृति ने वायु का सहारा लेकर ‘वाणी’ की उत्पत्ति की है । निम्नांकित पोस्ट पर वाणी की उत्पत्ति-विषयक ऋग्वेद के मन्त्र में यही बताया गया है कि प्राणवायु के संसर्ग से ही वाणी उत्पन्न हुई ।
अब आइए,
संस्कृत शब्द ‘वाच्’ पर विचार करते हैं । इस शब्द में ही वाणी की उत्पत्ति का रहस्य छिपा हुआ है ।

‘वाच्’ शब्द का विश्लेषण करें तो यह स्थिति बनती है —
वाच् — व् + अ + अच् ( धातु )
‘व्’ का शब्दकोशीय अर्थ है — वायु
‘अ’ का शब्दकोशीय अर्थ है — समष्टि अर्थात् समस्त विश्व
‘अच्’ धातु का अर्थ है हलचल करना — To move to and fro

जब तक समष्टिभूत ॐ–कार अनहद नाद में, जो ब्रह्म का ही रूप है, वायु विक्षोभ करके हलचल नहीं करता, तब तक ‘वाच्’ अर्थात् वाणी की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है । जब हम मौन में जाते हैं तो उल्टी क्रिया होती है, मौन में प्रकट भाषा शान्त हो जाती है, और वह वापस अनहद नाद में समा जाती है । इसीलिए मौन अर्थात् प्रकट वाणी की आत्यन्तिक अनुपस्थिति ( Eternal Absence ) में अनहद नाद सुनाई पड़ने लगता है । बाहरी वाणी विक्षोभ का नतीजा है जबकि अनहद हमारा ध्रुव स्वभाव है जो हर समय निनादित है लेकिन बाहरी मनोगति के कारण ग्राह्य नहीं हो पाता है, हमारी पकड़ से बाहर रह जाता है ।

शास्त्र कहते हैं कि ब्रह्म ( निमित्त कारण ) के इशारे पर ( परमेच्छा पर ) ब्रह्म की अध्यक्षता में, यानी उसके परम साक्षी भाव में होने की स्थिति में, ब्रह्म की स्वभावभूता ( Nature of Brahma ) प्रकृति ही ब्रह्म ( उपादान कारण ) में विक्षोभ का आभास कराती है और सृष्टि की रचना करती है । वायु भी प्रकृति का एक माध्यम है जो ॐ-कार स्वरूप अनहद ब्रह्म में विक्षोभ का आभास कराती हुई ‘वाच्’ ( वाणी ) की उत्पत्ति करती है ।

इस प्रकार वाणी की उत्पत्ति का कारण वायु है । सोचिए, अगर हमारे मुख से वायु का संचरण/आवागमन रुक जाए तो क्या कोई शब्द बोला या सुना जा सकेगा ? कदापि नहीं !
इसी वाणी से ( वच् धातु से ) वाक्य/ वाच्य की उत्पत्ति हुई जो भाषा का प्रथम घटक है ।
नोट — वाणी की उत्पत्ति का यह चिन्तन मेरा निजी मन्तव्य है । शब्दकोश के अलावा किसी शास्त्रीय सिद्धान्त को मैंने अपने चिन्तन का आधार नहीं बनाया है।

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