Tuesday 16 August 2016

गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन प्राचीन यज्ञ


(1) राजसूय यज्ञ– जिस सम्मेलन में सुसंगठित होकर राजा का चुनाव किया जाता है, ऐसे संगठन को राजसूय यज्ञ कहते हैं ।। इसका इसका वर्णन अथर्ववेद के 4/8 सूक्त में देखा जा सकता है ।। इस सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण 13/2/2/1 में उल्लेख है-
प्राज्ञः एवं सूयं कर्मः ।। राजा वै राजसूयेन दृष्टवा भवति ।।
अर्थात्- शासन व्यवस्था को राजसूय कहते हैं ।। राजा इस आयोजन के उपरान्त ही शासन की बागडोर संभालता है ।। आज की स्थिति में संसद विचार मंथन एवं चुनाव आयोजनों को राजसूय कह सकते हैं ।। प्रज्ञा की सहमति से प्रजापति को प्रमुखता देते हुए की जाने वाली शासन व्यवस्था राजसूय है ।।
इस प्रयोजन के लिए समय- समय पर जनसाधारण को भी एकत्रित करके सभा- सम्मेलनों के रूप में उसका मत जाना जाता था और लोक मानस क सामयिक मार्ग- दर्शन का प्रबन्ध किया जाता था, इस उद्देश्य के लिए होने वाले सभा- सम्मेलनों, वार्षिक आयोजनों को भी यही नाम दिया जा सकता है ।।
विभिन्न संस्थाएँ, शासकीय सुव्यवस्था बनाने के लिए प्रस्तुत गतिविधियों की समीक्षा उपयुक्त प्रवृत्तियों में सहयोग करने तथा आवश्यक सुधार के लिए परामर्श देने जैसे प्रयोजनों को लेकर जन सम्मेलन होते रहते हैं, वह भी इसी श्रेणी में आते हैं ।।
विशेष परिस्थितियों में विशेष परिस्थितियों के अनुरूप सामयिक निर्णय करने एवं योजना बनाने की किसी बड़ी बात को लेकर विशालकाय राजसूय यज्ञ होते हैं ।। महाभारत के बाद भगवान कृष्ण ने और लंका विजय के उपरान्त राम ने भावी निर्धारणों के लिए जनता का परामर्श सहयोग प्राप्त करने के लिए विशालकाय राजसूय यज्ञ किये थे ।। ऐसे ही विशाल आयोजन समय- समय पर अन्यत्र भी होते हैं ।।
(2) वाजपेय यज्ञ– वाजपेय यज्ञों में भी राजसूय यज्ञों की तरह ही धर्मक्षेत्र में सन्तुलन बनाये रहने के लिए लोकसेवी विद्वान परिव्राजक एकत्र होकर सामयिक परिस्थितियों पर विचार करते थे ।। जो आवश्यक होता था, उसका निर्धारण करके अपने- अपने कार्य- क्षेत्रों में लौटते थे ।। वाजपेय सम्मेलनों में निर्धारित की गई नीति एवं योजना को कार्यान्वित करने के लिए विज्ञजनों को तत्पर किया जाता था ।।
तद्नुरूप वातावरण बनाने, साधन जुटाने की सार्वजनिक योजना चल पड़ती थी ।। साधारणतया वे ‘कुम्भ’ जैसे पर्वों के निर्धारित समय पर होते थे और विशेष आवश्यकता पड़ने पर विशेष रूप से किन्हीं स्थानों पर वाजपेय यज्ञों के आयोजन होते थे ।।
(3) विश्वजित यज्ञ– इस यज्ञ द्वारा एक राष्ट्र या मानव समुदाय अपनी विशाल हृदयता, प्रेम और शक्ति के प्रभाव से सारे विश्व पर अपना आधिपत्य कायम कर सकता है ।।
(4)अश्वमेध यज्ञ– शतपथ के राष्ट्रं वा अश्वमेधः वीर्यं वा अश्वःवचनानुसार राष्ट्र और उसकी शक्तियों की भली- भाँति संगठन करनी ही अश्वमेध यज्ञ है ।।
(5) पुरुषमेधे अपने- अपने वैयक्तिक स्वार्थों को छोड़कर राष्ट्र के ही उत्थान के लिए अपना जीवन अर्पित कर देना पुरुषमेध यज्ञ है ।। ऐसे लोगों को कभी- कभी संग्राम और दुष्टों के दमन करने में प्रत्यक्ष ही जीवन या प्राण का बलिदान कर देना पड़ता है ।। इसका वर्णन बौद्ध ग्रन्थों में मिलता है ।।
(6) गौ मेध– गौ जाति के उपयोग से भूमि को जोतकर तथा खाद्य से उर्वरा बनाकर भूमि को अधिकतम भोज्य सामिग्री उत्पन्न करने योग्य बनाना ही गो मेध है ।।
(7) सर्वमेध– किसी उच्च यज्ञ के लिए जब निचला यज्ञ (संगठन) सब कुछ बलिदान कर देता है, तो उसे ‘सर्वमेध’ कहा जाता है ।।
विशिष्ट प्रयोजनों के लिए कई बार व्यक्ति विशेष द्वारा उक्त यज्ञों में से जिसका निश्चय किया हो उसकी सार्वजनिक घोषणा के लिए एक विशाल आयोजन सम्पन्न किया जाता था, तो कई बार मूर्धन्य पुरोहितों द्वारा परिव्राजकों की, वानप्रस्थ संन्यासियों की दीक्षा के सार्वजनिक समारोह बुलाये जाते थे और उनमें सामूहिक संस्कार होते थे ।।
अश्वमेध की एक विशेष प्रक्रिया राजसूय स्तर की भी सम्पन्न होती रही है ।। सामन्तवादी उच्छृंखलता के कारण शासकों के अनाचार प्रजापीड़क न बनने पाएँ, इसलिए उन्हें सर्वत्र स्वतंत्र नहीं रहने दिया जाता था ।। उन्हें किसी केन्द्रीय नियन्त्रण के अन्तर्गत रखने के लिए समय- समय पर ऐसे आयोजन होते रहते थे, जो स्वेच्छाचारिता का आग्रह करते थे, उन्हें बलपूर्वक वैसा करने से रोका जाता था ।।
इसी प्रकार वाजपेय यज्ञों के अन्तर्गत भी ‘दिग्विजय’ अभियान चलते थे, विचारों ,, सम्प्रदायों को स्वेच्छाचारिता की आदर्शवादी दिशाधारा के अन्तर्गत रखने के लिए समर्थ आत्मवेत्ता ‘दिग्विजय’ के लिए निकलते थे ।।
शास्त्रार्थ जैसे विचार- युद्ध ऐसे ही प्रयोजनों के लिए होते थे ।। जो हारता था उसे पृथकतावादी आग्रह छोड़कर संयुक्त प्रवाह में बहने के केन्द्रीय अनुशासन में रहने के लिए विवश किया जाता था ।।
आद्य शंकराचार्य जैसे अनेकों राष्ट्र संत समय- समय पर ऐसी ही दिग्विजय अभियानों के लिए निकले हैं ।। ऐसे सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किये गये धर्म- सम्मेलन अश्वमेधों की गणना में गिने जाते रहे हैं ।। आत्मशोधन एवं परमार्थ समर्पण की प्रक्रिया नरमेध, सर्वमेध के रूप में जानी जाती रही है ।।

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