Tuesday 16 August 2016

मन्त्र और अधि देवता-


हर मन्त्र का एक अधिदेवता माना गया है। उसकी अपनी आकृति और प्रकृति का वर्णन है। मन्त्र में शक्ति उसी से आती है और सिद्ध होने पर साधक को उसी से वरदान मिलता है। ध्यान-साधना की सुविधा के लिए इन अधिदेवताओं को मनुष्य की आकृति दी गई है और शस्त्रों, आभूषणों एवं वाहनों से अलंकृत किया गया है।
इससे प्रतीत होता है कि वे कोई मनुष्य जैसे ही देव-दानव स्तर के होंगे और मनुष्य की तरह खाते, सोते, बोलते और क्रुद्ध, प्रसन्न होते होंगे। अलंकारिक दृष्टि से इस प्रतिपादन में समझने- समझाने की सुविधा रह सकती है, पर यदि यथार्थता जाननी हो तो इन अलंकारों के पीछे छिपे हुए तथ्यों को जानना पड़ेगा।
तात्विक दृष्टि से कुछ विशिष्ट प्रकार के विचार गुच्छकों को ‘अधि-देवता’ कहा जा सकता है। विशिष्ट अर्थात् जिनके पीछे मनस्वी लोगों का अनुमोदन, सघन निष्ठा का समन्वय, उनका कार्यान्वित होना जैसे आधारों का समन्वय।
उदाहरण के लिए गायत्री महामन्त्र अति प्राचीन है। उसकी शब्द रचना का निर्धारण – अमुक स्तर के शक्ति कम्पन उत्पन्न कर सकने की विशेषता को ध्यान में रखकर किया गया है। मन्त्र के शब्दार्थ का कम और उसकी शक्ति उत्पादन क्षमता का महत्व अधिक होता है।
गायत्री मन्त्र के पीछे अगणित अति मनस्वी लोगों की मानसिक श्रद्धा ऊर्जा सम्मिलित है। अध्यात्म शब्द विद्या को, मन्त्र विद्या को तत्व ज्ञानियों ने ‘वाक्’ कहा है। यह वाक् अत्यधिक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण है।
शब्द को ‘ब्रह्म’ कहा गया है। यह शब्द ब्रह्म – परावाक् का मर्मस्थल है। यह प्रायः क्षीर सागर में प्रसुप्त पड़ा रहता है, पर जब जागृत होता है, तो उसके सपंदन से यह सारा विश्व गतिशील हो उठता है।
श्रुति वाक् को हृदयस्पर्शी बनाते है। स्पर्शानुभव में – रूपानुभव में आने वाली बनाते हैं। यह हृदयस्पर्शी स्वरूप स्वर्ग, मुक्ति तथा ब्रह्म निर्वाण है।
यह स्पर्श अनुभव की संभूति ॠद्धि-सिद्धियों का भंडार है। यह रूप अनुभव देवताओं का साक्षात्कार अनुग्रह एवं वरदान है। यह सब वाक् शक्ति की ही प्रतिक्रिया – प्रतिध्वनि है।
वाक् को ब्रह्मस्वरूप माना गया है। वही ब्रह्म की ब्रह्मविद्या की अविछिन्न शक्ति है। देवता उसी के वश में रहते हैं। उच्चारण और स्वर में यही अन्तर है कि उच्चारण कंठ, होठ, जीभ, तालु, दाँतों की संचालन प्रक्रिया से निकलता है और वह विचारों का आदान-प्रदान कर सकने भर में समर्थ होता है। पर स्वर अन्तःकरण से निकलता है।
उसमें व्यक्तित्व, दृष्टिकोण और भाव समुच्चय भी ओत-प्रोत रहता है। इसलिए मन्त्र को ‘स्वर’ भी कहा गया है। वेद पाठ में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित की उच्चारण प्रक्रिया का शुद्ध होना ही इसी ओर संकेत करता है। साधना क्षेत्र में स्वर का अर्थ ‘वाक्-शक्ति’ के माध्यम से किये जाने वाले सशक्त जप अनुष्ठान से ही है।
शब्द के दो रूप हैं। एक वह जो जीभ से बोला जाता है, कान से सुना जाता है, जिसके अर्थ का बोध होता है। ऐसे उच्चारित शब्दों को बैखरी संज्ञा दी जाती है। लोक प्रयोजन में वाणी का यही व्यवहार होता है। दूसरा वह जिसे परावाक् कहते हैं।
यह अन्तःकरण में भावना के – ज्ञान एवं इच्छा के – रूप में अवस्थित रहती है। यह शक्ति रूप है। इसमें प्रेरणा भरी पड़ी है। बुद्धि इसी की अनुचरी है, मन इसी का सेवक है –चित्त इसी का पार्षद है। अन्तरंग मर्मस्थल में जो भाव उमडते हैं, उन्हें साकार करने के लिए – साधन जुटाने के लिये मन और बुद्धि को लगा रहना पड़ता है। शरीर इन्हीं दोनों का अनुचर है।
अस्तु, उसे भी उसी दिशा में चलना पड़ता है। जिसमें कि अन्तरंग में अवस्थित परावाक् की प्रेरणा से मन और बुद्धि दिशा ग्रहण करते है। मनुष्य जो कुछ सोचता है, करता है, बनता है, पाता है, उसे परावाक् का ही प्रसाद कहना चाहिए।
वाक् रूप, रस, गंध, स्पर्श का अनुभव करता है। शब्द रूपी आकाश से ही वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी तत्त्व का आविर्भाव हुआ है। इसी से वाक् को विश्वरूपिणी –बहु रूपिणी और देव शक्तियों की अधिष्ठात्री कहा जाता है।
अग्नि –भू लोक है। वायु –भुवः लोक और वरूण –स्वः लोक। बैखरी जब मन्त्र साधना के द्वारा सूक्ष्म होती जाती है, तो तीनों लोकों पर उसका अधिकार होता जाता है।
लोक-लोकान्तर में जो कुछ विद्यमान है, उससे सम्बन्धित होती है, प्रभावित करती, नियन्त्रण रखती है और संचालन करती है, परिष्कृत परावाक्। जिह्वा से उच्चारित बकवास में प्रयुक्त होती रहने वाली प्रक्रिया जब उलटकर मन्त्र साधना में लगती है, तब वह शक्ति रूप होती है। शक्ति भी ऐसी जिसकी परिधि में वह सब आ जाता है जिसे अद्भुत एवं महान कह सकते हैं।
वाक् की विवेचना करते हुए शास्त्रकारों ने कहा है– वाक् सिद्धि दो प्रकार की होती है, एक शाप देने वाली दूसरी वरदान देने वाली।(शक्ति पंचकम्)॥
तैत्तिरीयोपनिषद् के तृतीय अनुवाक् में ॠषि ने लिखा है –
‘वाणी में शारीरिक और आत्म’ –विषयक दोनों तरह की उन्नति करने की सामर्थ्य भरी हुई है, जो इस रहस्य को जानता है, वह वाक्-शक्ति पाकर उसके द्वारा अभीष्ट फल प्राप्त करने में समर्थ होता है।
‘वाक्-शक्ति’ की आराधना यदि ठीक प्रकार की जा सके तो ‘मन्त्र-शक्ति’ के – प्रार्थना के, वरदान आशीर्वाद के, जड़ चेतन जगत को प्रभावित करने के, सिद्धि साधना के समस्त प्रयोजन उसी तरह पूर्ण हो सकते हैं, जैसे कि शास्त्रों में लिखे हैं।
वरिष्ठ साधकों की तरह आज भी साधना के वैसे ही प्रतिफल मिल सकते हैं। शर्त केवल एक ही है –‘वाक्-साधना’ का महत्त्व समझा जाये और उस पर समुचित रूप से ध्यान दिया जाय ।
वाणी के चार चरण है – 1 परा, 2 पश्यन्ती, 3 मध्यमा, 4 बैखरी। इनमें से प्रथम तीन अन्तःकरण रूपी गुफा में छिपी रहती हैं। बैखरी ही बोलने में प्रयोग की जाती है। परावाणी ‘नाभि-स्थल’ में रहती है।
पश्यन्ति वाणी ‘हृदय-स्थल’ में रहती है। मध्यमा वाणी ‘कंठ-स्थल’ में रहती है। बैखरी वाणी ‘मुख’ में रहती है। जिसके द्वारा हम बोल पाते या अपनी बात कह पाते हैं। जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को ‘बैखरी-वाणी- कहते हैं। यह केवल जानकारी के आदान-प्रदान में प्रयुक्त होती है।
भावों के प्रत्यावर्तन में ‘मध्यमा-वाणी’ काम आती है। इसे भाव सम्पन्न व्यक्ति ही बोलते हैं। जीभ और कान के माध्यम से नहीं वरन् हृदय से हृदय तक यह प्रवाह चलता है।
भावनाशील व्यक्ति ही दूसरे की भावनायें समझ सकता है। यह बैखरी और मध्यमा वाणी मनुष्यों के बीच विचारों एवं भावों के बीच आदान-प्रदान का काम करती है। इससे आगे दो वाणियाँ हैं, जिन्हें ‘परा’ और ‘पश्यन्ती’ कहते हैं।
परा ‘पिण्ड’ में और पश्यन्ती ‘ब्रह्माण्ड’ क्षेत्र में काम करती है। आत्म-निर्माण का, अपने भीतर दबी हुई शक्तियों को उभारने का काम ‘परा’ करती है। ईश्वर से, देव शक्तियों से, समस्त विश्व से, लोकलोकान्तरों से सम्बन्ध, सम्पर्क बनाने में पश्यन्ती का प्रयोग किया जाता है।
अस्तु, इन ‘परा’ और ‘पश्यन्ती’ वाणीयों को ‘दिव्य-वाणी’ अथवा ‘देव-वाणी’ कहा गया है।
सरस्वती रहस्योपनिषद् – वाणी की रहस्यमयी शक्ति को कुछ लोग देखते हुए भी नहीं देखते, सुनते हुए भी नहीं सुनते, वे लोग बड़े भाग्यवान हैं, जिनके सामने वाणी के नग्न स्वरूप का उदघाटन होता है।
ॠग्वेद – यह वाणी चरण वाली होती है। उसे विद्वान ब्रह्मवेत्ता ही जानते हैं। इन वाणियों में से तीन तो गुफा में ही छिपी बैठी रहती हैं। वे अपने स्थानों से नीचे नहीं हिलतीं। चौथी बैखरी वाणी को ही मनुष्य बोलते और सुनते हैं।
ब्रह्मबिन्दूपनिषद् – योग की साधना स्वर के माध्यम से करनी चाहिए। अर्थात् स्वर के माध्यम से योग साधना करनी चाहिए।

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