Tuesday 16 August 2016

महर्षि भारद्वाज रचित ‘विमान शास्त्र‘ 1



देश में में सर्वसाधारण लोगों मे यह धारणा प्रचलित है कि विज्ञान के क्षेत्र में प्रकाश की प्रथम किरण पश्चिम के आकाश में ही फूटी थी और इस कारण समूचे विश्व में विकास चक्र गतिमान हुआ । पूर्व के आकाश में विज्ञान के क्षेत्र में अन्धकार व्याप्त था । इस धारणा के कारण मात्र पश्चिम का अनुकरण करने की वृत्ति देश में दिखाई देती है।
परिणामस्वरूप हमारी कोई वैज्ञानिक परम्परा थी , विज्ञान दृष्टि थी इसका कोई ज्ञान न होने से आज के विश्व में हमारी कोई भूमिका हो सकती है, इस विश्वास का अभाव आज चारों ओर दिखाई देता है।
परन्तु 20 वीं सदी के प्रारम्भ में आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय , ब्रजेन्द्रनाथ सील , जगदीश चन्द्र बसु , राव साहब वझे आदि विक्षनों ने अपने गहन अध्ययन के द्वारा सिद्ध किया कि भारत मात्र धर्म दर्शन के क्षेत्र में ही नहीं अपितु विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में भी अग्रणी था ।
इतना ही नही तो हमारे पूर्वजों ने विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय किया था जिसमें से उत्पन्न विज्ञान दृष्टि के कारण विज्ञान का विकास जैवसृष्टि के अनुकूल व मंगलकारी रहने की दृष्टि प्राप्त हुई जिसकी आवश्यकता आज का विश्व भी अनुभव कर रहा है।
इसी दिशा में आगे चलकर अनेक विद्वानों ने और अधिक प्रमाणों के साथ प्रचीन भारतीय विज्ञान को विभिन्न पुस्तकों में व लेखों में अभिव्यक्त किया । इनमें विशेष रूप से आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय की हिन्दु कैमेस्ट्री , ब्रजेन्द्रनाथ सील की " दी पॉजेटिव सायन्स ऑफ इन्स्टीट्यूट हिन्दूज " , राव सा.वझे का " हिन्दी शिल्प शास्त्र " तथा धर्मपालजी की " इण्डियन सायन्स ऍण्ड टेक्नॉलॉजी इन दी एटीन्थ सेंचुरी " में भारत में विज्ञान व तकनीकी परपंराओं को उद्घाटित किया गया है ।
वर्तमान में संस्कृत भारती ने संस्कृत में विज्ञान तथा बॉटनी, फिजिक्स, मेटलर्जी, मशीन्स , केमिस्ट्री आदि विषयों पर कई पुस्तकें निकालकर इस विषय को आगे बढ़ाया है । इसके अतिरिक्त बंगलौर के एम.पीत्र राव ने विमानशास्त्र व वाराणसी के पीजी डोंगरे ने अंशबोधिनी पर विशेष रूप से प्रयोग किए ।
विज्ञान भारती मुम्बई व पाथेय कण जयपुर ने उपर्युक्त सभी प्रयासों को संकलित रूप से समाज के सामने लाने का प्रयत्न किया । डॉ. मुरली मनेहर जोशी के लेखों, व व्याख्यानों में प्राचीन भातीय विज्ञान परम्परा को प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया गया है ।
इसके अतिरिक्त आज की सबसे बड़ी आवश्यकता विज्ञान व अध्यात्म के समन्वय की दिशा में फ्रीटजॉफ काप्रा, ग्रेझुकोवव, प्योफ्रीच्वे तथा रामकृष्ण मिशन के परमाध्यक्ष पूज्य स्वामी रंनाथानंदजी एवं स्वामी जितात्मानंदजी आदि के अनुभवो कें व व्याख्यानों से भारतीय विज्ञान दृष्टि एवं उसका वैश्ष्ट्यि जगत्‌ कें सामने उद्घाटित हो रहा है।
अनेक विद्वान्‌ इस दिशा में चितंन व प्रयोग कर रहे हैं इस साहित्य को पढ़ने पर आज की पीढ़ी को एक दिशा मिल सकती है , उसके मन में स्वाभिमान का जागरण हो सकता है और अपनी विज्ञान दृष्टि से विश्व को भी उन अनेक समस्याओं से मुक्ति दिलाई जा सकती है जिसे आज मात्र भौतिक विकास के कारण वह अनुभव कर रहा है ।
इन सब विद्वानों की लिखि कुछ पुस्तकों और लेखों के आधार पर इसी धारणा को निर्मूल सिद्ध करने के लिए श्री सुरेश जी सोनी ने (भारत में विज्ञान की उज्जवल परंपरा) एक पुस्तक भारत में विज्ञान की उज्जवल परम्परा लिखी जिसके कुछ अंशों को आपके सामने लाया जा रहा है।
विमानविषयक ऐसी युक्तिया तो है ही जिंनका प्रयोग आधुनिक काल मे हो रहा है , इसके अतिरिक्त अनेकों विमाननिर्माण की ऐसी विधिया व युक्तिया भी है , जिनके बारे मे शायद आधुनिक विज्ञान सोच भी नहीं सकता.... हालांकि ये आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि इस पर आज के समय मे किसी ने कार्य क्यो नहीं किया....शायद इसका कारण ये हो सकता है कि जो करने मे सक्षम है किन्तु साधन सम्पन्न नहीं , जो साधन सम्पन्न है वो करने मे सक्षम नहीं...
किन्तु ये पूर्ण सत्य है कि अगर आज के समय मे इस पर कार्य किया जाये तो सफल परिणाम अवश्य ही प्राप्त हो...... इसमे अनेकों शब्दो को समझना मुश्किल है , किन्तु संस्कृत का जिस विद्वान को पूर्ण ज्ञान हो वह अवश्य ही इन शब्दो को वास्तविक आकार देने मे समर्थ है....
श्लोक - मेघोत्पत्तिप्रकरणोक्तशरन्मेधावरणषट्केषु द्वितीया वरणपथे विमानमन्तर्धाय विमानस्थ शक्त्याकर्षणदर्पणमुखात्तन्मेधशक्तिमाहत्य पच्श्राद्विमानपरिवेषचक्रमुखे नियोजयेत् । तेनस्तंभनशक्तिप्रसारणम् भवति, पच्श्रात्तद्दवा रा लोकस्तम्भनक्रियारहस्यम् ॥
मेघोत्पत्ति प्रकरण में कहे शरद ऋतु संबंधी छ: मेघावरणों के द्वितीय आवरण मार्ग में विमान छिपकर विमानस्थ शक्ति का आकर्षण करने वाले दर्पण के मुख से उस मेघशक्ति को लेकर पश्चात् विमान के घेरे वाले चक्रमुख में नियुक्त करे , उससे स्तम्भनशक्ति का विस्तार अर्थात प्रसार हो जाता है ,एवं स्तम्भन क्रिया रहस्य हो जाता है ....
अर्थ-
इस मंत्र में जो दर्पण आया है , उसे शक्ति आकर्षण दर्पण कहा जाता है , यह पूर्व के विमानो मे लगा होता था , यह दर्पण मेघो की शक्ति को ग्रहण करता है ।
दूसरा विमान मे एक स्थित चक्र मुख यंत्र होता है ..... आकाश में शक्ति आकर्षण दर्पण मेघो की शक्ति को ग्रहण करके , स्थित चक्र के माध्यम से मुख यंत्र तक पहुचा देता है... तत्पश्चात चन्द्र मुख यंत्र स्तंभन क्रिया का प्रारम्भ कर देता है......
इसके अतिरिक्त एक चौकाने वाली चीज और देखी , जिसमे विमान को अदृश्य करने का रहस्य वर्णित है ....उसमे शक्ति यंत्र सूर्य किरणों के उषादण्ड के सामने पृष्ठ केंद्र में रहने वाले वेणरथ्य किरण आदि शक्तियों से आकाशतरंग के शक्तिप्रवाह को खीचता है , और वायुमंडल में स्थित बलाहा विकरण आदि पाँच शक्तियों को नियुक्त करके उनके द्वारा सफ़ेद अभ्रमंडलाकार करके उस आवरण से विमान के अदृश्य करने का रहस्य है .....
इतना ही नहीं , इस ग्रंथ के दश्य रहस्य विचार में एक "विव्श्रक्रिया दर्पण का उल्लेख भी आता है , जिसे हम आज रडार सिस्टम कहते है ..... एक अध्याय मे इसका थोड़ा विस्तृत रूप मे भी उल्लेख है ...
इसके अंतर्गत आकाश में विद्युत किरण और वात किरण मतलब रेडियो वेव्स , के परस्पर सम्मेलन से उत्पन्न होने वाली बिंबकारक शक्ति अर्थात इमेज मेकिंग पावर वेव्स का प्रयोग करके , रडार के पर्दो पर छाया चित्र बनाकर आकाश मे उड़ने वाले अदृश्य विमानो का पता लगाया जा सकता है ...

क्रमश:___

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