Sunday 14 August 2016

मनु – शतरुपा को वरदान


सृष्टि के आदि में पितामह ब्रह्मा ने सर्व प्रथम स्वयंभू मनु और शतरुपा की सृष्टि की। आगे चलकर इन्हीं भाग्यवान दम्पति के द्वारा सृष्टि का विस्तार हुआ। उनके सदाचार, शील तथा पवित्र धर्माचरण के विषय में आज भी श्रुतियो में वर्णन मिलता है। हम सभी मानव उन्हीं मनु एवं शतरुपा की सन्तान हैं। इनके सबसे बड़े पुत्र का नाम उत्तानपाद था, जिनके यहाँ ध्रुव-जैसे परम भागवत पुत्र का जन्म हुआ। महाराज मनु के दूसरे पुत्र का नाम प्रियव्रत तथा पुत्री का नाम देवहूति था। देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि के साथ हुआ। इनके यहाँ भगवान ने कपिल रुप में अवतार लिया तथा अपनी माता को सांख्यशास्त्र का उपदेश दिया।
महाराज मनु ने बहुत दिनों तक इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किसी को कोई कष्ट नहीं था । सब लोग धर्माचरण में संलग्न थे। इस तरह प्रजा का पालन करते हुए जब महाराज मनुका चौथापन आ गया, तब उन्होंने सम्पूर्ण राज्यभार अपने बड़े पुत्र उत्तानपाद को सौंपकर एकान्त में भगवान का भजन करने के लिये अपनी पत्नी शतरुपा के साथ नैमिषारण्य जाने का निर्णय लिया।
महाराजा मनु के नैमिषारण्य पहुँच ने पर वहाँ के मुनियों ने बड़े ही प्रेम से उनका स्वागत किया तथा वहाँ के तीर्थो में उन्हें सादर स्नान करवाया। उसके बाद मनु और शतरुपा दोनों पति-पत्नी वट-वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान के दर्शन के लिये कठोर तप करने लगे। कुछ दिनों तक उन्होंने केवल जल पीकर तप किया। उनके मन में यह दृढ़ इच्छा थी कि नेति-नेति के रुप में वेद जिन परमात्मा के गुणों का गान करते हैं तथा जिनके एक अंश से अनेक ब्रह्मा, विष्णु और महेश पैदा होते हैं हम उन परम प्रभु का दर्शन करें।
इस प्रकार महाराज मनु और शतरुपा को जल पीकर तपस्या करते हुए छः सहस्त्र वर्ष बीत गये। फिर उन्होंने सात सहस्त्र वर्षो तक केवल वायु पीकर तपस्या की। दस सहस्त्र वर्षो तक तो वे दोनों केवल एक पैर पर खड़े होकर तपस्या करते रहे। ब्रह्मा , विष्णु और महेश ने उनकी कठिन तपस्या को देखकर कई बार उन्हें वर देने का प्रयास किया लेकिन महाराज मनुने उसपर ध्यान नहीं दिया।
जब भगवान ने समझ लिया कि राजा-रानी मन , कर्म और वचन से अनन्य भक्त हैं तब आकाश से वर माँगो- ऐसी आकाशवाणी हुई। देखते-ही-देखते उन दोनो के शरीर हृष्ट-पुष्ट हो गये। मनु ने भगवान को प्रणाम किया और कहा – हे प्रभु आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं आप के मुनिमनहारी स्वरुप को देखना चाहता हूँ। कृपा कर मुझे यही वर दें। भगवान ने मनु से कहा मैं तुम दोनो पर परम प्रसन्न हूँ। तुम्हारे लिये मेरे पास कुछ भी अदेय नहीं है। मनु ने कहा – प्रभो यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं आपसे आपके समान ही पुत्र चाहता हूँ। हे कृपानिधी! मुझे यही वर दीजिये । भगवान ने- कहा-राजन! ऐसा ही होगा। किन्तु मैं अपने समान पुत्र कहाँ खोजूँ अब आप दोनो मेरे आदेश से कुछ समय तक इन्द्र की अमरावती में जाकर निवास करें। त्रेता में जब आप अयोध्या के राजा दशरथ होंगे, तब मैं अपने अंशों सहित चार रुपों में आपके यहाँ अवतार लूँगा। ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये।

No comments:

Post a Comment