Tuesday, 16 August 2016

ॐकार-साधना


ॐकार-साधना ‘नाद-योग’ की उच्चस्तरीय साधना है। आरम्भिक अभ्यासी को प्रकृति प्रवाह से उत्पन्न विविध स्तर की आहत-परिचित ध्वनियाँ सूक्ष्म कणेंन्द्रियों से सुनाई पड़ती हैं। इनके सहारे मन को ‘वशवर्ती’ बनाने तथा ‘प्रकृति-क्षेत्र’ में चल रही हलचलों को जानने तथा उन्हें मोड़ने-मरोड़ने की सामर्थ्य मिलती है, आगे चलकर अनाहत क्षेत्र आ जाता है।
स्वयंभू-ध्वनि प्रवाह जिसे परब्रह्म का अनुभव में आ सकने वाला स्वरूप कह सकते है। यदि किसी के सघन सम्पर्क में आ सके तो उसे अध्यात्म क्षेत्र का सिद्ध पुरूष भी कह सकते है।
भगवान का सर्वश्रेष्ठ नाम ‘ओउम्’ है। यह स्वयं-भू है।
जिसकी ध्वनि ‘नाभि-देश’ से आरम्भ होकर ‘कण्ठमूल’ और ‘मुखाग्र’ तक चली जाती है। यह ‘ओउम्’ साढ़े तीन अक्षरों का विनिर्मित है-1 ओ, 2 उ, 3 म् – ओं के उच्चारण में अर्धबिन्दु लगा है, इसे चन्द्रबिन्दु अथवा अर्धमात्रा भी कहते है।
उसे आधा-अक्षर माना गया है, इस प्रकार साढ़े तीन अक्षर का मन्त्रराज ‘ओउम्’ कहलाता है। इसका उच्चाण कंठ, होठ, मुख, जिह्वा से होता है, पर इसका बीज कुण्डलिनी में सन्निहित है। जब ध्वनि और प्राण दोनों मिल जाते हैं। तव उसका समग्र प्रभाव उत्पन्न होता है।
स्वामी विवेकानन्द ने ‘ओउम्’ शब्द को समस्त नाम तथा रूपांतरो की एक जननी (मदर ऑफ नेम्स एण्ड फार्मस) कहा है। भारतीय मनीषियों ने इसे प्रणव-ध्वनि, उद्-गीथ, स्टोफ, आदि-नाम, अनाहत्-ब्रह्म-नाद आदि अनेकों नामों से पुकारा है।
माण्डूक्योपनिषद् में उल्लेख है कि ‘ओउम्’ अर्थात् प्रणव ही पूर्ण अविनाशी परमात्मा है, जो जड़ और चेतन में तथा सृष्टि के कण-कण में संव्याप्त है। सर्वत्र वह नाद रूप में गुंजायमान है।
योग-शास्त्र का लक्ष्य- साधक को इसी ब्रह्माण्ड-व्यापी मूल सत्ता से जोड़ना है। नाद योग-शास्त्रों की अनेका-अनेक साधना-विधियों में से सर्व-प्रमुख धारा है। कुण्डलिनी साधना के प्राण-प्रयोग में इसी का आश्रय लिया जाता है। माण्डूक्योपनिषद् में लिखा है- ‘ओउम्’ वह अक्षर है जिसमे सम्पूर्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् ‘ओंकार’ का छोटा सा व्याख्यान है।
सभी शक्तियाँ, ॠद्धियाँ और सिद्धियाँ ‘ओंकार’ में भरी हुई है।
स्थूल, सूक्ष्म और कारण- जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है, उसका संचालन ‘ॐकार’ की स्फुरणा से ही हो रहा है। यह जो उनका अभिव्यक्त अंश और उससे अतीत भी जो कुछ है, वह सब मिलकर ही परब्रह्म-परमात्मा का समग्र रूप है, पूर्ण-ब्रह्म की प्राप्ति के लिये। अतएव उनकी नाद-शक्ति का परिचय प्राप्त करना आवश्यक है।
जिसके पास ‘ओउम्’ है, उसके पास अनंत दैवी-शक्तियाँ है। बल है, बुद्धि है, जीवन है। इन्द्रियों का संयम है। भगवान् श्री कृष्ण ने ‘ओउम्’ की महिमा का वर्णन करते हुए गीता के आठवें-अध्याय में लिखा है- जो साधक मन और इन्द्रियों को वश में कर ‘ओउम्’ अक्षर-ब्रह्म का जप करता है, वह ब्रह्म का स्मरण करता हुआ इस भौतिक देह को त्याग कर परम पद को प्राप्त होता है।
इस पद को प्राप्त करने के उपरान्त जीवात्मा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। ‘अ’ से विराट् अग्नि और विश्व का ज्ञान, ‘उ’ से हिरण्यगर्भ वायु और तेजस का बोध, ‘म्’ से ईश्वर आदित्य और प्रज्ञा का परिज्ञान होता है।
यह परमात्मा के पवित्र नाम ‘ॐ’ में विद्यमान है। हमें परमात्मा के इस वैदिक-नाम ‘ओउम्’ का नित्य जप करना और नाद योग द्वारा आत्मानुसंधान करना चाहिए। कारण- स्थूल, सूक्ष्म और कारण जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है, उसका संचालन ‘ओंकार’ की ही स्फुरणा से हो रहा है। यही ‘प्रणव’ का अर्थ भी है।
नाद साधना में भी इसी ‘प्रणव’ का गुंजन सुनने से प्रगति क्षिप्र होती है। आगे चलकर, जब अन्तरिक्ष में प्रवाहमान दिव्य ध्वनियाँ सुनी जाने लगती हैं, तब उनके नौ मण्डलों को पार करते हुए दशम मण्डल में पहुँचा जाता है, जहाँ सर्वोत्तम अनाहद नाद ‘ओउम्’ ही सतत सुनाई पड़ता है।
नाद साधना की यही चरम परिणति है। इस तल तक पहुँचने वाले साधक सृष्टि के उद्गम केन्द्र तक पहुँच जाते हैं और विश्व-वैभव का अभीष्ट, सत्प्रयोजनों के लिए उपयोग करने में समर्थ होते हैं। नाद-सिद्धि साधक इन्द्रियातीत क्षमताओं के अधिपति देव-मानव कहे जाते रहे हैं।
अन्तर्नाद की भी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति ‘प्रणव’ ही है। चैतन्य-ऊर्जा कुण्डलिनी के जागरण में ‘प्रणव’ की प्रमुख भूमिका रहती है। इसीलिए ‘कुण्डलिनी-साधना’ को ‘प्रणव-विद्या’ भी कहा गया है। इस प्रकार ‘प्रणव’ समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का सर्वश्रेष्ठ अवलम्बन है।
ओमकार और कुन्डलिनी
‘कुण्डलिनी-साधना’ को ‘प्रणव-विद्या’ भी कहा गया है। उसके जागरण में जहाँ अन्यान्य विधि-विधानों का प्रयोग होता है, वहाँ उस सन्दर्भ में प्रणव-तत्त्व’ को प्रायः प्रमुखता ही दी जाती है। ‘कुण्डलिनी-जागरण’ प्रयोग ‘गायत्री-महाविद्या’ के अन्तर्गत ही आता है। ‘पंचमुखी-गायत्री’ में ‘पंचकोशों’ की साधना ‘पंचाग्नि-विद्या’ कही जाती है, यही गायत्री के पाँच-मुख हैं।
गायत्री की ‘प्राण-साधना’ का नाम ‘सावित्री-विद्या’ है, सावित्री ही कुण्डलिनी है। गायत्री मंत्र में, गायत्री-साधना में प्राण-तत्त्व का अविच्छिन्न समावेश है।
योग कुण्डलयुपनिषद् के अनुसार – कुण्डलिनी ‘प्रणव’ रूप है। ‘महा-कुण्डलिनी’ को ‘परब्रह्म-स्वरूपिणी’ कहा गया है। यह शब्द ब्रह्मम्य है। एक ‘ओउम्’ से अनेक अक्षरों की आकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं। कुण्डलिनी का आकार सर्पिणी जैसा बताया गया है।
वह कुंडली-मारे सोती हुई पड़ी है और पूँछ को अपने मुँह में दबाये हुए है। इस आकृति को घसीटकर बनाने से ‘ओउम्’ शब्द बन जाता है। अस्तु, प्राण और उच्चारण सहित समर्थ ‘प्रणव’ को ‘कुण्डलिनी’ कहा गया है और उसी सजीव ‘ओउम्’ के उच्चारण का पूरा फल बताया गया है, जिसमें कुण्डलिनी जागृति शक्ति का समन्वय हुआ है।
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह उस सोयी हुई अपनी आत्म-शक्ति को चैतन्य करे, गतिशील करे। मूलाधार से स्फूर्ति तरंग उठकर भूमध्य में दिव्य नाद की अनुभूति (श्रवण) कराने लगे, तभी समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत-संचालित हो गई है।

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