Tuesday 16 August 2016

भगवान शिव के प्रतीक का अर्थ है

 – सम्पूर्णतः सर्व-व्यापक-पूर्ण-ब्रहम्-ज्ञान। जिस प्रकार भगवान शिव हर वक्त ध्यान में डूबे रहते है, उसी प्रकार हमें डूबना होगा, तभी हमें ज्ञान-गंगा एवं अमृत-गंगा की प्राप्ति होगी।
भगवान शिव के शीश पर जो गंगा बह रही है, उसका आप चाहे जो भी अर्थ लगाये किन्तु इसका अर्थ है – ज्ञान एवं अमृत-गंगा अर्थात् हर वक्त जो व्यक्ति परमात्मा के ध्यान में डूबा रहता है, केवल उसे ही पूर्ण-ब्रहम्-ज्ञान एवं अमृत की प्राप्ति होती है।
भगवान शिव के गले में जो जहर दिखाया जाता है। उसका अर्थ यही है कि बिना अमृत की प्राप्ति के जहर पिया ही नहीं जा सकता। जहर पीने का तात्पर्य यही है कि संसार के सभी दुखों को जीत लेना।
कैसी भी परेशानी या कैसी भी समस्या क्यों न आ जाये उससे नहीं डरना। आम व्यक्ति तुम्हारा कितना ही तिरस्कार क्यों न करें, किन्तु सब को एक समान देखना। किसी से भी घृणा, ईष्या एवं द्वैष न रखना। अहंकार से बड़ा, ईष्या और द्वैष से बड़ा कोई जहर नहीं है। शिव के गले में नाग का होना, जितेन्द्रिय होने का प्रतीक है अर्थात् जो व्यक्ति परमात्मा का ध्यान करता है, वह काम को जीत लेता है। ऐसे जितेन्द्रिय साधक के पास से अनेकों स्त्रियाँ भी पराजित हो कर जाती है।
ऐसा साधक सभी स्त्रियों को माँ या पुत्री के रूप में देखता है। भगवान शिव के प्रतीक को बुजुर्ग के रूप में दिखाया गया है। इसलिऐ ऐसा साधक सभी स्त्रियों को पुत्री रूप ही मानता है। भगवान शिव के हाथ में त्रिशूल –सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के उपर विजय प्राप्ति का संकेत है।
शिव के हाथ का डमरू दिव्य-ध्वनी का प्रतीक है। इसी प्रकार जितने भी प्रतीक है, ये जिस ने भी बनाऐ बहुत ही सोच समझ कर इनकी रचना की गई है। सभी साधक एवं आम व्यक्ति प्रतीकों को तो मानते हैं, किन्तु प्रतीकों में छुपे हुऐ रहस्य को मानने को तैयार नहीं है।
जब तक इन प्रतीकों के रहस्यों को नहीं जान लेंगे और उन रहस्यों को अपने जीवन में नहीं उतार लेंगे, तब तक हम चाहे गृहस्थ में हो या सन्यास में उस परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। पर-ब्रह्म को पाने के लिऐ अपने आप को मिटाना होगा एवं मन, कर्म वचन को पवित्र रखते हुऐ उस परमात्मा की बंदगी/स्तुति करनी होगी।
बिना परमात्मा के निज-नाम में डूबे हमें ज्ञान-गंगा एवं अमृत-गंगा की प्राप्ति नहीं होगी। मिटाना होगा हमे अपने अंहकार को और जीतना होगा अपने काम को। जिस दिन हम ने काम और अहंकार पर विजय प्राप्त कर ली उसी दिन हम ब्रह्म-ज्ञानी बन जायेगे। उस परमात्मा की दिव्य-ध्वनी को सुन सकेगें एवं इस सम्पूर्ण सृष्टि के रहस्यों को जान सकेगें।

सभी सन्त यही बात कहते है कि अंहकार को खत्म कर लो, काम को जीत लो, किन्तु कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही मुश्किल। काम और अंहकार को यदि जीतना इतना आसान होता, जितना कि कहना आसान है, तो सभी साधक ब्रहम्-ज्ञानी बन गये होते। किन्तु कहीं न कहीं से तो हमें काम और अंहकार को जीतने का प्रयास आरम्भ करना होगा।
हम सभी जानते है कि बग़ैर काम और अंहकार को जीते हमें ब्रहम्-ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिऐ यदि हमें ब्रहम्-ज्ञान को पाना है, ज्ञान व अमृत-गंगा को प्राप्त करना है, दिव्य ध्वनियों को सुनना है और उस परमेश्वर से साक्षात्कार करना है, तो कभी न कभी तो साधना को प्रारम्भ करना ही होगा।
आप अपनी इच्छा अनुसार चाहें जिस मर्जी रास्ते का चुनाव करे। चाहे आप कर्म-योगी बने, हठ-योगी बने, तप-योगी बने। जप का सहारा ले, भक्ति का सहारा ले या ध्यान-मार्ग का चुनाव करे, यह आप कि इच्छा पर निर्भर करता है। आप किसी भी एक रास्ते पर चलते हुऐ संपूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ उस रास्ते पर बढ़ते चले जाऐ। जिस रास्ते या मार्ग का आप चुनाव करें, बार-बार अपने रास्ते या मार्ग को न बदले।
अगर आप ने अपनी इच्छा अनुसार रास्ते या मार्ग का चुनाव किया है तो, इस पर चलने में आपको आसानी होगी और धीरे-धीरे आप मंजिल को प्राप्त कर लोगे। जैसे कि एक छोटा बच्चा विज्ञान कि पुस्तकों को ध्यान से पड़ता है तो, वह आगे जा के विज्ञान क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त कर सकता है।
अनेकों बार ऐसा होता है कि- कोई छात्र डॉक्टर बनना चाहता है, किन्तु उसके माँ-बाप या रिश्तेदार उसे इन्जीनियर बनने को कहते है। छात्र का अपना रास्ता विज्ञान का है, किन्तु माँ-बाप उसे रास्ता बदलने के लिऐ कहते है। ऐसे ही आम व्यक्ति या साधक के साथ भी होता है।
वह साधक अपने इष्ट के मार्ग पर चल रहा होता है और अनजाने में ही कोई उससे कह बैठता है कि- तेरा रास्ता ठीक नहीं है, तू अपने रास्ते को बदल दे, तुझे जल्दी से वह परमात्मा मिल जाऐगा और वह साधक अपना रास्ता बदल देता है और भटक जाता है। तो आप कभी भी किसी के कहने से या सुनने मात्र से अपने रास्ते को न बदले।
ध्यान-पूर्वक अपने जीवन एवं अपने आप का स्वयं अध्ययन करें और फैसला करें कि मैं किस नियम को या किस रास्ते पर चल सकता हूँ। जिससे कि मुझे कम से कम मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़े। क्योंकि मन ही सबसे बड़ा स्वयं का प्रतिद्वंद्वी है। मान लीजिये आप शिव को मानते है और कोई आप से शक्ति की पूजा करने को कहे तो सबसे पहले मन ही बीच में आयेगा और तुम्हारे रास्ते में अनेकों प्रश्न पैदा कर देगा।
इसलिये प्रारम्भ में मन के विपरीत बिल्कुल मत चलिये। अपितु मन के अनुसार चलते हुऐ यदि आप जाप या ध्यान पर ज्यादा ध्यान देंगे, तो मन स्वतः ही जाप में रम जायेगा। अगर आप की श्रद्धा व विश्वास परमात्मा के प्रति दृढ़ है तो धीरे-धीरे आपका मन अवचेतन मन में, अवचेतन मन बुद्धि में, और बुद्धि आत्मा में विलीन हो जाऐगी। फिर यह आत्मा ॐ-ॐ करते हुऐ उस परमात्मा में विलीन हो कर सोहम् – सोहम् कह उठेगी।

आज का व्यक्ति धर्मों, मतों एवं उनके द्वारा रचित मंत्रों में इतना अधिक उलझा हुआ है कि वह समझ ही नहीं पाता कि मुझे क्या करना चाहिये। सभी धर्म एवं मत सूक्ष्म, दीर्घ एवं स्थूल ॐ का जाप साधक को न बता कर, विभिन्न प्रकार के अनेकों ही मत्रों में उलझायें रखते है। साधक भी इन विभिन्न मंत्रों के जाल में उलझा रहता है। सालों-साल मेहनत करता है, किन्तु उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
ऐसे साधक को जब कोई योगी पुरूष मिलता है तो अनेकों बार योगी पुरूष के मिलने पर साधक रो उठता है और कहता है कि मुझे अनेकों साल हो गये, किन्तु मुझे उस परमात्मा की एक झलक तक दिखाई नहीं दी। योगी पुरूष जब साधक की श्रद्धा एवं उसके भाव को देखता है तो उसके ऊपर कृपा करते हुऐ, उसे तत्त्व-ज्ञान देता है और ॐकार के सुक्ष्म, दीर्घ या स्थूल रूप का विधान बता कर साधना करने को कहता है और जब साधक उस साधना को करता है तो बहुत ही कम समय में उसे दिव्य-अनुभूतियाँ होने लगती है।
जिन श्रद्धावान साधकों को ऐसे योगी पुरूष मिल जाते है, उन्हें इसी जन्म में जीते-जी की मुक्ति प्राप्त होती है एवं इसी जन्म में वे परमात्मा से साक्षात्कार करके ज्ञान व अमृत-गंगा के स्वामी बन बैठते है। सतोगुण-रजोगुण-तमोगुण इन तीनों पर विजय को प्राप्त करते है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँचों तत्त्वों के रहस्य को जान लेते है। संसार के सभी दुखों को हलाहल जहर के समान पीते हुये अर्थात् सहते हुये ज्ञान मार्ग पर चलते रहते है।

मृत्यु उपरान्त दिव्य-मंडल में उच्च पद पर शोभायमान होते है। किन्तु जो साधक विभिन्न मंत्रों में उलझे रहते हैं या जिन को योगी पुरूष मिलने पर भी उनकी बात को न मान कर अपने अंहकार को ही बड़ा मानते है अर्थात् तत्त्व ज्ञान को न मान कर अपने-मत, अपने-धर्म, अपने-गुरू एवं अपने-मंत्र को बड़ा मानने वाला कभी भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते हैं। उन्हे जीते-जी की मुक्ति प्राप्त नहीं होगी।
अपितु वह जन्म व मृत्यु के चक्कर में हमेशा फंसा रहेगा और अपने कर्मों को इकट्ठा करता चला जायेगा और प्रत्येक जन्म में अपने भाग्य को कोसता रहेगा कि मेरे भाग्य में तो इस जन्म में उस परमात्मा से मिलना लिखा ही नहीं हुआ है। भाग्य को कोसने वाले और तत्त्व ज्ञान को न समझने और न जानने वाले और न मानने वाले कभी भी परमात्मा को प्राप्त नहीं हो सकते।
अपितु जो सब मंत्रों एवं नियमों का त्याग कर श्रद्धा भाव से ॐकार के सूक्ष्म, दीर्घ एवं स्थूल रूप के अर्थ को जान कर और तत्त्व-ज्ञान को समझ कर जो साधना करते है, उसे इसी जन्म में सम्पूर्णता की प्राप्ति होती है। परमात्मा का मिलन सम्भव होता है। परमात्मा के मिलन में वह दीवाना हो उठता है। सम्पूर्ण संसार के सुख भी ऐसे साधक के सामने रख दिये जाये तो वह उन सब सुखों को ठोकर मार देता है।
अगर ऐसे साधक से पूछा जाये की तूने इन सभी सुखों को ठोकर क्यों मार दी तो, वह यही कहेगा की मेरे परमात्मा के सामने, मेरे प्यारे के सामने, यह सभी सुख तुच्छ है। ऐसा साधक दीवानगी की हद को पार कर जाता है और संसार में रहते हुऐ भी वह इस प्रकार निष्पाप और निष्कलंक रहता है, जिस प्रकार कीचड़ में कमल खिला रहता है।

इस प्रकार जब आप अपनी पसंद का रास्ता अपनी इच्छा अनुसार चुन कर साधना करोगें तो धीरे-धीरे स्वतः ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, घृणा, द्वैष- इन आठों पाशों पर विजय प्राप्त कर सकोगें। अधिकतर व्यक्ति इसी प्रयास में लगे रहते है कि पहले में अपने काम, क्रोध को जीत लूँ, उसके पश्चात साधना प्रारम्भ करूँगा, तो यह आपकी भूल है।
जिस प्रकार एक अच्छा सपेरा पहले बीन-बजानी सीखता है और साँप का जहर उतारने का गुर बाद में सिखता है। उसी प्रकार एक अच्छा साधक सर्व-प्रथम सहज योग के द्वारा अपने मन को परमात्मा के नाम का स्वाद पहले देता है और उसके पश्चात जब मन को परमात्मा के नाम में रस आने लगता है तो वह स्वतः ही अपनी मैं अर्थात् अहंकार और काम भाव को छोड़ देता है। अहंकार को छोड़ने के पीछे जो कारण है, वह यही है कि मन परमेश्वर की शक्ति को मानने लगता है।
मन तभी तक अहंकार करता है, जब तक उसको अपने से बड़ी शक्ति का एहसास न हो जाये। जब मन को यह आभास होने लगता है कि मैं तो तुच्छ मात्र हूँ, सही मायने में वह परमात्मा ही सबका पालन-पोषण करने वाला है एवं मेरे हाथ में तो कुछ भी नहीं है और सब कुछ उस परमात्मा अर्थात् विधि के हाथ में है।
इस प्रकार मन के समझ जाने पर स्वतः ही अहंकार का त्याग हो जाता है। परमात्मा में लीन साधक काम-भाव का त्याग इसलिये कर देता है कि उसे काम से ज्यादा परमात्मा के नाम में रस आने लगता है। जो साधक सघन साधना में लगे रहते हैं, वे साधक इस प्रकार सभी पाशों से मुक्ति पा लेते है।

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